Tuesday 18 August 2015

Press Note: 18-8-2015

श्रीनगर में जून 2013 की त्रासदी के लिये जी0वी0के0 कंपनी जिम्मेदार
   {English translation after Hindi}
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने 14 अगस्त 2015 को, उत्तराखंड में जी0वी0के0 कंपनी के श्रीनगर बांध के कारण जून 2013 आपदा में तबाह हुयी संपत्ति के मुआवजें के लिये ‘‘श्रीनगर बाँध आपदा संघर्ष समिति‘‘ और ‘‘माटू जनसंगठन‘‘ की याचिका पर सुनवाई की। इस याचिका को वकील रित्विक दत्ता व वकील राहुल चौधरी द्वारा दाखिल किया गया था। सुनवाई में एक दखल याचिकाकर्ता डॉ. भरत झुनझुनवाला ने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के माननीय न्यायाधीश यू0 डी0 साल्वी व माननीय विशेषज्ञ सदस्य ए0 आर0 यूसुफ के सामने अपना पक्ष रखा। 2014 से दाखिल इस याचिका मंे 17 तारिख हो चुकि है।
ज्ञातव्य है कि जून 2013 में आपदा के समय श्रीनगर बांध में बिजली पैदा ना होने के बावजूद पहले जी0 वी0 के0 कम्पनी ने पानी भरा ताकि प्रसिद्ध धारी देवी मंदिर को डुबाया जा सके। फिर बाद में बांध को टूटने से बचाने के लिये, के द्वारा आनन-फानन में, नदी तट पर रहने वालों को बिना किसी चेतावनी के दिये बांध के गेटों को पूरा खोल दिया। जिससे जलाशय का पानी प्रबल वेग से नीचे की ओर बहा। जिसमंे जी0 वी0 के0 कम्पनी द्वारा नदी के तीन तटों पर डम्प की गई मक बही। इससे नदी की मारक क्षमता विनाशकारी बन गई। जिससे श्रीनगर शहर के शक्तिबिहार, लोअर भक्तियाना, चौहान मौहल्ला, गैस गोदाम, खाद्यान्न गोदाम, एस0एस0बी0, आई0टी0आई0, रेशम फार्म, रोडवेज बस अड्डा, नर्सरी रोड, अलकेश्वर मंदिर, ग्राम सभा उफल्डा के फतेहपुर रेती, श्रीयंत्र टापू रिसोर्ट आदि स्थानों की सरकारी, अर्द्धसरकारी, व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक सम्पत्तियंा बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हुई।
डॉ. भरत झुनझुनवाला ने अपना पक्ष रखते हुये कहा की बाँध कंपनी ने विभिन्न स्थानो से मक (बाँध का मलबा) उठाकर जहाँ बाढ़ आई है उस क्षेत्र के पास ही जमा कर दिया था और मक के कारण बाड़ का स्तर पूर्व की तुलना मे कम बारिश आने पर भी तबाही आईं उन्होने आगे कहा की मई 2013 मे पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है की मक संभालने का काम नही किया गया जिसके कारण बाढ़ के साथ मक पानी में बही। पर्यावरणीय शर्ताे के अनुसार जहाँ भी मक डाली जाती है वहाँ सुरक्षा दीवार व मक पर पेड़ लगाना, जाली लगाना किया जाना चाहिए। मगर बरसों से नदी किनारे मक रखी गई पर फिर भी उस पर पेड़ नही लगाए गये जिससे की मक जम जाती और पानी के साथ ना बहती।
प्रमुख मुद्दा यह भी है की राज्य सरकार ने अभी तक बाढ़ क्षेत्र की परिभाषा नही तय की जिस कारण से वो नदी के उपर किसी भी स्तर को बाढ़ स्तर मे शामिल कर सकती है। उन्होने जी.वी.के. कंपनी द्वारा दिए गए कागज़ातो से भी सिद्ध किया की जी.वी.के. कंपनी की ग़लती से ही नदी का जल स्तर उंचा उठा। सभी तर्काे के साथ विभिन्न अदालती आदेशो का हवाला भी दिया गया।
उत्तराखंड सरकार के वकील ने अपना पक्ष रखते हुये पहले तो यह सिद्ध करने की कोशिश की कि यह मुक़दमा सुनने लायक ही नही क्यूंकी यह ईश्वरीय कारणांे से हुआ है और इसमंे जी.वी.के. कंपनी का कोई दोष नही है। उस समय बहुत तेज बाढ़ आई थी। हम उत्तराखंड राज्य से है और हमारे पास सभी आँकड़े है।
जी.वी.के. कंपनी के वकील वरिष्ठ अधिवक्ता श्री लाहोटी ने कहा की व इन सभी तर्काे पर कंपनी से बात करके प्राधिकरण के समक्ष अपना पक्ष रखेगे। प्राधिकरण की पीठ ने 25 अगस्त को आगे की सुनवाई के लिये तारिख रखी है।
विमलभाई

GVK Company was responsible for June 2013 Disaster in Srinagar
On 14th August, 2015, The National Green Tribunal heard the petition filed by “Srinagar Bandh Aapda Sangharsh Samiti” and “Matu Jansangathan” for the compensation against the destruction and damage happened during the June, 2013 disaster from Srinagar Dam of GVK Company in Uttarakhand. Filed with Adv. Ritwik Dutta and Rahul Chowdhary. This was the 17 date of the case in NGT. Case heard by HON’BLE MR. JUSTICE U.D. SALVI, JUDICIAL MEMBER and HON’BLE PROF. A.R. YOUSUF, EXPERT MEMBER
We know that during June, 2013 disaster, GVK Company had filled the dam reservoir uselessly when no electricity was being generated, purposefully to drown the famous Dhaari Devi temple. Thereafter, when it got filled completely, they opened the gates of dam in haste to prevent it from any unexpected damage without even giving any warning to the villagers living nearby to river stream.
Dr. Bharat Jhunjhunwala has said in his defence that the Dam company was carried the muck from different places and piled up in the flood area which made the area more vulnerable to the flood even after less rain than previous year and resulted in disaster. The May, 2013 report of MoEF&CC is also showing that muck was not been handled which caused them to flown away with the streams during flood. According to the environmental conditions, there should be safety wall, plantation, and safety net on the muck kept. But the muck, which was kept for years near the river stream, was neither protected by safety walls and safety net, nor was any plant planted, which can prevent the muck from getting drained with river streams.
The important issue is also about the definition of Flood Plain which has not been fixed by the state government yet and due to which they can include any level above the river as reference of Flood Plain. It has been proved through the documents provided by the GVK Company that the water level of the river was risen only because of the mistakes of company. With all arguments, Court orders were also provided in this context.
The lawyer of defence of Uttarakhand Government, while putting arguments in his defence, tried to prove that the case is irrelevant and happened because of natural disaster which makes the GVK Company not guilty. At that time, a rapid flood was come. We belong to Uttarakhand state and have all the evidences.
The senior advocate of GVK Company, Shri Lahoti said that he will put his defence after talking with the company on all these arguments. The bench of tribunal has fixed the date of 25th August for further proceedings.
Vimalbhai

Sunday 16 August 2015

Press Note 17-8-2015


35 साल बाद भी पुनर्वास सुविधायें नही

राज्य सरकार भी अपने स्तर पर पूरा कर सकती है

 
{English translation after Hindi}
टिहरी बांध पूरा होने के 10 साल पर टिहरी बांध विस्थापितों ने राज्य सरकार को कटघरें में खड़ा किया। लोग लगातार राज्य सरकार को अपनी समस्याओं पर पत्र लिख रहे है कि राज्य सरकार भी अपने स्तर पर समस्याओं का कुछ समाधान कर ही सकती है। माटू जनसंगठन के साथ लोगो ने अभी फिर मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर कहा है कि हरिद्वार के पथरी भाग 1, 2, 3 4 में टिहरी ग्रामीण क्षेत्र से 1979 से विस्थापितों को भेजा जा रहा है। जहंा लगभग 40 से ज्यादा गांवो के लोगो को पुनर्वासित किया गया है। किन्तु जो मूलभूत सामुदायिक सुविधायें अधिकार रुप में पुनर्वास के साथ ही मिलनी चाहिये थी उनको लोग आज 35 वर्षाे बाद भी सरकार से मांग रहे है। किन्तु इस बारे में आज तक कोई सुनवाई नही हुई है। जिसके कारण लोगो का जीवन दुष्कर हो गया है।
  • यहंा के सभी विस्थापितों को भूमिधर अधिकार भी नही मिल पाया है। जिसके बिना कृषि संबधी कोई सुविधा जैसे किसान क्रेडिट कार्ड, उर्वरकों में छूट आदि नही मिल पाती है। लोग बैंक लोन आदि किसी प्रकार की जमानत भी नही ले सकते। कोई गारंटी नही दे सकते। निवासी होने का प्रमाण तक नही है।
  • पिछले 35 वर्षो में लगभग 24,000 की विस्थापितों की आबादी के लिये निम्नतम सुविधा तक नही है। प्राथमिक चिकित्सा, जच्चा-बच्चा केन्द्र आदि भी नही है।
  • 35 सालों में बहुत ही कठिनाई से 10वीं कक्षा तक के स्कूल की व्यवस्था हो पाई। किन्तु इसके बाद की शिक्षा का कोई प्रबंध नही है।
  • मात्र भाग एक में को-आपरेटिव सोसाईटी का बैंक है तथा 34 सालों के बाद दिसंबर 2013 में भाग एक में ही अब इंडियन ओवरसीज़ बैंक खुल पाया है।
  • यातायात की कोई सरकारी व्यवस्था तक नही है।
  • 35 सालों में डाकघर तक नही मिल पाया है तो उससे जुड़ी कोई सुविधा भी नही मिल पा रही है। जबकि भवन मौजूद है।
  • जंगली जानवरों से खेतों की सुरक्षा हेतु, कोई सुरक्षा दिवार नही बनी है। जिससे जानवर फसलों को लगातार नुकसान पहुंचा रहे है।
  • नीति के अनुसार बिजली मुफ्त मिलनी चाहिये थी। किन्तु दाम देने पर भी बिजली की सुचारु व्यवस्था नही है। जब श्री सुशील कुमार शिदें उर्जा मंत्री थे तो उन्होने टिहरी के एक कार्यक्रम में प्रति विस्थापित व प्रभावित परिवारों को 100 यूनिट बिजली देने की घोषणा की थी।
  • पेयजल व सिंचाई के लिये विस्थापितों ने ज्यादातर अपनी व्यवस्था की है। सिंचाई के लिये बरसों की मांग के बावजूद हमें पास बहती गंगनहर से सिंचाई का पानी नही मिल पाया है। मंदिर, पितृकुटटी, सड़क, गुल आदि की सुविधायें 35 सालों बाद भी व्यवस्थित रुप में नही मिल पाई है।
यह दुखद स्थिति है।
राज्य सरकार को भी टिहरी बांध से मिलने वाली मुफ्त बिजली से जो प्रतिदिन आमदनी हो रही है उसे टिहरी बांध विस्थापितों के लिये खर्च करना चाहिये। ऊर्जा मंत्रालय की ‘‘पनबिजली परियोजनाओं के विकास की दिशा निर्देश‘‘ 23 मई 2006 के अनुरूप है जिसमें पेज न0 10 पर लिखा है कि बांध से दी जाने वाली मुफ्त बिजली की आमदनी को बांध विस्थापितों पर खर्च किया जाये। नीति का संबधित हिस्साः-
2.3 भारत के गृह राज्य सरकार को 12ः मुफ्त बिजली का प्रावधान है, दिनांक 17 मई, 1989 के कार्यालय ज्ञापन के अनुसार, मंजूरी दी जाती है क्योंकि गृह राज्य को पनबिजली परियोजनाओं में विस्थापितों के पुनर्वास के लिए वैकल्पिक भूमि और संसाधनों का इंतजाम करने में काफी परेशानी होती है”। राज्य सरकारों को जल विद्युत परियोजनाओं से प्रभावित क्षेत्रों में पुनर्वास की समस्याओं का ध्यान रखने के लिए, उन्हें सक्षम करने के लिए, इस तरह के (प्रस्तावित) 12ः मुफ्त बिजली प्रोत्साहन के रूप में देने के द्वारा सहायता प्रदान करने की आवश्यकता है।
इस तरह की सहायता और प्रोत्साहन के बिना देश की काफी पनबिजली क्षमता अप्रयुक्त रह जायेगी। तदनुसार, राज्य सरकार, भारत नीति के अनुसार वहाँ के स्थानीय क्षेत्र के विकास और पनबिजली परियोजनाओं के विकास की दिशा निर्देश से होने वाले प्रभावित लोगों को होने वाली कठिनाईयों को कम करने के लिए, परियोजना से 12ः मुफ्त बिजली प्राप्त करने के अधिकारी है।
{किसी भी विवाद स्थिति में अंग्रेजी अनुवाद, अंग्रेजी वाले प्रैस नोट में देखा जा सकता है।}
जलविद्युत नीति 2008 के अनुसार स्थानीय क्षेत्र विकास कोष में इस उद्देश्य से दिया जायेगा ताकि अतिरिक्त ढ़ाचा और सामूहिक सुविधाओं के लिये लगातार आय होती रहे।
पथरी भाग 1, 2, 3 4 हरिद्वार के ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले टिहरी बांध विस्थापितों के 35 वर्षाे से लंबित कार्यो के निपटान के लिये इस राशि का उपयोग करना चाहिये। हम लगातार सरकार से यह मांग विभिन्न समयों पर उठाते आ रहे है।
इन परिस्थितियों में हमारी मांग है किः-
  • विस्थापितों को मूलगांव जैसा ‘‘संक्रमणी जैड ए श्रेणी क‘‘ का भूमिधर अधिकार तुरंत दिया जाये। यदि वन भूमि की समस्या है तो इस बारे में आप केंद्रीय पर्यावरण एंव वन मंत्रालय से स्वंय बात करें और विस्थापितों को भूमि अधिकार दिलायें।
  • सभी ग्रामीण पुनर्वास स्थलों को तुरंत ही राजस्व ग्राम भी घोषित किया जाये।
  • ऊर्जा मंत्रालय की नीति के अनुसार विस्थापितों को मुफ्त बिजली दिये जाने के प्रावधान को लागू करें। इस विषय में केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय से बात करें।
  • शिक्षा, स्वाथ्यय, यातायात, सिंचाई व पेयजल और अन्य मूलभूत सुविधायें तुरंत पूरी की जाये। इन कार्यो के लिये टिहरी बांध परियोजना से, जिसमें कोटेश्वर बांध भी आता है, मिलने वाली 12 प्रतिशत मुफ्त बिजली के पैसे का उपयोग किया जाये।
  • सभी कार्यों के लिये विस्थापितों की ही समितियंा बनाकर काम दिया जाये ताकि कार्य की गुणवत्ता बने और सही निगरानी भी हो सके।
  • चूंकि विस्थापन और पिछले 34 सालों से इन सुविधाओं के ना मिलने के कारण यह क्षेत्र सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक रुप बहुत पिछड़ गया है। इसलिये टिहरी बांध के ग्र्रामीण पुनर्वास स्थलों पथरी भाग 1, 2, 3 4 हरिद्वार को पिछड़ा क्षेत्र घोषित किया जाये।
इस कार्य को केन्द्र व राज्य सरकारे मिलकर करे। नये बांधों को बनाने से पहले कार्यरत बांधों के विस्थापन-पर्यावरण की समस्याओं का निदान आवश्यक व न्याय की मांग है। 
 
विमलभाई,                पूरण सिंह राणा,             आशा डोभाल,            बलवंत सिंह पंवार

Even after 35 years civic amenities not completed
State government can do from its resources

After the 10 years of commissioning the Tehri Dam, oustees put question on state government. People are continuously sending letters regarding their problems to State Government. People along with Matu Jansangathan sent a letter to Chief Minister requesting that many of the problems can be solved at the level of state Government.
The displaced of Tehri Dam HEP are being sent to Pathri part 1,2,3,4 at Haridwar, in the name of rehabilitation since 1979. Around 40 villages are set up at this place.
Oustees should have been provided basic amenities along with the rehabilitation but we’ve been asking the government for past 35 years for the same. None of the governments paid heed to our requests and because of this we still live in utter distress.
  • The oustees have not yet got their land rights in the displaced land. Because of this we cannot avail any government facility like farmer’s ration card, subsidies etc. We cannot even apply for bank loans, we have no property to show. We do not even have documents to show that we live here.
  • In past 35 years, around 24,000 displaced people live here with no health facility. Even basic Health centres and child care centers are not available.
  • After a lot of efforts, we’ve been able to have schools till 10th class but there is no availability of education after that.
  • Only part 1 had one bank cooperative society. After 35 years, in September 2013, another Indian Overseas Bank opened, again in Part 1 only.
  • There is no transport facility by the government provided at all.
  • Since past 35 years, oustees have still not been provided with post office and hence can not avail any of its services although the building is there for it to function.
  • There is no protection wall to protect agricultural farms and because of it wild animals continuously harm crops and farms.
  • According to the policy of Ministry of Power, oustees should have been provided free electricity but even after paying we do not have adequate supply of electricity. When Shri Sushil Kumar Shinde were the Power Minister, he announced 100 units of free electricity to the people displaced because of Tehri HEP.
  • For drinking water and irrigation people have done their means for it. Even after flowing Ganga nearby, facility of irrigation for the farms has not yet been provided, even when the water is coming only after drowning our very villages.
  • Temple, Roads and other basic amenities are still missing after 35 years of displacement.
It is extremely sad situation.
The electricity is regularly produced at Tehri HEP and the state government is earning regular revenues out of it. The total revenue must be more than thousand crores till date.
The state government should utilize the money, getting form generated from electricity generation from Tehri HEP should be used for the displaced people of the project. The energy ministry’s guideline in “Guidelines for development of Hydro Electric Projects Sites" 23 May 2006 speaks of the same fact that 12% free power should be used for developmental facilities for the displaced population. The concerned paragraph is:
2.3 Provision of 12% free power to the home state Government of India, vide its O.M. dated 17th May, 1989 have approved that “since the Home States are increasingly finding it difficult to locate alternative land and resources for rehabilitation of the oustees in hydro-electric projects. They, need to be suitably assisted by giving incentives, such as the (proposed) 12% free power, to enable them to take care of the problems of rehabilitation in the areas affected by the hydro-electric projects.
Without such assistance and incentives, considerable hydel potential of the country would remain unutilized. Accordingly, the State Government shall be entitled to realize 12% free power from the project for local area development and mitigation of Guidelines for development of Hydro Electric Projects Sites hardships to the project affected people in line with the Govt. of India policy”.
Also according to Hydro power Policy, 2008, under the chapter “Salient Features of New Hydro power Policy”
10.1 (h) An additional 1% free power from the project would be provided and earmarked for a Local Area Development Fund, aimed at providing a regular stream of revenue for income generation and welfare schemes, creation of additional infrastructure and common facilities etc.
This money should be utilized to provide amenities that have remained pending for the displaced people in Pathri Bhaag 1,2,3,4, Haridwar.
Thus we demand that:
  • The displaced should get the land rights in an immediate manner. The rights should be as mentioned in “Sankramani Z a category K” (‘‘संक्रमणी जैड ए श्रेणी क‘‘). If there is an issue of forest land, the state government needs to deal it with center and the forest department itself but the land rights to the people need to be immediately given.
  • All the displaced rural locations should be declared “Revenue” villages immediately.
  • According to the guidelines of the Energy Ministry, free electricity should be provided to these villages and central government should be approached if needed for its quick application.
  • Education, health, transport, irrigation and drinking facilities should be immediately provided to these villages. For its expenses, 12% free electricity from Tehri HEP in which Koteshwar Dam also comes should be utilized.
  • For all these works, associations of the displaced should only be assigned the responsibility for quality management and better surveillance.
  • Because of displacement and 35 years of unavailability of basic amenities, we’ve remained backward socially, politically, economically and educationally. Therefore, Pathri Part 1,2,3,4 should be declared backward regions constitutionally.
The state and central government should together work to accomplish these work. Before making dams, there is a need to regulate the displacement, rehabilitation and environmental concerns of the old projects. This is the demand of justice.

Vimalbhai,  Puran Singh Rana,  Asha Dobhal, Balwant Singh Panwar


Monday 10 August 2015

हरियाली जरूरी है

Author: 
विमल भाई
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हमारी जीवन पद्धति व सरकारी नीतियाँ केन्द्रित व्यवस्था को ही बढ़ावा दे रही हैं। जिसके कारण हम आत्मकेन्द्रित होते जा रहे हैं। नतीजा है कि हम अपने से ज्यादा कुछ ना सोच पा रहे हैं ना ही धरती के पर्यावरण के लिये जो कुछ बहुत आसानी से भी किया जा सकता है वो भी नहीं कर पा रहे हैं।

हमने धरती को खोद-खोदकर खनिजों के अम्बार उसकी छाती पर खड़े कर दिये हैं। जिससे ना केवल धरती को खुद भी साँस लेना दूभर हो रहा है। उसका ओजोन आवरण भी छिद्रों वाला होता जा रहा है।

धरती की हरी चादर कमतर होती जा रही है। या फिर बाजार के अनुसार बनाई जा रही है। जो पेड़ शहरी सभ्यता को पोषित करते हैं उनको बढ़ावा दिया जा रहा है। किन्तु धरती के जीवन की रक्षा करने का सोच समाप्त होता जा रहा है।

आज हमारा भोजन अत्यन्त जहरीला हो चुका है जिसका कारण हमारी जीवन पद्धति ही है। केन्द्रित जीवन और केन्द्रित फ्लैट व्यवस्था में रहने वाला समाज अपने छोटे दायरे से बाहर भी नहीं निकल पाता और दूसरी तरफ उस उच्च और मध्यम वर्ग की सेवा मे रत निर्धन समाज मात्र ‘भोजन-आवास’ चाहे जैसा मिल जाये, उसके लिये संघर्षरत है।

स्वास्थ्य सेवाओं की शिक्षा की तो बात ही दूर है। ऐसे में पर्यावरण संरक्षण की शिक्षा उन्हें देना अजीब लगेगा। किन्तु यह उनके लिये शायद ज्यादा जरूरी है चूँकि वे साधन हीन हैं।

5 जून को संसार भर में विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। इस दिन हम सभी को यह प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि जहाँ भी जगह होगी हम वृक्षों को लगाएँगे।

पीपल, बड़, नीम, सागौन, अर्जुन, बेहड़ा, आँवला, बेल, अमरुद, नींबू, भीमल, अमरुद, कटहल, जामुन और सब चौड़ी पत्ती के पेड़ इसके और धरती के सब जीवों के जीवन रक्षा आधार है। धरती के भिन्न स्थानों पर भिन्न जाति-प्रजाति के वृक्ष-पौधे-लताएँ लुटती-मरती धरती को प्राण देने का काम कर सकते हैं। शहरों में जलस्तर तेजी से नीचे जा रहा है। पेड़ों के लगाने से पानी भी धरती में जाएगा।

बेल, नींबू, आँवला, अमरुद व पपीता इस स्वास्थ्यरक्षक पंचवटी के साथ यदि केला और पौधों में पोदीना, तुलसी, एलोविरा तथा गिलॉय की बेल जोड़ ले तो सोने पर सुहागा हो जाता है। यह सब बहुत ही कम स्थान लेने वाले होते हैं। सड़कों के किनारे, मध्यमवर्गीय सोसायटियों में यहाँ तक की फ्लैटों की बालकनी का भी सदुपयोग हो सकता है।

यहाँ यह भी बता दूँ कि देखने में यह आया है कि इन आवासीय सोसायटियों में ज्यादातर पहले तो सीमेंट बिछा दी जाती है फिर गमलों में खूबसूरत दिखने वाले पौधों को रख दिया जाता है। जिनमें बार-बार पानी देने की जरूरत होती है। यदि रसोई के पानी को थोड़ा सा फिल्टर करके कच्ची ज़मीन में लगे पौधों की सिंचाई की जाये तो चार तरह के फायदे होंगे।

पहला गन्दे पानी की मात्रा कम हो जाएगी, दूसरा धरती को भी पानी मिलेगा, तीसरा पौधों के लिये अलग से पानी नहीं लेना पड़ेगा और चौथा की दवाईयों का खर्चा कम होगा स्वास्थ्यरक्षण होगा। इस काम के लिये कोई अलग से खर्चा नहीं होगा वरन् लोगों का खर्चा कम होकर आमदनी ही बढ़ेगी।

यदि शहरों के चौराहों के बीच बने छोटे-छोटे गोलपार्कों में चौड़ी पत्ती के पेड़ किनारों पर और बीच में यह फलदार पंचवटियों का निर्माण कर दिया जाये तो वाहनों से निकलने वाला प्रदूषण तो कम होगा ही साथ में ये लाभप्रद फल भी सरकारी मालियों को अतिरिक्त लाभ में दिये जा सकते हैं। जरूरत सिर्फ यह है कि आजकल प्रचलन में आये सीमेंट व प्लास्टिक के पेड़ों को सुन्दरता का चेहरा ना माना जाये और इस प्रकार की बड़ी सोच को लिया जाये।

आज की सरकार स्वच्छ भारत अभियान चला रही है। उसके फूहड़पन का एक उदाहरण है। उत्तराखण्ड के सुदूर पहाड़ी इलाकों में टिहरी बाँध निर्माण कम्पनी टी.एच.डी.सी. शौचालयों का ‘कम्पनी सामाजिक दायित्व’ के पैसे से मरम्मत करवा रही है। इस मरम्मत के कार्य पर प्रतिदिन कड़ी निगरानी रखी जा रही है।

रोज शाम को व्हाट्सएप पर किये गए कार्य का चित्र कम्पनी इकट्ठा करती है और केन्द्र सरकार को भेजती है। फिर चाहे शौचालयों में पानी हो या ना हो। चूँकि पहाड़ में भी पानी का संकट है। बावजूद इसके की पहाड़ का पानी शहरों के शौचालयों तक की जल ज़रूरतों को पूरा करता है। यहाँ यह बात बतानी है कि टिहरी बाँध के सन्दर्भ में 2003 की वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार लगभग नौ हजार हेक्टेयर जंगल फेल था और लगभग आठ हजार हेक्टेयर जंगल सही नहीं लगा पाई थी।

हम बाँध पर यहाँ कोई चर्चा नहीं कर रहे हैं किन्तु जैसे शौचालय मरम्मत के लिये सरकारी व टी.एच.डी.सी. की निगरानी हो रही है काश वो जंगल लगाने के लिये भी हो जाती तो आज बाँध में पानी से होड़ लेते रेत के मैदान ना बनते। कैसे स्वयं ही उगने वाले पहाड़ के दुश्मन पेड़ चीड़ को जलसंग्रहण क्षेत्र संरक्षण के लिये लगाए गए पेड़ बताकर पहाड़ का सत्यानाश कर दिया गया। गर्मियों में आग फैलाते और किसी भी तरह के अन्य पेड़ो को ना पैदा होने देने वाले चीड़ के पेड़ उत्तराखण्ड के पहाड़ों को तेजी से ढँकते जा रहे हैं।

जरूरत है कि योजनाबद्ध रूप से चीड़ को काटा जाये और वहाँ स्थानीय लोगों को जिम्मेदार बनाकर बांज, बुरांस, भीमल जैसे मिट्टी-पानी को बाँधने वाले व चारा देने वाले पेड़ व पहाड़ी फलों के पेड़ आदि लगाए जाएँ। इसके लिये मात्र एक राजनैतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है जो स्वच्छ भारत के ढिंढोरा ज्यादा कारगार सिद्ध होगा।

हमारी शिक्षा व्यवस्था में पेड़-पौधों-लताओं के बारे में आवश्यक रूप से शिक्षण होना चाहिए। कौन से पेड़-पौधे-लताएँ कब कहाँ कैसे उगाए जा सकते हैं। उनके लाभ-हानि व हर तरह के उपयोग का शिक्षण होना चाहिए। ताकि हर बच्चा आरम्भ से ही धरती का रक्षक व अपने स्वास्थ्य के रक्षण के बारे में समझ रखें। यह मात्र सरकारी वन विभाग या शहरों के उद्यान विभाग का ही कार्य ना होना चाहिए। शिक्षकों की भूमिका इसमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण हो जाती है।

धरती के संरक्षण के लिये सफल परिणाम के लिये कटिबद्ध सरकारी नीतियाँ तो चाहिए ही साथ ही इस कार्य को एक जनआन्दोलन बनाने के लिये जन जागृति और जन संगठन भी चाहिए।