Wednesday 28 December 2011

{DDU-48} Fact Fniding Peoples' Report on LNP HEP (600 MW) Bhagirathiganga Valley 12-2-2009 (Hindi)


Cancel Environment Clearance
Says:Fact Finding Team

Project Name: Loharinag-Pala Hydroelectric Project (4x150 MW)
River: Bhagirathi
Agency: National Thermal Power Corporation (NTPC)
Environmental Clearance granted on 8.2.2005

Dear Friends
Please find enclosed a Fact Finding Report prepared after a in-depth study of the Loharinag-Pala HEP (600) by a team of 5 social activist Sataysing Tadiyal (Ganga Sewchhata Abhiyan); Pushpa Chouhan (Uttarakhand Mahila Manch); Rajvinder Singh and Pravendra Singh (Envionmental Activist) and Vimalbhai (Matu Peoples’ Organisation).
Today morning we sent a letter to Sec. Ministry of Environment and Forest asking him to cancel the Environment Clearance of Loharinag-Pala HEP for not following the conditions of the clearance letter issued by the MOEF dated. 8-2-205.
We also sent this letter along with the report to other concern departments too.
As the matter is very urgent as the Ex. Member sec. of Central Pollution Control Bord Mr. G.D. Aggarwal is on Hunger Strike from 14 January, 2009.
Please do write to MoEF and Power Ministry and Ministry of Water Resource to cancel the project as non-compliance of Environment Clearance.
Our letter to the ministry and the report in Hindi and English given below.......
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श्रीमान सचिव 12-2-09
केन्द्रीय पर्यावरण एवंम् वन मंत्रालय,
पर्यावरण भवन, सी.जी.ओ. काॅम्पलैक्स
लोधी रोड, नई दिल्ली

संदर्भः-लोहारीनाग-पाला जल विद्युत परियोजना (600 मेवा) की पर्यावरण स्वीकृति तुंरत रद्द करे।
क्षेत्र के स्थायी विकास हेतु स्थानीय लोगो के रोजगार की स्थायी व्यवस्था करें।

मान्यवर,

माटू जनसंगठन की पहल पर लोहारीनाग-पाला जल विद्युत परियोजना (600मेवा) को आपके द्वारा 8-2-2009 को दी गई पर्यावरण स्वीकृति की शर्तो के पालन पर एक स्वतंत्र जांच रिपोर्ट तैयार की गई है। पांच सदस्यों के इस स्वतंत्र जांच दल में विभिन्न संगठनो के प्रतिनिधि थे। जिन्होने अपनी जांच में पाया की यह परियोजना शुरु से ही विवादित रही है। भागीरथी नदी के प्रारंभिक क्षेत्र में निमार्णरत इस परियोजना में पर्यावरणीय व सामाजिक दायित्वों का पालन नही हुआ है। परियोजना को दी गई पर्यावरण स्वीकृति के समय जो प्रश्न व आशंकाये हमने उठाई थी वो सत्य सिद्ध हुई है। इस स्वतंत्र जांच से सिद्ध होता है कि लोहारीनाग-पाला जल विद्युत परियोजना को दी गई कमजोर व नाममात्र की पर्यावरण स्वीकृति शर्तो का भी सीधा उलंघन हो रहा है। इसलिए हमारी मांग है किः-

(1) कि केन्दªीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय बांध की स्वीकृति तुंरत रद्द करे। इसी पर्यावरण स्वीकृति की शर्त संख्या 3 व
7 के अनुसार भी मंत्रालय की यह जिम्मेदारी बनती है।

3. एन.टी.पी.सी. के दारा दाखिल की गई पर्यावरण प्रंबध योजना का परीक्षण कर लिया गया है। केन्दªीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने, पर्यावरण प्रभाव आंकलन 1994 के आधार पर पर्यावरण अनुमति दी है। जिसमेे दी गए शर्तो व नियमों का कड़ाई से पालन करना होगा।

7. प्रभावी रुप से सुझाये गये सुरक्षात्मक उपायों को समयबद्व व संतोश जनक तरीके से लागू करने के लिए पर्यावरण एंव वन मंत्रालय पर्यावरण संरक्षण कानून 1986 के अन्तर्गत यह अधिकार सुरक्षित रखता है की आवश्यकता होने पर वो अतिरिक्त सुरक्षात्मक उपाय जोड़ सकता है और अनुमति रोकने सहित अन्य कदम भी उठा सकता है।

(2) कि बांध क्षेत्र में केन्दªीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय अन्य मंत्रालयों के सहयोग से, पहाड़ी परिस्थितियों के अनुसार उन्नत कृषि व फल कृषि आदि जैसी स्थायी विकास की नई परियोजनायंे शुरु करके स्थानीय लोगो के रोजगार के स्थायी व्यवस्था करें। आवश्यक प्रशिक्षण की व्यवस्था करें।

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व सदस्य सचिव श्री जी. डी. अग्रवाल भी दुबारा भागीरथी को गंगोत्री से उत्तरकाशी तक प्राकृतिक रुप में बहने देने कि मांग पर आमरण अनशन पर बैठे है।

आपसे अपेक्षा है कि आप इस पर तुरंत कदम उठाये व हमें सूचित करें।

अपेक्षा में

जांच दल के सदस्य


श्री विमल भाई श्री सत्य सिंह तडि़याल सुश्री पुष्पा चैहान श्री राजविन्दर व श्री प्रवेन्द्र सिंह
(माटू जनसंगठन) (गंगा स्वच्छता अभियान) (उत्तराखण्ड महिला मंच) पर्यावरण कार्यकर्ता, बारसूगांव निवासी
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बांध-काम चालू?

{लोहारीनाग-पाला जल विद्युत परियोजना (600 मेवा) की स्वतंत्र जांच रिपोर्ट, 8 फरवरी 2009 }
परियोजना स्थलः-भागीरथी नदी, भटवाड़ी ब्लाॅक, जिला उत्तरकाशी, उत्तराखंड, भारत

गंगा की मुख्य सहायक नदी, भागीरथी नदी पर गंगोत्री से 50 कि.मी. नीचे नेशनल थर्मल पाॅवर कारपोरेशन (एन.टी.पी.सी.) द्वारा 600 मेगावाट की लोहारीनाग-पाला सुरंग जल विद्युत परियोजना बनाई जा रही है। इसमें बैराज लोहारीनाग गांव में और विद्युतघर पाला गांव भटवाड़ी ब्लाॅक, जिला उत्तरकाशी में स्थित है। केन्दªीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने, ‘‘पर्यावरण प्रभाव आंकलन 1994’’ के आधार पर 8 फरवरी 2005 को पर्यावरण मंजूरी दी है। जिसके मानकों को ताक पर रख कर बांध निर्माण चालू है। इस परियोजना के निमार्ण की पर्यावरण मंजूरी के अनुसार पूंजीगत लागत 2262.40 करोड़ रु. है।
इसी लोहारीनाग-पाला जल विद्युत परियोजना के पर्यावरणीय व सामाजिक दायित्वों की अवहेलना के संदर्भ में पांच सदस्यों के एक स्वतंत्र जांच दल ने (पर्यावरण स्वीकृति के अनुसार) में सरकारी कागजातों, विभिन्न समाचार पत्रों कि रिपोर्टांे, बांध प्रभावित गांवांे के भ्रमण के दौरान प्रभावितों से मिलकर व एन.टी.पी.सी. के अधिकारियों से भटवाड़ी, स्थित परियोजना कार्यालय में 23 दिसम्बर 2008 को मिलने के बाद यह रिपोर्ट तैयार की गई है। स्वतंत्र जांच दल के पास रिर्पोट से संबधित प्रैस कटिंग, कानूनी कागजात, फोटो, प्रभावितों के पत्र आदि मौजूद है।

माटू जन संगठन ने सितम्बर 2004 से लोहारीनाग-पाला जल विद्युत परियोजना के बारे में स्थानीय स्तर पर, राज्य सरकार व केन्द्र के स्तर पर संबधित मंत्रालयों आादि को लगातार यह जानकारी दी थी व न्यायिक मंच पर भी यह मुद्दा उठाया था कि यह बांध पर्यावरण, जनहक व नदीहक का विनाशक हैै। क्षेत्रीय विकास की बात तो दूर, राज्य के सही आर्थिक विकास व समृद्धि के लिए भी बांध परियोजना का दावा सही नही है। यह रिपोर्ट बताती है कि माटू जनसंगठन ने जो प्रश्न पर्यावरण स्वीकृति के समय उठाये थे वे पर्यावरण मंजूरी के चार वर्षांे के बाद सही सिद्ध हुये है। बांध का विरोध विभिन्न स्तरो पर जारी है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व सदस्य सचिव श्री जी. डी. अग्रवाल के 13 जून 2008 भागीरथी को गंगोत्री से उत्तरकाशी तक प्राकृतिक रुप में बहने देने कि मांग पर आमरण अनशन किया। बांध के नीचे की धारा में कितना पानी रहे इस विषय पर केन्द्रीय ऊर्जा मंत्रालय ने एक समिति बनाई। समिति से असहमत श्री जी. डी. अग्रवाल ने 14 जनवरी से फिर आमरण अनशन शुरु किया है। देश भर से उन्हे समर्थन मिला है।

किन्तु फिर भी बांघ का काम जारी है। क्यों ?

जांच दल ने क्या पाया.......................................

जानकारी/कागजातों को जानबूझ कर छुपानाः-

परियोजना की पर्यावरणीय जनसुनवाई 30-07-2004 को ‘‘पर्यावरण प्रभाव आंकलन 1994 अधिसूचना’’ के तहत हुई थी। जनसुनवाई में प्रभावितों को न तो ये पता था कि पर्यावरण प्रभाव आंकलन रिपोर्ट (इआईए) व पर्यावरण प्रबंध योजना (इएमपी) जैसे कोई कागजात होते हैं जिन पर जनसुनवाई की जाती है। न ही इस तरह के कागजात लोगांे को उपलब्ध कराये गये। जनसुनवाई के पैनल में जो जन-प्रतिनिधि बैठे थे उन्होंने भी बाद में स्वीकार किया कि इन कागजातों कि उन्हें कोई जानकारी नहीं थी। यानि जिस पैनल ने जनसुनवाई की थी उसे भी नहीं मालूम था कि क्या प्रभाव पड़ने वाले हैं?
माटू जनसंगठन के द्वारा जब स्थानीय लोगों को इस बारे में मालूम पड़ा तो उन्हांेने सितंबर 2004 में इन कागजातों को हिंदी में उपलब्ध कराने की मांग की। प्रभावितों की मंाग थी कि पर्यावरण प्रभाव आंकलन रिपोर्ट व पर्यावरण प्रबंध योजना और परियोजना संबंधी सभी कागजात हिन्दी में ग्राम स्तर पर दिये जायें। दूसरे इन सभी कागज़ातों को सामाजिक संस्थाओं द्वारा गांव स्तर पर सरल भाषा में समझाया जाये। तीसरे इन सब के कम से कम एक महीने बाद ही गांव स्तर पर नोटिस देकर जनसुनवाई का आयोजन किया जाये। किन्तु ऐसा नहीं किया गया। आज तक भी यह नहीं हुआ है।
परियोजना का जन-सूचना केन्द्र भटवाड़ी स्थित एन.टी.पी.सी. के मुख्यालय में ही है। जहंा से एक आम आदमी के लिए आम सूचना लेना मुश्किल काम है। बद्रीसिंह, ग्राम प्रधान तिहार व रघुबीर सिंह राणा, ग्राम प्रधान कुज्जन के अनुसार जन-सूचना केन्द्र नहीं बनाये गये हैं।
लोहारीनाग-पाला जल विद्युत परियोजना के मुख्य परियोजना प्रबंधक के अनुसार गांव प्रधान के कार्यालय में वे सूचना देते हैं। किन्तु गांवों में उनके किसी कागजात को रखने के लिए अलमारी या कोई व्यक्ति विशेष सूचना देने के लिए नहीं हैं। कोई भी सूचना पत्र विभिन्न कंपनी में काम कर रहे लोगों के द्वारा गांवों में भेजा जाता हैं। अन्य जानकारी भी ऐसे ही भेजते हैं। जांच दल को किसी गांव में भी जन-सूचना केन्द्र देखने को नहीं मिला। प्रधानों को भी इस बारे में नही पता था।
परियोजना प्रबंधक के अनुसार केन्द्रीय सरकार से यदि कोई अधिकारी या उनके काॅर्पोरेट आॅफिस से जो भी अधिकारी परियोजना क्षेत्र में आते हैं उन्हें वे कार्य करने की सुविधाएं आदि देते हैं। इतनी ही जिम्मदारी वे मानते हैं। उनका नौेएडा, उत्तर प्रदेश स्थित काॅर्पोरेट आॅफिस ही विभिन्न आवश्यक रिपोर्टें बनाकर मंत्रालयों/कार्यालयों आदि को भेजता है। जिसकी जानकारी उनके पास नहीं है। रिर्पोटें काॅर्पोरेट आॅफिस से ही उपलब्ध हो पायेंगी। जांच दल ने पाया कि परियोजना कार्यालय के अधिकारियों के पास पर्यावरण स्वीकृति जैसा कागजात भी तुरंत संदर्भ के लिए उपलब्ध नहीं था।
एन.टी.पी.सी. प्रभावितों को सूचनायें देना महत्वपूर्ण नहीं मानती व अपनी कोई जिम्मदारी तक नहीं मानती। एन.टी.पी.सी के अधिकारियों से मिलने पर उनका रवैया भी ऐसा ही देखने को मिला। उनका कहना था कि जब लोगांे को पता ही नहीं कि उन्हंे क्या जानकारी चाहिये तो उन्हें जानकारी देने कि जरुरत भी क्या है?

एन.टी.पी.सी. की ‘वेबसाइट’ पर
लोहारीनाग-पाला जल-विद्युत परियोजना के बारे में कोई नही जानकारी है।

पर्यावरण स्वीकृति का उल्लंघनः-बांध की पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट (इआईए) व पर्यावरण प्रबंध योजना (इएमपी) में गहरी खामियंा हंै। और जो कमजोर शर्तें पर्यावरण स्वीकृति भस
पत्र 8 फरवरी 2005 में डाली र्गइं थीं, उनका पालन करना तो दूर रहा, कहीं-कहीं पर तो उनकी ओर ध्यान तक नहीं दिया गया है। शर्तों को और कमजोर किया गया है।

पर्यावरण स्वीकृति में ही धोखा:-
रिपोर्ट मेें नीचे की संख्यायें पर्यावरण स्वीकृति की शर्त संख्यायें है।

भाग अः विषेश षर्तें

(2) ग्लेशियर से प्राप्त होने वाले पानी की लम्बे समय तक प्राप्ति पर अघ्ययन होना चाहिए। चूंकि काफी रिपोर्टें ये बताती हैं की ग्लेशियर कम हो रहे हैं। एन.टी.पी.सी. इस पर होने वाले खर्च को वहन करे। टी.ओ.आर. को केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की सलाह के साथ किया जाए। -पर्यावरण स्वीकृति की शर्त

पर्यावरण स्वीकृति में से केन्द्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय ने बाद में इस महत्वपूर्ण शर्त को विशेष पत्र द्वारा हटा दिया। पानी की उपलब्धता पर ही प्रश्न चिन्ह है तो बांध का जीवन क्या होगा?

चालाकीपूर्ण पुनर्वास नीति:-

(3) पुनर्वास/पुर्नस्थापना की योजना, परियोजना प्रभावितों के लिए राज्य सरकार के साथ मिलकर बनाई जाये और इस पत्र के जारी होने की तिथि से तीन महिने में दाखिल होनी चाहिये। -पर्यावरण स्वीकृति की शर्त

पुनर्वास/पुर्नस्थापना की योजना, परियोजना प्रभावितों के साथ मिलकर नही बनाई गई। ना ही तीन महीने में दाख्लि की गई। प्रभावितों को इसकी खबर तक नहीं थी। आज तक एन.टी.पी.सी. ने प्रभावितों को पुनर्वास/पुर्नस्थापना की योजना उपलब्ध तक नहीं कराई है।
एन.टी.पी.सी. की पुनर्वास नीति में साफ लिखा है कि ‘रोजगार पुनर्वास का विकल्प नहीं है।’ पुनर्वास नीति में जमीन के बदले जमीन देने के लिए मात्र कोशिश की बात लिखी है। जमीने दी भी नहीं गई हैं। टाउनशिप में दुकान, अथवा छोटे-मोटे ठेके प्रदान करने पर विचार किया जा सकने की बात है। पूरी नीति में एन.टी.पी.सी. ने अपने लिए कोई बाध्यता नहीं रखी है। संभव हुआ तो, विचार किया जा सकता है, विचार किया जायेगा या व्यक्तियों से अलग से विचार विमर्श किया जायेगा। सिर्फ इसी तरह के शब्दों से हर वाक्य का अंत किया गया है। स्थायी रोजगार की गारंटी नहीं है। जब तक परियोजना बनती है तब तक भी रोजगार गारंटी नहीं है। स्थानीय लोगों के पास मात्र एन.टी.पी.सी. में कार्यरत ठेकेदारों के पास ही काम की गुंजाईश बची है। जिसके लिए भी एन.टी.पी.सी. ने कोई बाध्यता अपने लिए नहीं रखती है। यानि वहां पर भी रोजगार प्रभावितों को अपने बल पर ही लेना होगा।
11-6-2006 को एन.टी.पी.सी. लोहारीनाग-पाला परियोजना में 73 कर्मचारी-अधिकारी कार्यरत थे। उसमें न तो एक भी प्रभावित था और न ही उत्तराखण्ड से था। यह स्थिति कोई खास नहीं बदली हैै। प्रभावित क्षेत्रों में तकनीकी संस्थान खोल दिये जाते तो स्थानीय युवा कुछ काबिल बन पाते। किन्तु ऐसी भी कोई कोशिश नहीं हुई है। नतीजा यह है कि प्रभावितों कोे एन.टी.पी.सी. में निचले दर्जे के रोजगार ही मिल पाये हैैं।
एक बड़ा धोखा प्रभावितों के साथ ‘‘एक लाख रू. प्रति नाली जमीन के मुआवजे के रुप में हुआ। प्रभावितांे को मालूम नहीं पड़ा कि यह रकम कैसे तय की गई है। उनकी मांग थी एक लाख रू. प्रति नाली मूल्य। 9-03-06 को तत्कालीन ऊर्जा सचिव श्री रविशंकर व एन.टी.पी.सी. के बीच इकरार हुआ कि भूमि अध्याप्ति अधिकारी द्वारा निर्धारित मूल्य, सोलेशियम, ब्याज आदि मिलाकर जितना रू. होगा उतना व शेष रू. (एक लाख में) एक मुश्त रकम के रूप में दे दिये जायें। इस एक मुश्त रकम में पुनर्वास-पुनस्र्थापना, जमीन पर कब्जा आदि देने की राशि आदि सब कुछ शामिल होगा। इकरार में साफ लिखा है कि यह पैसा लेते समय प्रभावित व्यक्ति एन.टी.पी.सी. से व्यक्तिगत समझौता करेगा जिसकी गवाह राज्य सरकार होगी। पैसा लेने पर कागजों पर हस्ताक्षर करने के बाद यह पुनर्वास सम्र्पूणतः माना गया। इसके बाद एवार्ड के समय कोई आपत्ति न उठाने, किसी तरह के कानूनी दावे में ना जाने की बाध्यता प्रभावितों को माननी पड़ी। पुनर्वास सभी तरह से पूरा माना गया। यानि फिर विस्थापित/प्रभावित को कानूनी हक नहीं होगा कि वो पुनर्वास के लिए कोई अन्य मांग रखें। इस इकरार-नामे में एन.टी.पी.सी. ने राज्य सरकार से निवेदन किया कि वो परियोजना के क्षेत्र जिलाधीश को आवश्यक निर्देश दें। ग्राम विकास सलाहकार समिति की बैठक में प्रभावितों के साथ भी यह तय कर लिया जाये। ग्राम विकास सलाहकार समिति की बैठक 8 मई, 2006 उत्तरकाशी में हुई। जिसमें यह सब मंजूर कर दिया गया। प्रभावितों का कहना है कि उन्हें इस बारे नहीं पता था ना ही उन्हें अपनी बात खुलकर रखने का मौका मिल पाया। तो सब कुछ किसी तरह औपचारिकता निभाते हुये कर दिया गया। जिनकी जमीन परियोजनाओं में नहीं गई, किन्तु गोचर, जल स्रोत, रास्ते, आजीविका आदि प्रभावित हुई। जमीन के मूल्य में भी धांधली हुई। सर्किल रेट को भी भूमि अध्याप्ति प्रक्रिया में नजर अंदाज किया गया।

जनसुनवाई में किये गये वादों का उलंघन:-

(5) वे 15 षर्ते जिनका जन सुनवाई की कार्यवाही में जिक्र किया गया है उन्हें पूर्ण रुप में माना जाये।
-पर्यावरण स्वीकृति की शर्त

जनसुनवाई के समय चूंकि लोगों को परियोजना के प्रभावों की जानकारी नहीं थी इसलिए लोग परियोजना प्रभावों के संदर्भ में मांग नहीं उठा सके। चालाकीपूर्ण तरीके से, साधारण रुप में कुछ शर्ते रख दी र्गइं। ज्यादातर शर्तों की मात्र खानापूर्ति नजर आती है। {30-07-04 की पर्यावरणीय जनसुनवाई रिपोर्ट में लिखी र्गइं पन्द्रह शर्ते संलग्नक-3 में दी गई है}

उलंघन कैसे-कैसे?
अभी भी सभी प्रभावितों को ज़मीन का पूरा मुआवजा नहीं मिल पाया है। अभी भी 10/12 परिवार को मुआवजा नहीं मिला। प्रभावितों का आरोप है कि सर्वे सही नहीं हुए और ज़मीन ज्यादा प्रभावित हुई हैं।
भरत सिंह, ग्राम तिहार बांध प्रभावित का कहना है कि क्षेत्र में बन रहे बांध से हमें कोई फायदा नहीं हुआ बल्कि नुकसान उठाना पड़ा है। कुछ जमीन अधिग्रहित कर रखी है लेकिन उसका मुआवजा नहीं मिला। परियोजना की जो जनसुनवाई हुई उसमें हमको शामिल नहीं किया गया।
क्यारख गांव भू-स्खलन वाली जगह पर है। क्यारख के ग्रामीणों ने बताया कि गांव के पास अब कृषि योग्य जमीन शेष नहीं है। भूस्खलन होने कि दशा में हमारे पास दुबारा बसने के लिए भूमि नही बचेगी। एनटीपीसी आवासीय कालोनी निर्मित करना चाह रही है। यहंा लोगों का विरोध है। एनटीपीसी की टाउनशिप के लिए भी भूमि अधिग्रहण कानून की आपत्तकालीन धारा 17 अ का इस्तेमाल किया जा रहा है। जिसके तहत परियोजना प्रायोक्ता 15 दिन में जमीन पर कब्जा कर सकता है। एनटीपीसी अपनी आवासीय कालोनी क्यारख और मातली गांव में बना रही है।
वाहनों की आवाजाही के कारण उड़ने वाली धूल पर पानी नहीं डाला जाता। स्थानीय लोगों ने जब आवाज उठाई तो कम्पनी ने उनकी आवाज को पुलिस के बल से रोक दिया।
संगलाई गंाव के नीचे के मुर्दाघाट का रास्ता मलबा डालने से बंद हो गया है। प्रभावित क्षेत्र में समस्याओं का व्यवहारिक निदान नहीं हो रहा है।
प्रतिबंधित विस्फोटको के अवशेष गंगा में रहने वाले जलीय जीव-जंतुओं के जीवन को प्रभावित कर सकता है।
परियोजना के लिए किये गये विस्फोटों से भू-स्खलन हुये जिससे मवेशियों के चराने लिए चरागाह की जमीन नहीं बची है। चारागाह की सबसे ज्यादा जमीन तिहार गांव में गई है। गंावों का पशुपालन चैपट हुआ है।
प्रभावित गांवो में सड़क बनाने का वादा पूरा नहीं किया जा रहा है।
थिरांग जैसे गांवों के देवदार, बांज, बुरांश के पेड़ों की क्षति होने के कारण मीठे पानी के स्रोत समाप्त हुए हैं।
सुक्की, पुराली और जसपुर गांव के लोगों की अजीविका पर भी बुरा असर पड़ा, उनका प्रमुख साधन कृषि चैपट हुई है।
स्थानीय महिलायें घास, लकड़ी और खेती में बहुत परेशानी महसूस कर रही हैं। बांध, सुरंग और पावर हाऊस ने स्थानीय महिलाओं के चारागाह, वन एवं लकडि़यां छीन लिए हैं। संगलाई कि गिलासी देवी का कहना है कि हमें घास लकडि़यों के लिए पहले से चार-पांच किलोमीटर दूरा जाना पड़ रहा है। गांव के नजदीक के वनों में सैकड़ों हेक्टेयर वन बरबाद हो गये हैं। कभी भी पत्थर-मिट्टी का रोला उन्हें और उनके मवेसियों को खतरा बन सकता है। कुंजन गांव की ज्यादातर महिलाओं के माथे पर चिंता की लकीरें साफ दिखायी दे रही है।
स्थानीय महिलाओं का सुख-चैन व सुरक्षा इस परियोजना से बहुत ज्यादा प्रभावित हो रही है।
भागीरथी नदी का स्वरुप बिगड़ा:- सुरंग व अन्य निर्माण से निकलने वाले मलबे को सही स्थानों पर डंप ना करने, सुरंग खुदने के दौरान उपयोग होने वाले रासायनिक पदार्थ व अन्य अजैविक कूड़ा भागीरथी नदी में फेंकने से इसका स्वरूप बिगड़ा जा रहा है। निर्माण के दौरान क्षमता से अधिक ब्लास्ट करने तथा रासायनिक पदार्थों के उपयोग से भी भागीरथी नदी प्रदूषित व खतरे में हैं। सुक्की, डबराणी, गंगनानी, सुनगर, थिरांग से लेकर भटवाड़ी तक जल विद्युत परियोजना की कंपनियों ने गंगा का स्वरूप अपराधिक रुप में बिगाड़ा है। कूड़ेदान के रूप में भागीरथी नदी का उपयोग कर रही एन.टी.पी.सी. की ठेकेदार कंपनियों पर सरकारी तंत्र का कतई भी नियंत्रण नहीं है।
एन.टी.पी.सी. द्वारा स्थानीय आस्थाओं पर ध्यान नही दिया गया। जनवरी 2007 में स्वामी अनिल स्वरूप 9 दिन तक भूख हड़ताल पर बैठना पड़ा।
भागीरथी नदी जो कि गंगा की मुख्य धारा है वह देश भर के लोगो के लिए बड़ी आस्था की प्रतीक है। बांध के खिलाफ
लगातार आंदोलन चल रहा है।

15 षर्तों में से संख्या 5ः- परियोजना के सभी चरणों में क्षेत्रीय लोगों को प्राथमिकता पर रोजगार के अवसर दिये जाएं।
उत्तराखंड राज्य सरकार की परियोेजनाओं में स्थानीय लोगों को 70 प्रतिशत रोज़गार देने की नीति का भी पालन इस परियोजना में नहीं किया जा रहा है। किसी तरह के विशेष प्रशिक्षण की भी कोई व्यवस्था नहीं है। जिस कारण रोज़गार के अवसर स्थानीय लोगों के लिए बहुत कम बचते हैं। गांव के जो युवा को तत्कालीन रूप से मजदूरी करते पाये गये हैं, वे भी असंभव में अनिश्चितता की स्थिति में हैं।

15 षर्तों में से संख्या 7ः- निर्माण कार्य में विस्फोटक सामग्री का प्रयोग अपरिहार्य स्थिति में ही न्यूनतम् मात्रा में किया जाय।
विस्फोटकों का गलत इस्तेमाल:- परियोजना के आस-पास की भूगर्भीय संरचना बुरी तरह प्रभावित हुई है। कुज्जन, तिहार, थिरांग, भंगेली, सुनगर, सालंग, हूरी आदि गांव में मकानों में दरारें आईं हैं। चारागाह की जमीनें खराब हुई हैं। जिससे लोगों की खाद्य सुरक्षा पर सीधा असर पड़ा है।
विस्फोटकों के इस्तेमाल का कोई निश्चित मापक नहीं है। परियोजना क्षेत्र के कुज्जन, थिरांग, हूरी गांव बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। थिरांग में लगातार बम धमाकों से जमीन पूरी तरह से कमज़ोर हो चुकी है। आईआईटी रुड़की व भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण संस्थानों की रिपोर्ट भी यही कहती है कि यहां पहाड़ी अभी निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रही है। ऐसे में ये चोटियंा बेहद संवदेनशील हैं। इन पहाड़ों पर हल्की सी हलचल भी खतरनाक साबित हो सकती है। वैज्ञानिकों की इस बात की सत्यता का प्रमाण 1991 के भूकंप के बाद से अब तक दकरते पर्वत हैं।
2008 में तत्कालीन जिलाधिकारी आर. मीनाक्षी सुंदरम समेत अन्य अधिकारियों को प्रभावितों ने थिरांग के घरों के भीतर बैठाया था। इस दौरान धमाकों से जब पूरा घर हिला तो डीएम भी इससे चैंक पड़े। राज्य के स्वास्थय मंत्री डा. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ के एक निर्देश पर डीएम ने लोहारीनाग-पाला का कार्य रुकवा दिया था। भटवाड़ी के आगे सुरंग व अन्य निर्माण के दौरान हुए धमाकों का असर था कि 18 किमी. तक एक दर्जन से अधिक जगहों पर सड़क बीहड़ जंगल जैसी बनी।
अनेक वादों के बावजूद अभी तक लोगों की समस्याओं का निराकरण नहीं हुआ है। किसी भी गांव में दरारों का कोई मुआवजा नहीं दिया गया है।
11 अगस्त 2008 में लोहारी नाग के पास विस्फोटों से कमजोर हुये लोहारी नाग गांव के निकट काला पहाड़ से होने वाले भूस्खलन के कारण 13 घंटे राजमार्ग बंद पड़ा रहा।

पूरा क्षेत्र विस्फोटों की वजह से कमज़ोर हुआ है।
आने वाले समय में किसी बड़े भूकंप की वजह से यहां बड़ी तबाही हो सकती है।

नदी में कितना पानी?:-

(6) बांध के नीचे की धारा में कम पानी के मौसम के दौरान में न्यूमतम 3 क्यूसेक पानी रखा जाए।
-पर्यावरण स्वीकृति की षर्त
केन्दªीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 1-4-2005 एक विेशेष पत्र के द्वारा एन.टी.पी.सी. को यह निर्देश दिया कि इस शर्त को न्यूमतम 30 क्यूसेक पानी माना जाये। एनटीपीसी के अधिकारियों ने जांच दल को बताया कि लोहारीनाग से भागीरथी की मूल धारा में हर समय 30 क्यूसेक पानी अविरल बहता रहेगा, जिससे लोगों की धार्मिक आस्था को ठेस नहीं लगेगी।
किन्तु ठीक ऐसा ही समझौता मनेरी भाली-प्रथम चरण के समय भी उत्तरकाशी के साधु-संतों से हुआ था कि मनेरी से गंगा में लगातार अविरल धारा नहीं दिखाई दी। किन्तु ऐसा कभी नही हुआ।
किसी भी बांध के नीचे कितना पानी रहे इस पर अभी तक केन्द्र सरकार कि कोई नीति नही है। केवल हिमाचल सरकार ने सितम्बर 2005 में एक अधिसूचना के जरिये बन चुके, बन रहे व प्रस्तावित बांधो के नीचे बहते दिखते पानी का 15 प्रतिशत छोड़ने का आदेश जारी किया है। पर मूल प्रश्न यह है कि बांध के नीचे की धारा में कितना पानी बह रहा है या नही बह रहा हैै। उसकी निगरानी कौन करेगा? अभी तक के तो यही अनुभव है कि कानून चाहे जो हो पर नदी में पानी विद्युत उत्पादन को लक्ष्य रख कर ही छोड़ा जाता है। कम पानी के महीनो में प्रायः दिन भर पानी जलाशय में रोककर विद्युत उत्पादन के लिए रात को ही पानी छोड़ते है। जब तक कोई स्थानीय लोगो को जोड़ते हुये कोई निगरानी समिति ना बने तब तक ये कानून भी कारगर नही है।

भाग-2 साधारण शर्तें

श्रमिकों के अधिकारों का उलंघन:-

(1) परियोजना के निमार्ण मे लगे श्रमिकों के लिए पूरी मात्रा मे ईंधन की व्यवस्था परियोजना लागत से होनी चाहिए ताकि पेड़ों को उजड़ने से रोका जा सके।
(2)र् इंधन डिपो निर्माण स्थल के निकर्ट इंधन (कैरोसीन/लकडी़/गैस) देने के लिए खोले जा सकते हैं। श्रर्मिकों को औशधि सुविधा व मनोरंजन सुविधाऐं भी उपलब्ध होनी चाहिए।
(4) सभी श्रमिक जो परियोेजना के निर्माण मे लगंेगे उनको काम का परमिट देने से पहले उनकी गहन जंाच स्वास्थ्य अधिकारी द्वारा होनी चाहिए और व्यवस्थित उपचार भी होना चाहिए। -पर्यावरण स्वीकृति की षर्ते

श्रमिकों का कोई गहन स्वास्थ्य परीक्षण या टीकाकरण नहीं हुआ है। कम्पनी द्वारा मजदूरों के लिए कलोनी ऐसी जगह पर बनायी गई जहां पर भू-स्खलन की संभावना थी। अतः ऐसा ही हुआ और ऊपर से टूटने पर कालोनी ध्वस्त हो गई।
एन.टी.पी.सी. अपनी ठेकेदार कंपनियों के श्रमिकों के वेतन, सुरक्षा, मापदण्डों, आदि की जिम्मेदारी/निगरानी भी नहीं लेती हैं। मनोरंजन सुविधाएं कहीं भी नहीं हैं। निर्माण के दौरान अब तक श्रमिकों की कई हड़तालें हो चुकी हैं। श्रमिकों को नियमित नियुक्ति, भविष्य निधि के नियमों में भी धांधली हैं। चिकित्सा सुविधाएं भी नहीं दी जाती। पुलिस के माध्यम से काम तो चालू होता है किन्तु समस्याओं का समाधान नहीं।
श्रमिकांे के रहने की व्यवस्थाएं पूरी न होने के कारण विभिन्न गांवों में किराए पर रहते हैं। उनके ईंधन, पानी व मल-निस्तारण आदि का बोझ स्थानीय पर्यावरण पर पड़ रहा है। जो भविष्य के लिए भी बहुत बुरा है।
मजदूरों ने बताया कि उन्हें पूरी मजदूरी नहीं मिलती है। प्रायः देखने में आता है कि श्रमिकों के लिए सुरक्षा प्रबंध नहीं होते हैं। 2008 में सुरंग निमार्ण के दौरान एक मजदूर की मृत्यु भी हुई है। नेपाल, झारखंड, बिहार आदि देश-राज्यों के पिछड़े इलाकों से आये ये मजदूर ज्यादातर आदिवासी हैं।

ग्राम विकास सलाहकार समिति:-

(3) पुर्नवास एवम् पुर्नस्थापना के लिए निगरानी समिति बनाई जाए। जिसमेें परियोजना प्रभावितों में से अनुसूचित/जनजाति वर्ग व किसी महिला लाभार्थी को भी रखा जाए। -पर्यावरण स्वीकृति की शर्त

पुनर्वास एवम् पुनस्र्थापना की निगरानी समिति ग्राम विकास सलाहकार समिति बनाई गई है। एन.टी.पी.सी. के अनुसार वो समिति कि बैठक कि सूचना कंपनी में काम कर रहे लोगों के द्वारा गांवों में भेज देते हैं। स्थिति खराब है। समिति कि बैठक में प्रभावितों द्वारा उठाये गये मुद्दो को कार्यवाही में नही लिया जाता। एन.टी.पी.सी. के ऐजंेडे पर ही चर्चा करके निर्णय लोगों पर थोपे गये हंै।
अब समुदाय विकास योजना की बैठक को ही ग्राम विकास सलाहकार समिति की बैठक मान लिया गया है। बैठकें लगातार नहीं होतीं, बैठक की कोई नियमावाली या कोई निश्चित अवधि भी नहीं है। माटू जनसंगठन के बार-बार मुद्दा उठाने पर ये बैठकें हो पाती हैं। एन.टी.पी.सी. इस संदर्भ में भी अपनी जिम्मेदारी से हमेशा बची। शुरुआत में ज़मीन का पैसा देने के समय लगातार बैठकंे जरूर की गयीं। चूंकि जमीन लेनी थी। किन्तु उसके बाद जो भी समस्या आयीं हैं लोगों को उसके लिए लगातार धरना-प्रदर्शन करना पड़ा है। अप्रैल 2008 में कुज्जन गांव के लोगों ने बांध का काम इसलिए बंद रखा क्योंकि गांव के पानी के स्रोत सूख रहे थे, मकानों में दरारें, चारागाह की जमीन का जाना, रास्तों का टूटना आदि हो रहा था। लोगों को मुकदमों का भय दिखाकर काम चालू कराया गया। थिरांग में भी धरना चला। भंगेली में फरवरी के पहले सप्ताह में धरना चालू व काम बंद था।



गाद/मलबे का निस्तारणः-
(5) मलबा डालने वाले स्थानों को समतल करने, दूसरे गड्ढेां को भरने व भूमि सौन्दर्यीकरण आदि सहित निर्माण क्षेत्र को पुनः व्यवस्थित किया जाए। पूरे क्षेत्र को व्यवस्थित तरह से उपयुक्त वृक्षारोपण से उपचारित किया जाए।
-पर्यावरण स्वीकृति की शर्त
लोहारीनाग भ्रमण के दौरान हमने देखा कि पाला से लोहारी गांव के बीच स्थान-स्थान पर गंगा के किनारे मिट्टी और पत्थरों के ढ़ेर लगे हुये थे जिनमें विस्फटकों में इस्तेमाल होने वाली तारों के असंख्य टुकड़े पड़े हुए है। लोगों ने बताया कि ये सब पावर हाऊस और सुरंग निर्माण से निकली हुयी मिट्टी-पत्थरों के ढ़ेर हैं। शाम के समय सारा मलबा सीधे भागीरथी में फेंका जा रहा है। ये कार्य रात्रि में होता है। जिसका नतीजा हुआ है कि नीचे डाउन स्ट्रीम में मनेरी भाली चरण एक व दो के जलाशयों में गाद बढ़ने की वजह से उनका उत्पादन कार्य ठप हुआ। जिस कारण दिसम्बर 2008 में उत्तरांचल जल विद्य़ुत निगम ने सौ करोड़ का दावा भी एन.टी.पी.सी. पर किया है। ऐसा लगातार हो रहा है। आगे यह सारी गाद टिहरी बांध की झील में जा रही है।
संबंधित निर्माण कंपनियों द्वारा कई डंपिंग जोन तो गंगा के किनारे पर ऐसी जगह पर बनाए गये हैं जहां से आने वाली बरसात में भूस्खलन द्वारा सीधे ही गंगा में चले जाने का खतरा है।
अक्टूबर 2008 में एन.टी.पी.सी. ने लगभग एक किलोमीटर सड़क पर निर्माण सामग्री डालकर अवैध कब्जा किया है। जिससे रास्ता संकरा हो गया। यात्रियों की आने जाने में बहुत समस्या हुई। सीमा सड़क संगठन (बी.आर.ओ.) ने 18 अप्रैल 2008 को पटेल कंपनी के खिलाफ मुकदमा दायर किया।
लोगों ने कहा कि गंगा के तट पहले तो शहरों में ही गंदगी से अटे रहते थे। अब तो डैम के आस-पास भी शौच आदि गंदगी दिखने लगी है।

विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्देंः-

राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलीय प्राधिकरण के आदेश का पालन नहींः-

माटू जनसंगठन ने 2005 में राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलीय प्राधिकरण में पर्यावरण स्वीकृति को चुनौती दी थी। प्राधिकरण ने अपने 7-2-2007 को दिये आदेश में कहा था किः-

प्राधिकरण निगरानी समिति के पुनर्गठन की आवश्यकता पर सहमत है ताकि पर्यावरणीय मंजूरी देते समय तय की गई विभिन्न सामान्य एवं विशिष्ट शर्तों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जा सके। इसके अनुसार, प्राधिकरण ने निर्देश दिये कि:-
(1) परियोजनाकारों के बजाय प्रतिवादी संख्या 1 {पर्यावरण एवं वन मंत्रालय} के नियंत्रण के अंतर्गत एक बहुपक्षीय निगरानी समिति का गठन किया जाय, जैसा कि परियोजना के अमलीकरण के लिए पर्यावरणीय मंजूरी प्रपत्र के आम शर्तों के पैरा ;अपपद्ध में दिया है एवं
(2) समिति में पारिस्थितिकी विशेषज्ञ, पर्यावरण वैज्ञानिक, संरक्षणवादियों एवं अनुभवी प्रशासकों को शामिल किया जाय ताकि परियोजना से पर्याप्त पर्यावरणीय सुरक्षा सहित टिकाऊ विकास हो सके।

सूचना के अधिकार में प्राप्त जानकारी के अनुसार इसका पालन नहीं हुआ है।

मानवाधिकारों का उलंघन:-

बंाध क्षेत्र में केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के जो सिपाही जांच दल को मिले। उनका कहना था कि जब गंाववाले मुआवजे के लिए लड़ते हैं तो उनके बीच बचाव के लिए हम यहंा हैं। हम काम करने वाली कम्पनियों के कार्य को नही रूकने देते हंै। प्रभावितों/श्रमिकों की समस्याओं का निदान न करके सुरक्षा बलांे का भय दिखाया जाता है।
भूमि के बदले रोजगार दिए जाने पर 10/11/08 को सुक्की गांव निवासी रोशन सिंह, नवीन सिंह, अशोक राणा व सुनील राणा कंपनी के अधिकारियों के पास गये तो उन्हें रोजगार देने से इंकार कर दिया। इन युवकों ने अपने अधिकारों की बात जब कंपनी के समक्ष रखी तो कंपनी के अधिकारियों ने केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल बुलाकर युवकों को खदेड़ने को कहा। इस बीच युवकों व बल के बीच बहस हुई। बल के निरीक्षक सुनील दत्त ने थाना मनेरी में बल के साथ मारपीट करने संबंधी रिपोर्ट लिखायी। पुलिस ने 147, 353, 332, 323, 7 सीआरएल अधिनियम में चार युवकों के लिखाफ मुकदमा दर्ज कर गिरफ्तारी की व गिरफ्तार युवकों को न्यायालय में पेश करने के बाद जेल भेज दिया।
ऐसा लगातार हो रहा है। अभी 2006 के मुकदमें 2 लोग हुरी गांव व एक व्यक्ति भुक्की गांव में झेल रहे है। यह एक रणनीति है ताकि लोग आवाज ना उठा सकें।

आज तक क्या हुआः-

अभी तक लोग छले गये हैं भागीरथी घाटी का पर्यावरण बर्बाद हुआ है। आगे का भविष्य भी निश्चित नहीं लगता। बांध परियोजना कि शुरुआत ही कानूनो को ताक पर रखकर, लोगो को जानकारी से दूर रखकर हुई। उत्तराखंड राज्य जो टिहरी बांध परियोजना से हुये विस्थापन व पर्यावरण की बर्बादी को झेल रहा है। किन्तु इन सबसे कोई सबक नही लिया गया।

लोहारीनाग-पाला बांध का उद्घाटन पर्यावरणीय जनसुुनवाई से पहले कर दिया गया था। यानि स्थानीय स्तर पर यह बात प्रचारित कि गई कि बांध तो बनेगा ही। रोजगार के ढेर से वादे, राज्य की आमदनी का महत्वपूर्ण साधन घोषित करने के साथ क्षेत्रीय विकास कि भी जिम्मेदारी इसी बंाध पर डाल दी गई। साथ ही यह भरसक प्रयत्न हुआ कि बांध के दीर्घकालीन/स्थायी दुष्प्रभावों को हर तरह से छुपाया जाये।

अक्तूबर 1991 में आये उत्तरकाशी भूकम्प में सबसे ज्यादा नुकसान जामक, मनेरी, कासर व डिडसारी आदि गांव में हुआ था जो कि मनेरी-भाली चरण एक के निकट थे। वही इतिहास यंहा इस बांध से प्रभावित कुज्जन, सुक्की, डबराणी, गंगनानी, सुनगर, भंगेली, थिरांग आदि गांवो में दोहराने कि आशंका है। चंूकि इन गांवों के मकानों व जमीनों में भी बांध के लिए किये गये विस्फोटों से दरारें आई है।

इस बांध की तुलना हमेशा टिहरी बांध (जो कि 260.5 मीटर ऊंचा व जिसका जलाशय 45 कि0मी0 का वर्गकिलोमीटर है) से करके इस बांध के दुष्प्रभावों को छुपाने की कोशिश की गई है। लोहारीनाग-पाला बांध के पर्यावरण प्रभाव टिहरी बांध की तुलना में नही वरन् मनेरी-भाली चरण एक व स्वंय इसीके संदर्भ में देखे जाने चाहिये थे।

30-7-2004 को हुई पर्यावरणीय जनसुनवाई की रिपोर्ट में जिन 15 शर्तो को सर्वसम्मत लिखा गया वो उत्तराखंड प्रदूषण नियंत्रण व संरक्षण बोर्ड व केन्दªीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की वो रटी रटाई शर्ते थी जो प्रायः हर बांध स्वीकृति में मिल जायेगीं। उसमे क्षेत्रीय पर्यावरण या स्थानीय जनहक के मुद्दों को नही रखा गया। कोशिश यह दिखती है कि शर्ते इतनी आसान रखी जाये व इतनी व्यापकता में रखी जाये कि किसी भी शर्त का उलंघन आसानी से किया जा सके या शर्त से बचने का रास्ता बना रहे। यही तरीका पर्यावरण स्वीकृति में भी अपनाया गया।

पुनर्वास एवम् पुनस्र्थापना की निगरानी के लिए बनी ग्राम विकास सलाहकार समिति का तो हाल और भी बुरा दिखता है। बैठको में लोगो कि कोई सुनवाई नही बस तय (एन.टी.पी.सी. के) ऐजेंडे पर बैठक होती है। प्रभावितों को बात रखने के मौका नही और यदि मौका मिला भी तो वह कार्यवाही में शामिल नही होता। भविष्य में कोई परेशानी ना हो ये देखकर ही कार्यवाही रिपोर्ट बनती है। समस्याआंे का निराकरण नही।

पर्यावरण स्वीकृति मिलने के बाद पिछले 4 सालों में मात्र कानूनी प्रकियाओं की खानापूर्ति करके तथाकथित ऊर्जा राज्य के लिए इस बांध परियोजना को आगे धकेला जा रहा है। प्रभावितों/श्रमिकों ने जब भी बांध का काम रोका या धरना दिया तो एन.टी.पी.सी. के साथ प्रशासन की भी यही कोशिश रही है कि बस बांध का काम ना रुके। प्रशासन के सामने भी एन.टी.पी.सी. ने जो समझौते किये उन्हे पूरा करने की मंशा नही होती। लोगो को फिर-फिर धरना-प्रदर्शन-अनशन करने पड़ते है। एन.टी.पी.सी. ने अपने पुराने तौर तरीके जिन्हें वो सिंगरौली ताप-विद्युत आदि क्षेत्रों में अपना चुकि है उन्हे यंहा भी अपना रही है। लोगो को भय में रखों ताकि वो आवाज ना उठा सके। बांध का काम चालू रहे प्रभावितों को यदि तकलीफ है तो वे अर्जी के फिर एन.टी.पी.सी. अपनी मर्जी से उस पर कार्यवाही करेगी।

परियोजना के लिये लागू एन.टी.पी.सी. की पुनर्वास एवम् पुनस्र्थापना नीति के निमार्ण में लोगो की कभी कोई भूमिका नही रही। नीति में मानवीय दृष्टिकोण का पूर्णतया अभाव है। बांध के लिए भूमि अधिग्रहण कानून की आपत्तकालीन धारा 17 अ का इस्तेमाल किया गया। जिसके तहत परियोजना प्रायोक्ता 15 दिन में जमीन पर कब्जा कर सकता है। यानि जमीने छीनी गई है। जन सुनवाई में समाजिक आर्थिक अध्ययन की रिपोर्ट नहीं रखी गई। यानि बिना इस महत्वपूर्ण अध्ययन किये हुअे पर्यावरण स्वीकृति दी गई।

प्रभावितों को कभी यह बताने कि ईमानदार कोशिश नही हुई कि उन्हें क्या जानना चाहिये। जब प्रभावितों ने मांगे उठाई/बांधकाम रोका या पर्यावरण कार्यकताओं ने प्रश्न उठाये। तो राष्ट्र के विकास में बाधा मानी गई, देश को रोज करोड़ो का नुकसान होता है, बांध ठेकेदारों को नुकसान की भरपाई की जाती है। और प्रभावितों को जेल दी गई।

किन्तु जब लोगो का जीवन बाधित हुआ; खेती चैपट हुई; बांध के विस्फोटो से मकानों-जमीनों-विद्यालयों में दरारे आई; नदी खराब हुई; सामाजिक ताना-बाना बिखरा; सांस्कृतिक दुष्प्रभाव हुये; आस्थाओं पर चोट पहुंची; पूजा स्थल से लेकर मरघट तक खराब हुये; जलीय-स्थलीय पर्यावरण बर्बाद हुआ; चारागाह नष्ट हुये; जीवन असुरक्षित हुआ तो एन.टी.पी.सी. को देश-राज्य के तथाकथित विकास के एवज् सब माफ कर दिया।

क्या ये लोग व पर्यावरण इस देश-राज्य का नही? उत्तराखंड प्रदूषण नियंत्रण व संरक्षण बोर्ड केन्दªीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय और एन.टी.पी.सी. की आपसी मित्रता पूरी तरह समझ में आती है।

इस स्वतंत्र जांच से सिद्ध होता है कि लोहारीनाग-पाला जल विद्युत परियोजना पर्यावरण स्वीकृति का सीधा उलंघन हो रहा है। हमारी मांग हैः-

(1) कि केन्दªीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय बांध की स्वीकृति तुंरत रद्द करे। इसी पर्यावरण स्वीकृति की शर्त संख्या 3 व 7 के अनुसार भी मंत्रालय की यह जिम्मेदारी बनती है।

3. एन.टी.पी.सी. के दारा दाखिल की गई पर्यावरण प्रंबध योजना का परीक्षण कर लिया गया है। केन्दªीय
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने, पर्यावरण प्रभाव आंकलन 1994 के आधार पर पर्यावरण अनुमति दी है।
जिसमेे दी गए षर्तो व नियमों का कड़ाई से पालन करना होगा। -पर्यावरण स्वीकृति की शर्त

7. प्रभावी रुप से सुझाये गये सुरक्षात्मक उपायों को समयबद्व व संतोश जनक तरीके से लागू करने के लिए
पर्यावरण एंव वन मंत्रालय पर्यावरण संरक्षण कानून 1986 के अन्तर्गत यह अधिकार सुरक्षित रखता है की
आवष्यकता होने पर वो अतिरिक्त सुरक्षात्मक उपाय जोड़ सकता है और अनुमति रोकने सहित अन्य कदम
भी उठा सकता है। -पर्यावरण स्वीकृति की शर्त
(2) कि बांध क्षेत्र में केन्दªीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय अन्य मंत्रालयों के सहयोग से, पहाड़ी परिस्थितियों के अनुसार उन्नत कृषि व फल कृषि आदि जैसी स्थायी विकास की नई परियोजनायंे शुरु करके स्थानीय लोगो के रोजगार के स्थायी व्यवस्था करें। आवश्यक प्रशिक्षण की व्यवस्था भी करें।


जांच दल के सदस्य

श्री सत्य सिंह तडि़याल सुश्री पुष्पा चैहान श्री विमल भाई
(गंगा स्वच्छता अभियान) (उत्तराखण्ड महिला मंच) (माटू जनसंगठन)

श्री राजविन्दर व श्री प्रवेन्द्र सिंह
पर्यावरण कार्यकर्ता, बारसूगांव निवासी


संलग्नकः- 1) 2005 में माटू जन-संगठन द्वारा लोहारीनाग-पाला परियोजना की पर्यावरण प्रभाव आंकलन रिपोर्ट (इआईए)
की आलोचनात्मक टिप्पणी के अति संक्षिप्त बिन्दु।

संलग्नकः- 2) पर्यावरण स्वीकृति-पत्र 8 फरवरी 2005।

संलग्नकः- 3) 30-07-04 की पर्यावरणीय जनसुनवाई रिपोर्ट में लिखी र्गइं 15 शर्ते।


जारीकर्ताः--माटू जनसंगठन
पत्र व्यवहार का पता--डी-334/10, गणेश नगर, पाण्डव नगर काॅम्पलेक्स, दिल्ली-110092 फोन-011-22485545
संलग्नकः- 1

2005 में माटू जन-संगठन द्वारा लोहारीनाग-पाला परियोजना की पर्यावरण प्रभाव आंकलन रिपोर्ट
(इआईए) कि ये कमियां बताई गई थी जो आज पूरी तरह सिद्ध हुई हैः-

जनसंख्या का आधार 1991 लिया गया है जबकि उसके बाद जनसंख्या आंकलन दुबारा हो चुका है।
जन सुनवाई में समाजिक आर्थिक अध्ययन की रिपोर्ट नहीं रखी गई। यानि बिना इस महत्वपूर्ण अध्ययन किये हुअे पर्यावरण स्वीकृति दी गई।
परियोजना को कुल कितनी जमीन चाहिए ये स्पष्ट नहीं।
यह कहीं नहीं लिखा है कि कितने प्रतिशत स्थानीय लोगो को नौकरी मिलेगी? उनको कोई ट्रेनिंग देने कि भी कोई योजना नहीं है।
बांध निर्माण से निकलने वाली मिट्टी व विभिन्न तरह के छोटे भूस्खलनों से भी भागीरथी नदी में गाद की मात्रा बढे़गी। इस पर न तो इसका कोई सर्वे है न कोई अध्ययन किया गया है।
भागीरथी नदी पर भैरोंघाटी 1 व 2, लोहारीनाग-पाला, पाला-मनेरी, मनेरी-भाली 1 व 2, टिहरी बांध व कोटेश्वर बांध प्रस्तावित, निर्माणाधीन व कार्यरत हैं। इनका कोई गुणात्मक या अतंरसबंधी अध्ययन नहीं किया गया है।
इआईए इन बांध परियोजनाओं के विकल्पो के बारे में कुछ नहीं कहती जब कि ये किसी भी ई आई ए में ये अध्ययन होना जरूरी होता है।
इआईए परियोजना के पक्ष में ही बात कहती है जिससे मालूम पड़ता है कि ये निष्पक्ष नही है। जोकि होनी चाहिये थी।
इआईए में भागीरथी नदी में लगातार कम से कम कितना पानी होगा इसका कोई जिर्क नहीं है।
इआईए में कहा गया है कि यह क्षेत्र मेें रिचर स्कैल पर 4 या 5 स्तर के भूकंप क्षेत्र में आता है जबकि सबको मालूम है कि उत्तरकाशी का भूकंप रिचर स्केल पर 6 से ज्यादा था। जिसमें 2 हजार से ज्यादा लोग मारे गये थे व हजारांे लोग घायल हुए थे।
मनेरी भाली-1 परियोजना पिछले 10 वर्षो से काम कर रही है। इआईए में उसके सामाजिक आर्थिक विष्लेशण या प्रभावों पर कोई अध्ययन नहीं दिया गया है। जबकि मनेरी भाली-1 कि सुरंग के उपर स्थित जामक गांव उत्तरकाशी भूकंप में सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ था।
जब दोनों परियोजनाओं के 12 हजार से ज्यादा लोग काम करेंगे तो महिलाओं की सुरक्षा का क्या होगा?
परियोजना से खेती पर क्या असर पडे़गा इसका कोई जिक्र नहीं है?
भागीरथी घाटी की शांति, सुंदरता और संस्कृति पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों या उनसे बचावों का कहीं कोई जिक्र नहीं है।
इआईए पुनर्वास नीति या किसी पैकेज कि कोई विस्तृत जानकारी नहीं है।
इआईए आपदा प्रबंध योजना की कोई विस्तृत जानकारी नहीं हैं।
पर्यावरण शर्ते या कोई अन्य वादे यदि पूरे नहीं होते तो तो किसे शिकायत करेंगे?
इआईए में जगह जगह प्रायः ऐसा लिखा है कि ‘ऐसा करेंगे’ ‘ऐसा होना चाहिए’ यानि अभी ई आई ए पूरी नही है।
पशुओं के चारे का क्या होगा? चारागाह व उसके रास्तों का क्या होगा?
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