Tuesday 30 April 2013

मशविरे का नाटक बंद करो 30-4-2013

Home

मशविरे का नाटक बंद करो

Author: 
विमल भाई
Source: 
माटू जनसंगठन
आईएफसी द्वारा वित्त पोषित जीएमआर कम्पनी के ताप परियोजना प्रभावित, पास्को से लेकर तमाम परियोजना प्रभावितों ने प्रदर्शन किया। मगर इसके बावजूद भी विश्व बैंक ने इस सारे विरोध को चर्चा का हिस्सा मानते हुए आगे बढ़ने की बात कही है जो फिर एक बार यह सिद्ध करता है कि विश्व बैंक तथा कथित विकास परियोजना के नाम पर पूंजीवादी देशों के हितों को साधने का ही औजार है। यह सब तौर तरीके बताते हैं कि वास्तव में विश्वबैंक की पर्यावरण और रक्षात्मक नीतियाँ उसकी वास्तविक कामों में कहीं कोई स्थान नहीं रखती है। मात्र एक सुंदर आवरण है।विश्वबैंक ने पर्यावरण और सामाजिक संदर्भ में अपनी कुछ नीतियाँ बनाई हुई। जिसे वो पर्यावरण और पुर्नवास रक्षात्मक नीतियों का नाम देता है। 1992 में नर्मदा घाटी से भगाए जाने के बाद जलविद्युत परियोजना में 15 वर्ष तक बैंक ने किसी बांध को पैसा नहीं दिया। अब कुछ वर्षों से धीरे-धीरे बांध परियोजनाओं में पैसा लगाना शुरू कर रहा है। उसकी दलील है कि उस पर भारत के निदेशक का दबाव है। विश्व बैंक में हर साझेदार देश का एक निदेशक होता है। हिमाचल में रामपुर जलविद्युत परियोजना के बाद अब उत्तराखंड में अलकनंदागंगा पर विष्णुगाड-पीपलकोटी जलविद्युत परियोजना में उधार दे रहा है। विश्वबैंक जिस भी परियोजना में पैसा उधार देता है वहां पर्यावरण व सामाजिक प्रभावों के तथाकथित ऊंचे मानकों को दिखाने की कोशिश करता है। पर्यावरण व सामाजिक प्रभावों के संदर्भ में विश्वबैंक समय-समय पर अपनी रक्षात्मक नीतियों को ऊंचा बनाने का दिखावा करता है। इस समय बैंक की यही प्रक्रिया चल रही है। इसमें आठ पर्यावरण और सामाजिक रक्षात्मक नीतियों पर पुनर्विचार में का प्रस्ताव है जिसमें पर्यावरण आकलन प्राकृतिक रहवास, रोग प्रबंध, आदिवासी लोग, भौतिक-सांस्कृतिक संसाधन, अनैक्षिक विस्थापन, वन, बांध सुरक्षा और पर्यावरण व समाजिक सुरक्षात्मक नीतियों के लिए एक प्रक्रिया बनाना शामिल है। यह बताया गया कि बैंक इन मशविरा बैठकों के बाद आंतरिक विमर्शों और मशविरों का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विमर्शों का दौर चलाएगा

5 अप्रैल को दिल्ली, 8 अप्रैल को बंगलोर और 10 अप्रैल भुवनेश्वर में बैंक ने इस संदर्भ में तीन मशविरा बैठकें बुलाई। जिसमें उसका इरादा ‘‘सिविल सोसाइटी‘‘ से चर्चा करने का था। इससे साफ झलकता है कि बैंक परियोजना प्रभावितों और उनके सहयोगी संगठनों को ना सुनना चाहता है ना ही समस्याओं के निदान के लिए गंभीर है। इसलिए बैंक पोषित विभिन्न परियोजनाओं के प्रभावितों और उनके सहयोगी संगठनों ने इन मशविरा बैठकों का विरोध किया। जिसकी शुरुआत दिल्ली में आयोजित भारत की पहली मशविरा बैठक से प्रारंभ हुई। जनआंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय और दिल्ली समर्थक समूह द्वारा आयोजित प्रदर्शन में आंदोलनकारी 5 अप्रैल को इंडिया हैबिटेट सेंटर के हाल में बैठक स्थल में घुस गए और नारे लगाए विश्व बैंक भारत छोड़ो, मशविदे का नाटक बंद करो, पुराना हिसाब साफ करो और साथ ही वे मंच के आगे जाकर खड़े हो गए। उन्होंने उपस्थित लोगों से निवेदन किया कि वे हाल छोड़ दें। जिसमें विश्वबैंक के कुछ सलाहकार व कुछ नए आमंत्रित और तथाकथित सभ्य समाज के प्रतिनिधियों थे। एक आमंत्रक ने कहा कि यह मर्यादा के खिलाफ है विश्वबैंक हमारा मेहमान है और हमें उनकी सुननी चाहिए। जिसका लेखक ने उत्तर दिया कि आततायी मेहमान नहीं होते हैं और जो उन्हें मेहमान समझते हैं वो अपना संबंध बनाए किंतु हमने बैंक की कारगुजारियों को देखा है।

इंडिया हैबिटेट सेंटर में विश्व बैंक के मीटिंग का विरोध करते जन आन्दोलनो का राष्ट्रीय समन्वय और दिल्ली समर्थक समूह  के कार्यकर्ता और माटू जनसंगठन के विमल भाई  
इंडिया हैबिटेट सेंटर में विश्व बैंक के मीटिंग का विरोध करते जन आन्दोलनो का राष्ट्रीय समन्वय और दिल्ली समर्थक समूह के कार्यकर्ता और माटू जनसंगठन के विमल भाई

बैंक की प्रारम्भिक आर्थिक मदद के कारण ही नर्मदा घाटी में आदिवासियों समाज की बर्बादी हुई है। विश्वबैंक एक तरफ गंगा के सफाई के लिए करोड़ों रुपया दे रहा है दूसरी तरफ गंगा पर ही बड़े बांधों के लिए पर्यावरण और आर्थिक लाभ-हानि के मूलभूत प्रश्नों को अपनी ही रक्षात्मक नीतियों का उल्लंघन करते हुए पैसा दे रहा है। उत्तर प्रदेश के सिंगरौली में एनटीपीसी की ताप विद्युत परियोजना से निकलने वाली राख को ठंडा करने के लिए जो बांध बनाया उससे उजड़े मात्र आठ परिवारों का पुर्नवास विश्वबैंक नहीं कर पाया। इसके अलावा ऐसे अनेक उदाहरण हर उस परियोजना में मिलेंगे जहां विश्वबैंक ने पैसा लगाया है जैसे पूर्वी खदानें और एलाइन-दुहंगन, रामपुर, लुहरी, विष्णुगाड-पीपलकोटी जैसे बांध परियोजनाएं आदि।

इसलिए बैंक का रक्षात्मक नीतियों पर चर्चा करना पूरी तरह बेईमानी है। बैंक की हिम्मत नहीं है कि प्रभावितों से सीधे जाकर बात कर सके। बैंक ने उसके द्वारा समर्थित परियोजनाओं में पुनर्वास और पर्यावरण की अब तक की समस्याओं को अनदेखा किया है और दूसरी तरफ इस तरह की मशविरा बैठकें आयोजित करने का ढोंग करता है। कार्यकर्ताओं ने 4 घंटे तक बैठक में कब्ज़ा जमाए रखा और इस तरह की बैठकों की पोल खोली। साथ चेतावनी भी दी की हम अगली मशविरा बैठकों में भी ऐसा ही करेंगे। कब्ज़े के दौरान मधुरेश कुमार ने देश भर के साथी आंदोलनों की ओर से एक पर्चा पढ़ा जिसमें बताया आंदोलनों का पक्ष क्या है बताया गया।

वास्तव में इस तरह की पहले आयोजित बैठकों/चर्चाओं में हजारों समूहों और व्यक्तियों ने हिस्सा लिया है और मगर सब बेनतीजा। चूंकि विश्वबैंक के बड़े साझेदार फ्रांस, जर्मनी, जापान, इंग्लैंड और अमेरिका जो कि बहुत ही गंभीर आर्थिक मंदी के दौर से गुज़र रहे हैं उनका दबाव है कि पर्यावरण पुनर्वास के मुद्दों को एक तरफ रखकर वैश्विक निवेश की संभावना को खोजा जाए।



बैंक टिहरी जल विद्युत निगम जैसी आपराधिक कंपनियों को बिना उनके इतिहास देखे पैसा दे रहा है। विश्वबैंक का एक दूसरा हाथ अंतरराष्ट्रीय वित्त निगम आईएफसी है जो निजी कंपनियों को पैसा देता है। आईएफसी ने ‘‘मध्यवर्ती वित्त ऋण‘‘ की जो नई प्रक्रिया शुरू की है उसमें तो सभी पर्यावरण और सामाजिक दायित्वों की रक्षात्मक नीतियों से बरी कर दिया है। गुजरात में संवेदनशील परिस्थिति वाले कच्छ क्षेत्र में 4000 मेगावाट की टाटा मुंदरा परियोजना को 4 बिलियन पैसा दिया। ऐसे ही एक बिलियन का ऋण और अन्य ऋण टाटा मुंदरा से जुड़ी परियोजनाओं को दिए। इसके बाद भी बैंक कैसे दावा कर सकता है कि वो पर्यावरण व पुनर्वास के मसलों पर लोगों से चर्चा करना चाहता है? वास्तव में बैंक सिर्फ बड़े पूंजीवादी देशों का एक औजार है जो कि भारत जैसे देशों के बाजारों को इन बड़े देशों के लिए खोलना चाहते हैं। एक दशक पहले पर्यावरण एवं वनमंत्रालय के लिए कार्यकुशलता निर्माण के लिए पैसा दिया था। यह बताने की जरूरत नहीं है कि इस मंत्रालय की कार्यकुशलता में किस तरह कि वृद्धि की है। देश का बिगड़ता पर्यावरण, बर्बाद होती नदी घाटियां इस गैर जिम्मेदार मंत्रालय की बढ़ी हुई कार्यकुशलता को बताता है।

8 अप्रैल को बंगलौर की मशविदा बैठक में भी आंदोलनकारियों ने बैठक में घुसकर अपनी बात रखी। बंगलौर के वकील ने सरदार सरोवर में सोलह वर्षीय रेहमल वसावे की पुलिस द्वारा गोली मारे जाने से हुई हत्या के संदर्भ में दो मिनट का मौन रखवाया। 10 अप्रैल को भवुनेश्वर में विश्वबैंक को पुलिस की घेराबंदी में बैठक करनी पड़ी। आईएफसी द्वारा वित्त पोषित जीएमआर कम्पनी के ताप परियोजना प्रभावित, पास्को से लेकर तमाम परियोजना प्रभावितों ने प्रदर्शन किया। मगर इसके बावजूद भी विश्व बैंक ने इस सारे विरोध को चर्चा का हिस्सा मानते हुए आगे बढ़ने की बात कही है जो फिर एक बार यह सिद्ध करता है कि विश्व बैंक जैसी तथा कथित विकास परियोजना के नाम पर पूंजीवादी देशों के हितों को साधने का ही औजार है। यह सब तौर तरीके बताते हैं कि वास्तव में विश्वबैंक की पर्यावरण और रक्षात्मक नीतियाँ उसकी वास्तविक कामों में कहीं कोई स्थान नहीं रखती है। मात्र एक सुंदर आवरण है।

Thursday 18 April 2013

प्रैस विज्ञप्तिः- 19.4.2013




Hindi Press Release given below--Matu Jansanghatan  released its 15th Dastavez (Hindi) on 15th April  “Aapda mey fayada” (Benefit in calamity) to highlight  that the calamity was much due to Hydro Electric Power project in Assiganga and in Bhagirathiganga. HEPs proponent "Uttarakhand Jalvidhut Nigam" is relible for this. Report also mention large-scale irregularities in relief works done for those affected by the cloudburst in Uttarkashi 3 August, 2012. A summary of the report in English will be upload on our blog soon. Just send us a mail if u want.      ---Vimalbhai and Puran Singh Rana



''आपदा में फायदा'' का विमोचन
नुकसान बादल फटने से इतना नही वरन् जलविद्युत परियोजनाओं के कारण हुआ

उत्तराखंड में उत्तरकाशी में अस्सीगंगा व भागीरथी गंगा के संगम पर 15 अप्रैल को आपदा प्रभावितों के बीच माटू जनसंगठन के पंद्रहवें दस्तावेज़ ‘‘आपदा में फायदा‘‘ का विमोचन किया गया। इस अवसर पर सभा में वक्ताओं ने आपदा प्रंबध की पोल खोलने के साथ मुआवज़ा वितरण में हो रही धांधली की आलोचना की। एकमत से अस्सीगंगा के बांधो का विरोध किया गया।

क्षेत्र पंचायत सदस्य श्री कमलसिंह ने कहा की हम अस्सी गंगा के बांधों का प्रारंभ से विरोध कर रहे है। हमारी बात सही सिद्ध हुई। आपदा प्रबंधन के दिशानिर्देशों के अनुसार तो आपदा आते ही यहंा सभी समस्याओं के समाधान के लिये कैम्प लगना चाहिये था जो नही लगा और समस्यायें आज भी मौजूद है। अभी संगम चट्टी पर मलबा पड़ा है। सैकड़ो पेड़ गिरे पड़े है। पहले  उस क्षेत्र का उपचार होना चाहिये था नाकि 25 किलोमीटर नीचे गंगोरीगाड में पुश्ते लगाने का काम चालू होता।

वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता व इस दस्तावेज़ के सहयोगी श्री नागेंद्र जगूड़ी
ने कहा की हमें लम्बा संघर्ष करना पड़ेगा जिसके लिये तैयारी जारी है। हम लोगो को ऐसे ही नही छोड़ सकते है।

‘सूर्योदय लोक हितकारी सेवा समिति‘ के अध्यक्ष श्री केसरसिंह पंवार ने कहा की खेती की जमीनों का नुकसान बहुत हुआ है। हमारे सिंचित खेत बह गये और सरकार एक नाली खेत का मुआवजा सिर्फ 2500/- दे रही है। हम उत्तरौं गांव के लोगो ने ये मुआवजा ना लेने का निर्णय लिया है। जो मुआवजा बांटा भी गया है। उसमें तमाम धांधलियां है। अनेक अपात्रों को मुआवजा दिया गया है। इसमें भी भाई-भतीजावाद हुआ है। जिनके मकान बहे है उन्हे 180 वर्गमीटर जमीन देने की बात चली थी किन्तु बाद में कुछ नही। भ्रष्टाचार और प्रशासन की मनमानी का नमूना है कि स्वंय मेरी जमीन बह गई किन्तु विधायक सहित अनेक जनप्रतिनिधियों के शपथपत्र के बावजूद मुझे जमीन नही मिल रही है।

समिति के सचिव श्री विकास उप्पल ने कहा कि मुख्यमंत्री जी ने अभी पुलांे और पुश्तांे के लिये 2 अरब 22 करोड़ रु0 की   घोषणा की है। पर प्रभावितों के बारे में अभी जांच करायेंगे। हम सात महीनों से लगातार शासन-प्रशासन के सामने समस्याओं को रख रहे है। पर आश्वासन ही मिले है। अब जो पुश्तो को काम चालू भी हुआ है तो वो मांनदंडो के उलट है। अभी नदी भरी है और दिवारें उसके साथ ही बनाई जा रही है। ये कितनी टिकेगी? यानि नया घपला चालू हो गया है।

गंगोरी के श्री विकास अग्रवाल
ने कहा की इन बांधो के कारण ही हमारा ज्यादा नुकसान हुआ है। प्रभावितों को आपदा प्रमाण पत्र तक नही मिला है। कुछ दिन पहले एक बीमा कंपनी आई थी बंाधों के नुकसान का आकलन करके चली गई। किन्तु लोगो के नुकसानों का आकलन कौन करेगा? रामपाल चैहान, मुकेश नेगी आदि ने भी अपने विचार रखे। टौंस घाटी से केसर पंवार व रमेश नौटियाल भी इस कार्यक्रम में शामिल हुये। सभा ने एकमत से रिपोर्ट में लिखी मांगो का समर्थन किया और पुनः इस बात को दोहराया किः-
अस्सीगंगा पर बांध तुरंत रोके जाये और अस्सीगंगा को लोक आधारित पर्यटन के लिए सुरक्षित किया जाये। पर्यावरणीय व मानवीय हानि पर एक गहन और विस्तृत जांच होनी चाहिये। इस हादसे की दोषी उत्तराखण्ड जल विद्युत निगम व उसके अधिकारियों पर तुंरत कार्रवाई हो।

माटू जनसंगठन की इस रिपोर्ट से यह मालूम पड़ता है कि गंगा की दोनो मुख्य धाराओं भागीरथीगंगा की अस्सीगंगा घाटी और अलकनंदागंगा की केदारघाटी में जुलाई, अगस्त और सितंबर महिने 2012 में जो भयानक तबाही हुई उसका कारण बादल फटने से ज्यादा जलविद्युत परियोजनाये थी। अस्सी गंगा नदी में बादल फटने के बाद एशियन विकास बैंक पोषित निमार्णाधीन कल्दीगाड व अस्सी गंगा चरण एक व दो जलविद्युत और भागीरथीगंगा में मनेरी भाली चरण दो परियोजनाआंे के कारण बहुत नुकसान हुआ। मारे गये मजदूरों का कोई रिकार्ड नही, अस्सीगंगा व केदार घाटी के गांव बुरी तरह से प्रभावित हुये, पर्यावरण तबाह हुआ जिसकी भरपाई में कई दशक लगेंगे। इसकी कोई समुचित निगरानी नही हुई। ‘उत्तराखंड जल विद्युत निगम‘ पर भी कोई कार्यवाही नही हुई। बल्कि उनकी सारी गलतियों को बाढ़ के साथ बहा दिया गया। बीमा कंपनियों से उनका नुकसान तो पूरा होगा साथ ही भ्रष्टाचार के लिये और पैसा मिल जायेगा। हम इस पर आगे कार्यवाही करेंगे।

जो सरकारें 4.5 और 9 मेगावाट की परियोजनाये नही संभाल सकती वो बड़े बांध की बात कैसे कर सकती है? उत्तराखंड सरकार बांधों को जिस तरह से आगे बढ़ा रही है वो आने वाले समय के लिये बहुत ही घातक है। बड़े बांधों में ही नही वरन् छोटी-2 जलविद्युत परियोजनाओं के कारण जो पर्यावरण व जनहक की अवहेलना हो रही हैं उसे भी नजरअंदाज किया जा रहा है।  

माटू जनसंगठन के इस पंद्रहवें दस्तावेज़ ‘‘आपदा में फायदा‘‘ में क्षेत्रीय भ्रमण, प्रभावितों से बातचीत और कई वर्षो की प्रेस रिपोर्टो के आधार पर यही बताने की कोशिश है कि बादल फटने के कारण नही वरन् वहंा जलविद्युत परियोजनाओं के कारण ज्यादा तबाही हुई। साथ ही बांध कंपनियों का भ्रष्टाचार, सरकार की लापरवाही और पर्यावरण की बर्बादी की पोल खोलने की भी कोशिश है।     

विमलभाई                                                 पूरण सिंह राणा

पुस्तक का आकार- 5.5’’ 8.5
मूल्य- 20/- (डाक खर्च अलग से)
पृष्ठ संख्या-कवर सहित 36


Friday 5 April 2013

Press Note: World Bank Go Back-5-4-2013


PEOPLE'S MOVEMENTS AND ENVIRONMENTAL AND SOCIAL ACTION GROUPS SLAM WORLD BANK’S SHAM CONSULTATIONS ON ENVIRONMENTAL AND SOCIAL SAFEGUARDS POLICIES 

New Delhi, April 5 : Activists of the Matu Jan Sangathan, Domestic Workers Union, Delhi Mahila Shahri Kaamgar Sangathan, National Alliance of People's Movements (NAPM), Delhi Solidarity Group, SRUTI, Delhi Forum, Programme for Social Action and others today stormed the 'civil society consultation' on review and update of the World Bank's environmental and social safeguard policies organised by World Bank at India Habitat Centre in New Delhi. Terming these consultations as eyewash activists didn't allow the consultations to proceed since World Bank continues to hide behind thecentral and state governments in India or other government agencies in different countries and shriek responsibility for any environmental and social damage.
Vimal Bhai, Matu Jan Sangathan – NAPM, said, “the way these consultations are organised are no different from what has been going on for decades. Many such reviews have been conducted, thousands of groups and individuals have participated with the intent of seeing genuine reform of the institution, and possibly its democratization, only to be utterly disappointed. The current exercise, therefore, is nothing but a charade to mask the true intentions of its major ‘shareholders’: France, Germany, Japan, the United Kingdom and the United States, who are grappling with serious economic downturns and are conveniently using the Bank to force open global investment opportunities with scant regard to environmental and social impacts. Bank continues to own up to its responsibility for social and environmental damages it did in Narmada Valley, Singapur, East Parej Mines, Allain Duhangan, Rampur, Luhri and Vishungad Pipalkoti. On several occasions these have been brought to the notice of World Bank but they have refused to take notice of and continue to work with criminal companies like Tehri hydro Development Corporation and other consultants. If such is the case then why hold these stake holders consultations ?”
Madhuresh Kumar, NAPM, added that if indeed the World Bank was seriously concerned about the impacts of its investments, then the best test would have been the sensitivity demonstrated in the investments made by its various lending operations. In India, the International Finance Corporation (IFC), the Bank’s private sector lending arm, is complicit in massive human rights and environmental violations that form the basis of the super-mega $4 billion Tata-Mundra 4000 MW power project in the ecologically sensitive Kutch region of Gujarat. The World Bank, in its wisdom, has further endorsed such environmental crimes by offering a $1 billion loan to the building of the Fifth Power System Development Project, which essentially is a transmission line for Tata-Mundra and three other large coastal power projects. Participating in such manner, the Bank conveniently escapes any blame for the disaster, and yet benefits from financing such ‘development projects’.”
Umesh Babu, Delhi Forum, said “the Bank’s Policy on piloting the use of borrower systems for Environmental and Social Safeguards has in the past decade been a mantra to pave the way for promoting investment at any cost. Over a decade ago the World Bank funded the Indian Ministry of Environment and Forests’ Environmental Management Capacity Building Project. The result was a massive dilution of India’s environmental and social safeguard norms. What’s worse, the processes that resulted lent voice to those within administration and industry who were crying hoarse that the carefully evolved rigour of “forest” and “environmental” clearance standards in India was thwarting economic growth.”
Lakshmi Premkumar, PSA, said, “it took the movement groups and people's organisations across the globe 30+ years to pressurise the World Bank Group to formulate, re-formulate and have in place mechanisms that would safeguard social-environmental-cultural-traditional interests of communities and people affected by the Group's financing of so called 'Development projects' across the World and in India. However, it took the Bank, in particular International Finance Corporation (IFC), only one stroke of destructive imagination to bring in the new model of 'Financial Intermediary Lending' that wiped out all mandatory requirements posed by environmental and social safeguard principles on lending, as they are not bound by such standards. At a time when the FI model of lending in India by IFC and the World Bank at large are expected to cross the halfway mark of their collective investments, it does not make any sense at all for the World Bank to be holding such reviews of their environmental and social safeguards; they simply do not matter at all to the actual practice of the World Bank and its agencies.”
Activists urged the members of the civil society who had come for the consultation to leave the meeting, if they really felt the pain of the people of this country. World Bank has pushed for policies which have undermined the sovereignty of India and its people, privatised services, opened up market for loot and plunder of natural resources by the private corporations and very fundamentally changed the policies of this country in favour of capitalists forces.
Shouting slogans of “World Bank ! Quit India !”, “World Bank ! Down Down !” activists refused to budge from the venue until the World Bank Country Director Mr. Onno Ruhl, left the hall at 2 pm followed by Stephen F Lintner, Senior Advisor, Sanjay Srivastava, Regional Safeguards Advisor and other Bank officials along with few CSO members and Bank consultants who stayed till last.
Activists warned that these sham consultations will not be tolerated unless Bank owned upto damages, compensated communities and stopped funding the environmentally and socially destructive projects in name of 'development'. People's Movements have been struggling across the country against its own governments demanding justice and challenging their nefarious capitalist designs but that doesn't mean World Bank can hide behind them. They are part of the larger design of the global financial systems and we will continue to challenge it.
The current ‘consultations’ are therefore a sham and must be denounced by anyone deeply concerned about the nature of democracy and are keen to ensure that all peoples of the world benefit from human activity that is based on deep appreciation and adherence to the Principle of Prior and Informed Consent and the Principle of Intergenerational Equity.
Rajendra Ravi, Anita Kapoor, Seela Manaswanee, Sanjeev Kumar, Satyam Srivastava, Sunita Rani, Anil Tharyath Varghese, Nishank, Manisha Lath, Gopal, Santosh Kumar.

Thursday 4 April 2013

गंगा चिंतन

गंगा चिंतन-1

Author: 
विमल भाई
जहां बांध बनने के समय चेतना नही थी वहां पर अब लोग खड़े हो रहे है। हां कहीं-कहीं पर प्रभावित बांध के पक्ष में भी खड़े हुए हैं और फिर भुगत रहे हैं। किंतु यह स्पष्ट है कि बांधों से कोई रोज़गार नहीं बढ़ा है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की स्वीकृतियों के अनुसार बांध कंपनियां ही अपनी रिपोर्ट बना कर भेज देती हैं। बाकी पर्यावरणीय और पुनर्वास के पक्ष की किसी शर्त का पालन होता है या नहीं इसकी कोई निगरानी नहीं। बस सरकारी कागजात के पुलिंदे बढ़ते जा रहे हैं। करोड़ों लोगों की आस्था का केन्द्र गंगा को मात्र बिजली बनाने का हेतु मान लिया जाए? गंगा के शरीर पर बांध बनाकर गंगा के प्राकृतिक स्वरूप को समाप्त किया जा रहा है। कच्चे हिमालय को खोद कर सुरंगे बनाई जा रही हैं। जिससे पहाड़ी जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। गंगा नदी नहीं अपितु एक संस्कृति है। पावन, पतितपावनी, पापतारिणी गंगा को मां का स्थान ना केवल हमारे पुराणों में दिया गया है वरन् गंगाजी हमारी सभ्यता की भी परिचायक हैं। वैसे तो गंगा का पूरा आधार-विस्तार अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को पार करता है। भारत देश में भी गंगा उत्तराखंड से उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में सागर से मिलती है। हम यदि गंगा की उपत्याकाओं और उनके जल संग्रहण क्षेत्र को भी समेटे तो हरियाणा-मध्य प्रदेश और उत्तर-पूर्व राज्यों को भी जोड़ना होगा। गंगा का उद्गम उत्तराखंड से होता है। इसलिए उत्तराखंड को गंगा का मायका भी कहा जाता है। मुश्किल है गंगा को उसके मायके में ही हत्या की स्थिति में लाया जा रहा है। गंगा क्षत-विक्षत हो रही है। कन्या भ्रूण हत्या पर कानून है। पर संस्कृति की पालक नदियों के रक्षण के लिए हमारे पास कोई सोच नहीं है।

ऐसे में हमें हम सबकी गंगा के उद्गम से लेकर ऋषिकेश-हरिद्वार तक की सीधी, सच्ची, साफ बेबाक पहाड़ से निकली सच्चाईयां समझने की आवश्यकता है और उसके लिए कदम उठाने की जरुरत है। गंगा के मायके में ही गंगा की दुर्दशा को समझने के लिये हमें गंगा के आधार को भी जानना होगा। उत्तराखंड में गंगा एक तरफ गंगोत्री ग्लेशियर से निकलकर भागीरथी गंगा कहलाती है, दूसरी तरफ श्री बद्रीनाथ जी के पास से निकलकर विष्णुपदी अलकनन्दा गंगा कहलाती है। गंगा का तात्पर्य, उत्तराखंड में भागीरथी गंगा व विष्णुपदीगंगा अलकनंदा के पंच प्रयागों में मिलने वाली पांचों धाराओं के देवप्रयाग में मिलन के साथ पूरा होता है। ये पंचप्रयाग हैः- विष्णुप्रयाग (धौली-अलकनंदा) नन्दप्रयाग (नंदाकिनी-अलकनंदा) कर्णप्रयाग (पिंडर-अलकनंदा) रूद्रप्रयाग (मंदाकिनी-अलकनंदा) देवप्रयाग (अलकनंदा-भागीरथी)

देवप्रयाग से नीचे की तरफ मैदान में पहुंचने से पहले गंगा के किनारे रिवर राफ्टिंग के बहुत सारे पर्यटक कैंप होते हैं जो कि राज्य को राजस्व भी खूब देते हैं और पर्यटकों से स्थानीय लोगों को भी कुछ आमदनी हो जाती है। मगर इससे बड़ी आमदनी ऋषिकेश-हरिद्वार में गंगा के किनारे बने बड़े-बड़े मॉल रूपी आश्रमों व उसमें बैठे तथाकथित संतों की होती है। जो लोगों की गंगा के प्रति श्रद्धा और आस्था को स्वयं की पूजा अर्चना में बदलते हैं। इनमें ये भी होड़ होती है कि किसके पास कितने विदेशी अतिथि हैं। श्रद्धा से सम्मोहित आने वाले विदेशी आजकल इन गंगा संतों के साथ इंटरनेट पर ही जुड़ जाते हैं। कई आश्रमों मे तो बकायदा प्रचार विभाग को देखने वाली कोई गोरी बहन ही होती है। गंगा के किनारे से बढ़कर गंगा के बीच तक में अपने आश्रम का भव्य कब्ज़ा जमाए हुए हैं। ये आश्रम गंगामहाआरतियों का आयोजन करते हैं और राजनेताओं को बुलाकर क़ानूनों के उलंघन को सही ठहरवा लेते है। हां इन सब में गंगा के प्रति सच्चे समर्पण भाव से कार्य करने वाले संत नजर नहीं आते क्योंकि वो ना तो ढोंगी हैं और न प्रचार करते हैं।

आजकल गंगा पर होने वाले सेमिनारों, भजनों, एनजीओ के प्रोजेक्टों की भरमार हो रही है। सारे संतों-महंतों का गंगा के सवाल पर बोलना, ऋषिकेश में महाआरती का आयोजन करना एक खूब प्रचलित खेल बन गया है, किंतु गंगा की दुर्दशा में कोई परिवर्तन नहीं आया। सरकारें गंगा के नाम पर जम कर दुकानें चला रही हैं। केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय गंगा नदी प्राधिकरण बनाया और उत्तराखंड की पूर्ववर्ती सरकार ने निर्मल गंगा अभियान की दुकान चलाई। जिसमें विधायक निधियों का भी इस्तेमाल किया गया वो बात और है कि सारा पैसा किसी एक बांध के एक ठेके में समेट लिया होगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी गंगा खूब बिक रही है। विश्वबैंक ने राष्ट्रीय नदी गंगा प्राधिकरण में अरबों रुपये गंगा सफाई के लिये दिया और साथ में ही गंगा की सबसे बड़ी हत्यारी बांध कंपनी टीएचडीसी को अलकनंदागंगा पर बांध बनाने के लिए भी करोड़ों रुपये का उधार दिया है। गंगा सफाई का धंधा मजे का है। निर्मलता की आड़ में भी खाओ और तथाकथित विकास के नाम पर बांध बना कर भी खाओ।

आइए गंगा पर बांधों की स्थिति देखते हैं। गंगोत्री से नीचे भागीरथी गंगा पर पहला बांध पड़ता है मनेरीभाली चरण एक फिर चरण दो फिर विशालकाय टिहरी बांध, फिर कोटेश्वर बांध और फिर कोटलीभेल चरण एक ‘अ‘ जो कि निर्माणाधीन है। इसके बाद अलकनंदागंगा से देवप्रयाग में भागीरथी गंगा का संगम होता है। जहां से आगे वो सिर्फ गंगा के ही नाम से जानी जाती है। आध्यात्म और धार्मिक कथा जो भी हो गढ़वाल में एक लोककथा के अनुसार भागीरथीगंगा को बहु तथा अलकनंदागंगा को सास कहा गया है। सास गंगा में जल का 70 प्रतिशत तथा बहु 30 प्रतिशत प्रवाह करती है। इसलिए कथा यह भी कहती है कि सास बहु को दबा कर रखती है।

अलकनंदागंगा की प्रमुख सहायक गंगाओं पर भी बांधों की श्रृखलाएं हैं। स्वयं अलकनंदागंगा पर पहला निजी बांध विष्णुप्रयाग है जयप्रकाश इंडस्ट्री ने बनाया है। अनूपशहर का रहने वाला यह जयप्रकाश गौड़ परिवार टिहरी बांध से उपजा और फैला है। अलकनंदागंगा पर पहला प्रयाग विष्णुप्रयाग है जो कि धौलीगंगा और अलकनंदागंगा के संगम से बनता है। अब संगम बांध के नाम से ही जाना जा रहा है। इसके बाद एनटीपीसी तपोवन विष्णुगाड परियोजना बना रही है। फिर नीचे आएं तो टीएचडीसी विष्णुगाड पीपलकोटी परियोजना बनाना चाहती है। उसके नीचे उत्तराखंड जल विद्युत की दो परियोजनाएं विचारणीय है और फिर श्रीनगर में आंध्र की जीवीके कम्पनी 330 मेगावाट की परियोजना बना रही है। इसके बाद एनएचपीसी की कोटलीभेल चरण 1 ‘ब‘ और देव प्रयाग से नीचे कोटलीभेल चरण दो परियोजना जिसकी वन स्वीकृति अभी रुकी हुई है।

धौलीगंगा पर बांध बन रहे है, नई योजनाओं पर भी काम चालू है। नंदाकिनी प्यारी सी नन्ही सी गंगा है पर पूरी बंध ही गई है। मंदाकिनी के तो और भी बुरे हाल हुये है, लंबा संघर्ष चला, दमन भी खूब हुआ है। बस एकमात्र पिंडरगंगा पर अभी तक कोई बांध नही है। पर बांध तैयारी चल रही है। लोगों का संघर्ष भी जारी है। इन सब गंगाओं पर बांधों की कथाएं अलग-अलग है। लोग बांध के खिलाफ लड़ रहे है। जहां बांध बनने के समय चेतना नही थी वहां पर अब लोग खड़े हो रहे है। हां कहीं-कहीं पर प्रभावित बांध के पक्ष में भी खड़े हुए हैं और फिर भुगत रहे हैं। किंतु यह स्पष्ट है कि बांधों से कोई रोज़गार नहीं बढ़ा है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की स्वीकृतियों के अनुसार बांध कंपनियां ही अपनी रिपोर्ट बना कर भेज देती हैं। बाकी पर्यावरणीय और पुनर्वास के पक्ष की किसी शर्त का पालन होता है या नहीं इसकी कोई निगरानी नहीं। बस सरकारी कागजात के पुलिंदे बढ़ते जा रहे हैं।