Sunday 14 July 2013

प्रैस नोटः-14 जुलाई 2013

          जनांदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय
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उर्जा की चमक दिखाकर उत्तराखंड को अंधेरे में धकेलना अपराध है।
आतंक प्रकृति का कम, शासक निर्मित अधिक! जरूरी है सही नेतृत्व

(जनआंदोलनों का राष्ट्रीय समंवय (एन0ए0पी0एम0) की ओर से गंगा घाटी में दौरा करने के बाद)

उत्तराखंड ‘देवभूमि‘ को जो तबाही भुगतनी पड़ी है उसकी नींव में जाकर कारण मीमंासा करने वाले किसी को भी विकास के नाम पर हो रही प्राकृतिक के साथ खिलवाड़ और छेड़छाड़ समझे बिना कोई निष्कर्ष निकालना संभव नहीं है।

अपना सबकुछ खो चुके, अलकनंदा के किनारे के, श्रीनगर हो या गोविंदघाट-जोशीमठ के परिवारों ने, न केवल भाई किन्तु बहनों ने भी बताई हमें कहानी कि कैसे बांध परियोजनाओं के लिये बनाई गई सुरंग या बैराजों ने और उसके लिए हो रहे ब्लास्ंिटग और पहाड़ी चट्टान खदाई ने तथा इन निर्माणकार्यो से निकलता मलबा सीधे अलकनंदा-भागीरथी या किसी छोटी-बड़ी उपनदी में फेंकने से और हिमालय से आयी मुलायम गाद से भरकर नदीतल उंचा उठता जा रहा है। इसमें हिमालय से ग्लेशियर के पिघलकर आगे पानी को कई सारे बांधों में पानी होकर छोड़ने से पानी की मात्रा दुगुनी चैगुनी होकर तूफानी बाढ़ आई है।

हिमालय घाटी में एक नहीं, 70 बड़ी जलविद्युत परियोंजनाओं में भागीरथी और अलकनंदा व उसकी सहायक नदियों को एक इंच भी पर्यावरणीय प्रवाह के रूप में न छोड़ना अवैज्ञानिक तो है ही बल्कि नदी को नाले में परिवर्तित करना है इनमें नदी को बांधना चाहने वाली सरकार ने न ही अेकेक परियोजना का पूरा पर्यावरणीय असर अध्ययन किया है। न ही जंगल तथा खेतीपर इन सभी परियोजनाओं के अेकत्रित असर का। जो परियोजनाएं 25 मेगावाट से कम क्षमता की है उनके लिए पर्यावरणीय कानून के तहत् पर्यावरण प्रभाव आंकलन और पर्यावरण प्रबंध योजना भी जरूरी ही नहीं है। यह सब हिमालय की घाटियों से निकली नदियों के लिए बिल्कुल असमर्थनीय है।

माटू जनसंगठन जैसे कानूनी निगरानी एवम् उत्तराखंड की पहाड़ी मेहनतकश जनता के हकों की रक्षा करने में लगे संगठनों ने इन परियोजनाओं पर यहां के लोगों का आक्रोश उजागर किया तो इन जनतांत्रिक, जनवादी विकास के समर्थकों को विकास विरोधी घोषित करने से उन्हीके खिलाफ अपराधी प्रकरण दखिल करने का काम कभी शासन ने कभी ठेकेदारों ने किया। लेकिन पिछले सालों में, गये साल भी और इस साल विशेषतः इनमें से कई जलविद्युत परियोजनाओं पर गंभीर असर हुआ है तथा इन बांधों की सुरंगांे का असर नदी का प्रवाह मोड़ने के, नदी में प्राकृतिक के साथ बांध निर्मित (पानी छोड़ने से) बाढ़ लाने के कारण गाद और मलबा बहाने के कारण मंदाकिनी-अलकनंदा-भागीरथी सहित कई नदी घाटियों में हाहाकर मचाया है। विष्णुप्रयाग परियोजना में जेपी कंपनी ने अपने टरबाईन्स बचाये किन्तु लेकिन गोविंदघाट, पाण्डुकेशर, लाम्बगड़, पिलोना आदि गांवों के घर, होटेल्स, पुल और काॅफी कुछ खेती आदि ध्वस्त कर दिए। बद्रीनाथ व हेमकुंड साहेब के यात्रियों की सैंकड़ों गाडि़यां तक बह गई। साथ ही स्थानीय परिवार हजारों खच्चरों पर, पर्यटन पर जीनेवाले परिवार बेघर बेरोजगार हो गये।

19 छोटी परियोंजनाऐं, अस्सीगंगा की तीन, धौली गंगा पर बनी परियोजना का बड़ा हिस्सा बर्बाद हुआ। विष्णुप्रयाग योजना का बैराज टूट गया। श्रीनगर परियोजना (330 मेगावाट), मनेरीभाली चरण-2, फाटा ब्योंग, सिंगोली-भटवाड़ी आदि जलविद्युत परियोजनाऐं स्वंय प्रभावित हुई और इनसे पर्यावरण और लोगो की बड़ी हानि भी हुई। इसके लिये बांध कंपनियों को जिम्मेदार ठहराना जरूरी है।

एशियाई विकास बैंक की बड़ी सहायता उत्तराखंड के उर्जा क्षेत्र को मिलने पर; उत्तराखंड राज्य बनाने के लिए संघर्ष में रहे लारवों लोगो का सपना ही नहीं, सत्ता से जुड़े नेता, अधिकारी, तंत्रज्ञ, सरकार, कंपनियों की चमकधमक की चाहत ‘उर्जा प्रदेश‘ में प्रतिबिंबित हुई है। इसी का असर आपदा के रूप में आया है। इस बार टिहरी बांध में कुछ पानी समाया लेकिन इसी साल अगली बाढ़ आने पर क्या होगा? इसका जवाब प्रकृति ही दे सकेगी।

देश के 4600 बांधों में आपदा प्रबंध योजना नहीं बनी हैं।                     
देश में एक भी नदी घाटी में निगरानी की योजना नहीं बनी है। यही स्थिति गंगा-भागीरथी-अलकनंदा में और नर्मदा में भी है। साथ ही उत्तराखंड की उर्जा की जरूरत नहीं, तो दिल्ली सहित शहरों- कंपनियों की प्राथमिकता और जरूरत के लिये उत्तराखंड के पहाड़-जंगल-खेती और नदियांे की शोषण करे, यह अन्याय है। उत्तर पर्व भारत में भी इसी प्रकार के अन्याय के खिलाफ संघर्ष जारी है।                              

इस आपदा के बाद जरूरी हैः-                                                                 

1. उत्तराखंड की विकास अवधारण पर संपूर्ण पुनर्विचार करना।                                             
2. उर्जा के प्राकृतिक स्रोतों का विकास सही तकनीक से करना।                                            
3. नदियों को बांधना रोककर, आज तक की योजनाओं के असर और आपदा में योगदान की पूरी जांच।  
4. गंगा, भागीरथी, अलकनंदा घाटियों को संवेदनशील क्षेत्र घोषित करना।                                        
5 उत्तराख्ंाड में वन अधिकार कानून के साथ, विकेंद्रित विकास नियोजन की दिशा में, गांव सभाओं के प्रधिकार को केंद्र में रखकर स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों का विकास करना।
6. विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक जैसी विदेशी सहायता को दूर रखना।                                7. स्थानीय तरीके से रोजगार निर्माण।                                                                        
8. पर्यटन और यात्रा पर जीविका पानेे व लोगों को पुनर्वास में जब तक यात्राऐं शुरू नहीं होती तबतक आर्थिक सुरक्षा की योजना केवल परिवारवाद नहीं गांववाद बनाना।                                        
9. राहत में न केवल आज ध्वस्त हुए किन्तु आने वाले दिनों में ध्वस्त होंगे ऐसे मकान खेती व्यवसाय वाले परिवारों को सम्मलित करना।
10. प्रभावित मकानों आदि के ढ़ाचागत स्थायित्व का अध्ययन करना।

इस सबके लिए जरूरी है अस्सल देसी, उत्तराखंडीय नेतृत्व।

-उत्तराखंड के लिए लड़े हुए साथियों ने इसी वक्त डोर सम्हालना जरूरी है। 
-उत्तराखंड की विकास-दिशा व नियोजन पर त्वरित चर्चा-बहस श्रमजीवी तथा बुद्धिजीवीयों में भी होना। 
-पर्यटन विकास भी प्राकृतिक संपदा की रक्षा के साथ संस्था और मात्रा पर अंकुश रखकर, यात्रा करू एंवम् -स्थानिय प्रवृति का ख्याल रखने की क्षमता के अनुरूप ही होना।                                          
-राहत में लगे गैर सरकारी संगठन संस्थाओं में समन्वय के साथ उनकी निगरानी और राहत-पुनर्वास के नियमों का भी ग्राम स्तरीय कार्य के रूप में ही होना।                                                 
-क्या इसके लिए जरूरी नहीं है कि उत्तराखंड का नेतृत्व (राजनीतिक) भी सही जनवादी प्रकृतिप्रेमी-पूंजीवाद-भ्रष्टाचार से मुक्त व्यक्ति और समूह के हाथ में सौंपा जाये?

जनजन से यह सवाल उठना जरूरी है! तत्काल! 

मेधा पाटकर (नर्मदा बचाओं आंदोलन व एन0ए0पी0एम0) विमलभाई एंव पूरण सिंह राणा (माटू जनसंगठन व एन0ए0पी0एम0)  आशुतोष सेन, प्रीती वर्मा, विजय कश्मकर, युवराज गटकल  (नर्मदा बचाओं आंदोलन)



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