Thursday 21 August 2014

Press Note- 21 अगस्त, 2014

                                                                                                                                                        (English translation is after Hindi)

पंचेश्वर बांध परियोजनाः हिमालय में नये खतरे की शुरुआत

नेपाल ने 15.95 करोड़ रुपये पंचेश्वर बांध परियोजना की शुरुआत व्यवस्था के लिये दिये है। अगले एक साल में इस बांध की सारी बाधायें दूर करके शुरुआत कर दी जायेगी ऐसा नेपाल सरकार का कहना है। नेपाल स्थित कंचनपुर के पहले कार्यालय में 6 भारतीय व 6 नेपाली अधिकारी होंगे। क्षतिग्रस्त और नाजुक परिस्थिति वाले हिमालय में यह एक नये खतरे की शुरुआत है।

नेपाल ने यह हिम्मत जुटाई है हमारे प्रधानमंत्री जी कि पहली नेपाल यात्रा के बाद। अपनी पहली नेपाल यात्रा में प्रधानमंत्री जी ने पंचेश्वर बांध परियोजना की शुरुआत का तोहफा नेपाल को दिया। याद रखना चाहिये की माओंवादी सरकार बनने के बाद जब नेपाल के तात्कालिक प्रधानमंत्री श्री प्रचण्ड दहल भारत आये थे तो टिहरी बाँध देखकर बहुत खुश हुए थे और नेपाल में बड़ें बांधों की हिमायत कर बैठे थे। उन्होनंे सिर्फ टिहरी बांध देखा था वे उसमें डूबे शहर और गांवों के लोगों से ना तो मिले, ना ही उनकी समस्याओं से परिचित हुये थेे। इस बार हिमालय के सुंदर देश नेपाल में जब हमारे नये चुने गये प्रधानमंत्रीजी गए तो उन्हंे बड़े बांध बना कर बिजली बेचने की सलाह के साथ, पंचेश्वर बांध परियोजना की शुरुआत की घोषणा भी कर आये है।

किसी छोटे देश में बड़े देश के राष्ट्राध्यक्ष का जाना कोई बड़ी परियोजना की सौगात देना जरुरी जैसा माना जाता है। 1986 में जब रूस के राष्ट्राध्यक्ष र्गोबाचोव जब भारत आये थे तो टिहरी बाँध में उनके देश द्वारा तकनीकी और आर्थिकीय दोनो सहयोग की बात की गई। उत्तराखंड के निवासी, विस्थापितों का पुनर्वास सभंव नही हो पाया है। पर्यावरण की तो अपूर्णीय क्षति हाल में 2013 की आपदा में हम देख ही चुके है।

टिहरी बांध परियोजना के सन्दर्भों में ही इस परियोजना को अगर समझें तो 280 मीटर ऊँची यह बाँध परियोजना मध्य हिमालय का बड़ा हिस्सा डुबाएगी। यहाँ कुछ प्रश्न विचारणीय हैं। टिहरी बाँध जैसी विस्थापन की अनुत्तरित समस्याएं और पर्यावरण का कभी सही नहीं होने वाला विनाश जिसमें हजारों, लाखों पेड़ काटेंगे और डूबेंगे यहंा भी होगा। इसके बारे में प्रकृति को समझने वाले वैज्ञानिक और पर्यावरणविद्ों सहित लोग आंदोंलनकारी करते भी रहे है।       
            
यहाँ विस्थापन और पर्यावरण की उपजने वाली समस्याओं की लम्बी सूची दोहराने की कोई जरुरत नहीं लगती है न जाने कितने टन विस्फोटकों का उपयोग होगा जिससे हिमालय का यह हिस्सा और कमजोर होने वाला है। हमारी समझ यह क्यों नहीं समेट पाती कि एक वर्ष पहले उत्तराखंड में जो त्रासदी हुई उसमे बांधों का बड़ा योगदान रहा है। जहाँ आज भी अलकनंदा पर बने विष्णुप्रयाग बाँध की सुरक्षा दीवारें बहती जा रहीं हैं। जिसमे गुणवत्ता का प्रश्न तो है ही किन्तु किसी न किसी तरह बाँध को पूरा करना और उससे बिजली उत्पादन की जिद्द भी है।

हम सब जानते है कि हिमालय नया पर्वत है इसके पहाड़-पहाड़ियां कच्चें हैं। पंचेश्वर बांध परियोजना भी भूकम्पीय क्षेत्र के अंतर्गत है जो कि खतरे से भरपूर है। बड़े बांधो की पर्यावरण प्रभाव आंकलन रिपोर्ट बहुत कमजोर बनाई जाती है। नियमों कानूनों की अवहेलना कर मात्र किसी तरह बांध को आगे बढाना की उनका प्रमुख सोच हैं। परियोजना वाले चाहे कोई भी कम्पनी/निगम हो वो जानकारी छुपाते है और परियोजनाओं को विकास के लिये, नये शहरों की बिजली की जरुरतों जबरन लादा जा रहा हेै।
                   
पंचेश्वर बांध परियोजना जिसमें 280 मीटर ऊँचा बाँध प्रस्तावित है क्या-क्या समस्याएं पैदा होंगी उनकी गिनती टिहरी बाँध की समस्याओं का उदाहरण देखकर की जा सकती है। जुलाई 2006 में टिहरी बाँध का उद्घाटन हुआ किन्तु सर्वाेच्च न्यायालय के आदेश के कारण आज भी टिहरी बाँध पूरी तरह नहीं भरा सका है। टिहरी बाँध के जलाशय के सब ओर के गांव धसक रहे हैं। जिनका भू-गर्भीय परीक्षण कभी ईमानदारी से पूरा नहीं किया गया था। यदि पंचेश्वर बाँध में ऐसा सबकुछ ईमानदारी से किया भी जाने वाला है तो यह बाँध अपने में एक बहुत बड़ा अकल्पनीय समस्याआंे का जनक रहेगा। क्यों इस तथ्य को भूला दिया जा रहा है कि पंचेश्वर बाँध जिस महाकाली नदी पर प्रस्तावित है उसकी प्रमुख सहायक धौली गंगा पर पिछले वर्ष जून 2013 में एनएचपीसी का बाँध बनने के बाद भी आज बर्बाद पड़ा है। साथ ही ऐला तोक जैसे ना जाने कितने रिहायशी इलाकों को भी बर्बाद कर चुका है। सरकारें या नेता बदलने के बाद बातें भी बदल जाती है। टिहरी बांध की समस्याओं को देखते हुये ये तत्तकालीन सरकार ने ये कहा की अब हम टिहरी जैसा बांध और नही बनायेंगे। माटू जनसंगठन ने तब भी यह बात उठाई थी की क्या वे पंचेश्वर बांध परियोजना, यमुना पर किसाउ आदि परियोजना को हमेशा के लिये छोड़ देने की बात कर रहे है? पर इन शब्दों की गारंटी क्या होती है मालूम पड़ गई।
           
हम क्यों भूल जाते हैं कि प्रकृति सन्देश बार बार देती है और फिर उसके बाद भीषण तबाही लाती है।

हमारे देश का जल संसाधन मंत्रालय बखूबी जानता है कि आजतक किसी भी बाँध में जब प्राकृर्तिक और ंमनुष्य जनित समस्याआंे का समाधान नहीं हुआ तो फिर नए बाँध में कैसे संभव होगा? फिर चूंकि पंचेश्वर बाँध इसी मध्य हिमालय में स्थापित है। इसलिये टिहरी और धौलीगंगा जलविद्युत परियोजनाओं के उदाहरणों को सामने रखना होगा।

हमें नही भूलना चाहियें कि हिमालय में ‘‘विस्थापनहीन-पर्यावरण संरक्षण वाला विकास‘‘ सही व स्थायी विकास मंत्र सिद्ध होगा।

विमलभाई,                    पूरण सिंह राणा                  आलोक पंवार
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Pancheshwar dam project:
Beginning of a new danger in the Himalayas
Nepal has granted an amount of 15.95 crore for starting the Pancheshwar dam project and seeks to commission the project with all the defects removed. Initially there will be 6 Indians and 6 Nepali officials in the office. Office will be in Kanchanpur Nepal. This is nothing but the start of a new danger in an already dilapidated and precarious Himalayas.

Nepal has been able muster this courage only after the visit of our Prime Minister where he gifted this project to Nepal. It must be remembered that after the Maoist government came to power in Nepal, the then Prime minister visited India and having got impressed by the Tihri dam, he advocated construction of such dams in Nepal as well. The Nepali prime minister, only saw the dam never met the effected people or the drowned villages. Recently when Indian prime minister visited Nepal he advised building of such dams and sale of electricity and announced the Pancheshwar dam project.

Whenever the head of government of a big country visits a smaller country, announcement of big projects is almost customary. Similar announcement with respect to technical and economic support for Tehri dam was also announced by Gorbachev from Russia when he visited in 1986. People from Uttarakhand and other displaced people have not yet been rehabilitated and environment has been damaged beyond repair the effects of which were already seen in 2013 disaster.

If the this new project is understood in relation to the Tehri dam project itself then this 280 meter high project will drown a big area of central Himalaya. Here some questions must be deliberated. Unanswered problems of displaced people and irreparable damage to the environment because of large scale felling of trees will happen here as well. In this regard environmentalists and other scientists have been constantly protesting.

It is not necessary to repeat the long list of damages which may be caused to the Himalayas and the displaced people due to large scale use of explosives which will weaken the said area of Himalaya. It is baffling to see that why we cannot understand that dams had a huge role to play in the disaster of 2013 in Uttarakhand where the security walls at Alakhnanda river are flowing away even today where apart from qualitative issues in the construction of such walls, the insistence on construction of dams at the earliest and production of electricity is also there.

We all know that Himalaya is a new mountain and its rocks are not that strong. Pancheshwar dam project is also located in the earthquake prone area which further multiplies the risk. The environment impact assessment report of such big dams project is also weakly drawn up and rules are regularly flouted to constructed such dams. Whichever company is awarded the contract, they hide the information to develop the project and needs of electricity in towns is given as an excuse for commissioning of such projects.

What all problems may arise from the Pancheshwar dam project can be seen from the damages inflicted by Tehri dam itself. Tehri dam was inaugurated in July 2006 but because of the directives of the Hon’ble Supreme Court of India, it has not yet filled to its capacity. All villages around the reservoirs of Tehri dams are sinking. No geological examination of these effects were never carried out. Even if such assessments are examinations are made in the Pancheshwar dam project, it will still be the cause of several monumental problems in the region. Why is the fact that NHPC dam constructed in June 2013 on the major tributary of Mahakali river (on which the project is proposed) Dhauli Ganga is still lying unused, being ignored. Also it has already devastated many residential areas like Ela Tok.

After having seen the problems of Tehri dam, the state government said that it will not be constructing such dams anymore. Matu Jansangathan had even then raised the question that whether this should be taken to mean that Pancheshwar dam project and other similar project will be shelved forever. But the value of such words is now apparent.

Why do we forget that fact that nature first gives signals and then wreaks devastation?

Our water ministry only knows it too well that if the environmental and other related problems caused by previous dam project were not solved then there is no reason to believe that the same will be done with respect to Pancheshwar dam projects. Therefore since the Pancheshwar dam project is situated in central Himalayas we will have to present the examples of Tehri and Dhauliganga projects.

We must not forget that in Himalayas only such developmental project will be appropriate and correct which is not accompanied with displacement and environmental damage.

Vimalbhai,                 Puransingh Rana,                              Alok Panwar  

Monday 11 August 2014

गंगाघाटी से 11-08-2014

गंगाघाटी से

Author: 
विमल भाई
हाल ही में आई आपदा में उत्तराखंड के लोगों की आर्थिक व्यवस्था को चरमरा दिया तिस पर चार धाम यात्रा भी बहुत कमजोर चल रही है। जून 2013 की आपदा से घबराई हुई सरकार थोड़ा-सा कुछ भी होने पर यात्रा रोक रही है ऐसे में बाँध कंपनियों द्वारा बांध मरम्मत के कामों में स्थानीय लोगों को ठेके मिलना बहुत बड़ी बात है। बांध कंपनियों के लिए थोड़े से ठेके देकर बांध का विरोध बंद करना बड़ी जीत है। गंगा पर रुड़की विश्वविद्यालय व भारतीय वन्यजीव संस्थान की रिपोर्टाें के बाद पूर्ववर्ती यूपीए सरकार की बनाई गंगा प्राधिकरण की 17 अप्रैल 2012 को सम्पन्न तीसरी बैठक में तात्कालिक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने एक अंतरमंत्रालयी समिति बनाई थी। भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा गंगा घाटी में जिन 24 जलविद्युत परियोजनाओं को रोका था। अंतरमंत्रालयी समिति ने उन सबको पास कर दिया।

इसके बाद 13 अगस्त 2013 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 15 अक्तूबर को श्री रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में एक समिति बनाई जिसका काम मूलतः जून आपदा में गंगा पर बांधों की भूमिका को देखना था। जबकि उच्चतम न्यायालय ने मात्र गंगा घाटी के बांधों के विषय में नहीं कहा था। 13 अगस्त 2013 के आदेश में साफ कहा गया था किः-

पहले से मौजूद, निर्माणाधीन और प्रस्तावित परियोजनाओं के क्षेत्र के पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर पड़ने वाले संभावित नकारात्मक प्रभावों का विस्तृत अध्ययन करने की आवश्यकता है। हम देख रहे हैं कि कोई उचित आपदा प्रबंधन योजना भी लागू नहीं की गई है, जिसके कारण जीवन और संपत्ति का नुकसान हुआ। इस स्थिति को मद्देनजर रखते हुए, हम निम्नलिखित निर्देश देते हैं -

“हम पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के साथ-साथ उत्तराखंड राज्य को आदेश देते हैं, कि वे इसके अगले आदेश तक, उत्तराखंड में किसी भी जल विद्युत परियोजना के लिए पर्यावरणीय या वन स्वीकृति न दें।’’

यमुना घाटी में, उत्तराखंड के कुमांऊ क्षेत्र में भी नदी घाटी में कार्यरत, बन रही व प्रस्तावित बांध परियोजनाओं के क्षेत्र में भयानक तबाही हुई थी। उत्तराखंड व केन्द्र सरकार ने क्रमशः अलकनंदा गंगा पर विष्णुगाड-पीपलकोटि और यमुना पर लखवार परियोजनाओं को स्वीकृति दी। दोनों पर काम चालू है। अलकनंदा की सहयोगिनी धौलीगंगा पर लाता-तपोवन जलविद्युत परियोजना पर भी चोरी छुपे काम चालू किया गया।

न्यायालय ने रवि चोपड़ा समिति की रिपोर्ट जल्दी मांगी। वन मंत्रालय को जब ये आभास हुआ की यह समिति कुछ सख्त सिफारिशें कर सकती है तो उसने एक नयी समिति बनाई। जबकि यह बात दीगर है कि रवि चोपड़ा समिति में ऐसे भी सदस्य थे जिन्होंने गंगा पर बांधों को स्वीकृति दी थी और बांध कंपनियों द्वारा पर्यावरण उलंघनों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया था।

सर्वाेच्च न्यायालय ने रवि चोपड़ा समिति की रिपोर्ट 28 अप्रैल को दाखिल हुई। मंत्रालय ने दूसरी समिति की भी रिपोर्ट सर्वाेच्च न्यायालय में दाखिल की। अब इसके बाद विभिन्न बांध कंपनियों ने भी उसमें अपनी याचिका दायर की।

इसी बीच भरत झुनझुनवाला ने सर्वाेच्च न्यायालय में लखवार और विष्णुगाड-पीपलकोटि के मामले में अवमानना याचिका दायर की। उच्चतम न्यायालय में मुकदमा चालू हैं। सरकारें बदल गईं मगर 24 मेें से ज्यादातर बांधों का काम माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद ही रुका।

बांध काम चालू रहने का नतीजा यह होता है कि यदि कोई बांध रोकने का अंतिम निर्णय होता भी है तो कंपनियां कह देती हैं कि अब तो बांध बहुत आगे तक बन गया है इसीलिए इसे रोकना संभव नहीं है।

हाल ही में आई आपदा में उत्तराखंड के लोगों की आर्थिक व्यवस्था को चरमरा दिया तिस पर चार धाम यात्रा भी बहुत कमजोर चल रही है। जून 2013 की आपदा से घबराई हुई सरकार थोड़ा-सा कुछ भी होने पर यात्रा रोक रही है ऐसे में बाँध कंपनियों द्वारा बांध मरम्मत के कामों में स्थानीय लोगों को ठेके मिलना बहुत बड़ी बात है। बांध कंपनियों के लिए थोड़े से ठेके देकर बांध का विरोध बंद करना बड़ी जीत है।

उदाहरण के लिए अलकनंदागंगा पर कार्यरत विष्णुप्रयाग बांध के दरवाजे 16-17 जून 2013 की रात न खुलना नीचे के कई गांवों में नुकसान और हेमकुंड साहेब जाने का रास्ता टूटने का कारण रहा है। अब बांध कंपनी ने मरम्मत के कामों में क्योंकि लामबगड़ और पांडुकेश्वर गांव के लोगों को कुछ काम दिया है इसीलिए गांव के लोग बांध कंपनी की किसी भी गलती पर नहीं बोल सकते। ये स्थिति अपने में बहुत भयानक है।

हाल ही में 12-13 जून 2014 की रात को जेपी कंपनी द्वारा बहाए गए मलबे के कारण पानी में जो भारीपन आया उससे गोविंदघाट पर बना नया पुल जो हेमकुंड साहेब की यात्रा के लिए महत्वपूर्ण है, बह गया किंतु इस बात को गांव के लोग कैसे बोलें?

विष्णुगाड-पीपलकोटी परियोजना को सर्वाेच्च न्यायालय के 13 अगस्त 2013 के आदेश का उल्लंघन करते हुए राज्य सरकार ने वन स्वीकृति दी। नतीजा बांध कंपनी गांव में पुलिस के साथ घुसकर पुलिस के बल पर उनकी स्वीकृति लेने की कोशिश कर रही है जो बांध के खिलाफ उठते संघर्ष को कुचलने तरीका है।

इतिहास बताता है कि टिहरी बांध और दूसरे बांधों के उदाहरण हमारे सामने हैं जिनके मुकदमें अभी भी लोगों पर चालू हैं। अदालती आदेशों का उल्लंघन करते हुए स्वीकृतियां दी जाती हैं और कंपनियां बांध कार्य को आगे बढ़ाती हैं।

सरकार और बांध कंपनियों द्वारा साठ-गांठ से इंकार नहीं किया जा सकता। चूंकि बांध के रोकने की बात कहते ही ऊर्जा संकट का प्रश्न खड़ा कर दिया जाता है और फिर विकास और ऊर्जा के लिए सब जायज मान लिया जाता है। गंगा मंथन के इस दौर में बांध मंथन कब चालू होगा?

Sunday 3 August 2014

गंगा का बजट मंथन 8-8-2014

गंगा का बजट मंथन

Author: 
विमल भाई
गंगा की अविरलता और निर्मलता की ये कोई नई शुरुआत नहीं है। चूंकि गंगा सफाई का मुद्दा बड़ी परियोजना और पूंजीगत निवेश का है। इसीलिए उस पर खूब योजना बनेगी। परिवहन के लिए गंगा जी को खूब खोदा जाना भी एक अच्छा व्यवसाय है। फिर हर सौ किलोमीटर पर बैराज बनना, उठने गिरने वाले पुलों का बनना ताकि मालवाही जहाज आ-जा सके। यह सब एक नए व्यवसाय की शुरुआत है जिसे नितिन गडकरी ने स्पष्ट तरीके से कहा है और उमा जी ने बहुत उत्साह के साथ इस विकास को आंदोलन बनाए जाना स्वीकार किया है।
उमा जी ने बहुत आस्था और भावना के साथ राष्ट्रीय गंगा मंथन का आयोजन किया और उनका कहना था मोदी जी का नारा है हम विकास को आंदोलन बनाएंगे। किंतु नितिन गडकरी (केंद्रीय परिवहन मंत्री) ने जो पूरे समय गंगा मंथन में उमा जी के साथ थे उन्होंने बार-बार कहा कि गंगा पर हर सौ किलोमीटर पर बैराज होंगे।

परिवहन के लिए नदी-रास्ता सस्ता है वे गंगा के पानी की सफाई और उसे वापस नदी में ना डालने पर जोर देते रहे। उनका बार-बार जोर था कि वे नीदरलैंड, हॉलैंड, रूस के विशेषज्ञों को बुला रहे हैं। गंगा की खुदाई होगी। सफाई का काम तेजी से शुरू होगा। उनकी कही बात सरकारी बजट में भी परिलक्षित हुई है।

मोदी सरकार ने आते ही गंगा पर नया मंत्रालय और बड़ा सम्मेलन और बजट में गंगा सफाई के लिए पैसे का आबंटन किया। यह सब जिस तेजी से हुआ है उसने गंगा को पुनः राष्ट्रीय एजेंडे पर ला दिया है बरसों से स्व. राजीव गांधी का चलने वाला गंगा एक्शन प्लान और यूपीए सरकार का गंगा प्राधिकरण भूली-सी बात लगने लगा।

किंतु उमा जी जो गंगा समग्र के साथ भाजपा में पुनः दाखिल हुई जिन्होंने गंगा के किनारे-किनारे पूरी यात्रा तक की। वे सभी इस पूरे गंगा मंथन में गंगा के स्रोत को लगभग भूल ही गईं। पूछने पर भी गंगा पर बन रहे बांधों के विषय में बात टाल गए।

एक पत्रकार को उन्होंने एक भोला सा जवाब दिया कि अब नई तकनीक सहारे गंगा पर बन रहे बांधों के साथ भी गंगा अविरल रह सकती है। उनकी समझ में यह क्यों नहीं आता कि गंगा पर बांध का प्रश्न मात्र थोड़े से गंगा जल को किसी पाइप लाइन के सहारे बहाना नहीं है। वरन गंगा घाटी की पूरी जैव विविधता, पर्यावास, पारिस्थितिकी, गंगा का जल संग्रहण क्षेत्र का रख रखाव, बांध से उजड़े लोगों का पुनर्वास, गंगा घाटी का भू-विज्ञान सब कुछ गंगा की अविरलता से जुड़ा है।

आप इसको एक भावनात्मक मुद्दा बनाकर साधू संतों और तमाम तरह के हजारों लोगों को एक ही दिन में एक साथ बिठाकर समझ नहीं सकते और देखा जाए तो वे गंगा से जुड़े विषयों को भली भांति जानती है। उसके लिए सिर्फ सच्ची राजनैतिक इच्छा शक्ति की जरुरत है। गंगा अविरलता शब्द की सरकारी नई परिभाषा समझ से परे है।

गंगा की अविरलता और निर्मलता की ये कोई नई शुरुआत नहीं है। चूंकि गंगा सफाई का मुद्दा बड़ी परियोजना और पूंजीगत निवेश का है। इसीलिए उस पर खूब योजना बनेगी। परिवहन के लिए गंगा जी को खूब खोदा जाना भी एक अच्छा व्यवसाय है। फिर हर सौ किलोमीटर पर बैराज बनना, उठने गिरने वाले पुलों का बनना ताकि मालवाही जहाज आ-जा सके। यह सब एक नए व्यवसाय की शुरुआत है जिसे नितिन गडकरी ने स्पष्ट तरीके से कहा है और उमा जी ने बहुत उत्साह के साथ इस विकास को आंदोलन बनाए जाना स्वीकार किया है।

इससे जाहिर है कि वे गंगा की आस्था को लेकर या तो स्वयं भ्रम में हैं या जनता को भ्रम में डाला जा रहा है। गंगा को बार-बार साबरमती नदी जैसा साफ करने का जो सपना दिखाया जा रहा है उसकी सच्चाई बहुत अलग है। साबरमती अहमदाबाद शहर की शुरुआत से अंत तक साढ़े दस किलोमीटर नर्मदा में बन रहे सरदार सरोवर बांध में लाखों को उजाड़कर बन रहे सरदार सरोवर से जो पानी कच्छ सौराष्ट्र जाना था वो पानी मात्र अहमदाबाद के किनारे साबरमती में बहाया जा रहा है।

शहर के बाद साबरमती वैसी ही है जैसी हमारी दिल्ली में बहती यमुना। जुलाई के पहले हफ्ते में जाहिर, तीन बरसों के अध्ययन के बाद केंद्रीय जल आयोग की रिर्पोट भी यह बताती है कि साबरमती सहित गुजरात की 16 नदियों में खतरनाक जहरीले तत्व बह रहे हैं।

नई सरकार के बजट में पर्यटन के नाम पर केदारनाथ का जिक्र है यह सरकारी अदूरदर्शिता को बताता है कि उत्तराखंड में आपदा अब 2014 में फिर आई है जब वहां तीर्थ यात्रियों की संख्या नगण्य है। गंगा घाटी से सदियों से रहते आए पुत्र पुत्रियों की आर्थिक स्थिति शोचनीय हो रही है जिसका जिक्र अब कहीं नहीं है। गंगा घाटी के विकास की कोई योजना नही। मैदान के लोगों को इसकी कोई चिंता भी नही। किंतु हमारी अपेक्षा तो है।

बजट में एक नए हिमालय संस्थान की बात भी की गई है। किंतु जो आजतक विभिन्न संस्थानों पर्यावरणविदों ने हिमालय रक्षण की बातें कहीं हैं उनका अनुपालन ही हो जाए तो भी हिमालय काफी बच जाएगा। गंगा पर नए कानून की बात सरकार ने कही है। क्या पुराने पर्यावरणीय कानूनों पर कोई इच्छाशक्ति व्यक्त की गई? इसी संदर्भ में नए पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने मंत्री बनते ही जो पहला काम किया उसमें परियोजनाओं को ऑनलाइन स्वीकृति देना शामिल है। किंतु क्या पर्यावरण का घोर उलंघन करते हुए स्थानीय जनता को पुलिस का भय दिखाकर बांध बनाने वाली कंपनियों की जांच के लिए एक भी शब्द कहा क्या?

बांधों के विषय पर सरकार बोलने से इतना डरती क्यों है? जैसे नए बैराज बनाने के लिए राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के साथ बैठने का आयोजन अलग से करने की प्रतिबद्धता और क्रियान्वयन हो रहा है वैसा गंगा पर बांधों के संदर्भ में क्यों नहीं?

गंगा को अविरल और निर्मल रखने की घोषणा कोई भी करता है तो उसे सबसे पहले गंगा के मायके के पुत्र पुत्रियों की समस्या का निदान करना होगा बिना गंगा के स्रोत को संभालने और गंगा को प्राकृतिक रूप में छोड़े अविरलता निर्मलता थोथी साबित होंगी।