Tuesday 12 March 2013

प्रैस विज्ञप्तिः 12 मार्च 2013

टिहरी बांध प्रभावितों की नई सम्पशार्विक नीति पुराने अनुभवो के आधार पर बने

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने श्री एन. डी. जुयाल व शेखर सिंह बनाम भारत सरकार और दूसरे चल रहे  मुकद्दमों में 5 मार्च 2013 को दिये गये आदेश में कहा है कि राज्य सरकार के पुनर्वास निदेशालय के अधिकारी व टीएचडीसी के अधिकारी राज्य उर्जा सचिव की अध्यक्षता में बैठें और सम्पाशर््िवक नीति में उठ रहे मतभेदों को दूर करें ताकि टिहरी जलाशय के चारों तरफ भिलंगना व भागीरथी घाटी में जलाशय के कारण हो रही क्षति से प्रभावित व्यक्ति/परिवारों का समुचित पुनर्वास हो सके।

19-10-2010 को राज्य सरकार की समिति ने स्थलीय निरीक्षण किया और उसके बाद माननीय सर्वोच्च न्यायालय के 30 जनवरी 2013 के आदेश के बाद 14 जनवरी को सम्पाशर््िवक नीति अधिसूचित हुई। अधिसूचना में जमीनी सच्चाईयों का पूरी तरह अभाव है। टिहरी और कोटेश्वर बांधों के जलाशय की डूब से हुये विस्थापित लोगों की पुनर्वास की समस्याये आज तक नही सुलझ पाई है। नीति को देखने के बाद मालूम पड़ता है कि इससे कोई सबक नहीं लिया गया है।

13 मार्च को उर्जा सचिव उत्तराखंड की अध्यक्षता में पुनर्वास निदेशालय के अधिकारी व टीएचडीसी के अधिकारियों की बैठक होने वाली है। 1989 से टिहरी बांध की समस्या और प्रभावितों के बीच काम के आधार पर प्रभावितों की ओर से हमने उर्जा सचिव और पुनर्वास निदेशक को सुझाव भेजे है।

नई सम्पाशर््िवक नीति बहुत ही सीमित अर्थों में बनाई गई है जिसमें सिर्फ जलाशय से व्यक्तिगत परिवारों पर होने वाले प्रभावों को देखा जा रहा है। नीति में नुकसान को व्यक्तिगत तौर पर लिया गया है। इस बात को पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया है कि यह नुकसान व्यक्तिगत नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र में होगा।

पत्र के कुछ खास बिन्दु हैः- भूस्खलन रुकता नही, सामकेतिक योजना का आभाव है, भूमिहीनों का भी पुनर्वास हो,बेनाप/कब्जाधारी भूस्वामियों का पुनर्वास हो, फ्री स्टाम्प ड्यूटी हो, भवन निर्माण के लिये कर्ज, पुनर्वास स्थलों पर सामुदायिक सुविधाये, पुनर्वास सामुदायिक होना चाहिए न कि व्यक्तिगत इकाई के रूप में। विस्थापितों को पूर्व में बने पुनर्वास स्थलों के आस-पास ही स्थान दिया जाये ताकि उनकी अपनी पहचान बरकरार रह सके। विस्थापितों को चुनने का अधिकार हो। 1. पहाड़ में; 2. मैदानी क्षेत्र में; 3. अपनी मनचाही स्थल पर जमीन खरीदने का। तीसरी दशा में सरकार उनको जगह खरीदने में मद्द व मूल्य राशि उपलब्ध करानी होगी। नई सम्पाशर््िवक नीति में लिखे गये पुनर्वास व मुआवजे के लिये तौर-तरीके व दिशा-निर्देश स्पष्ट नहीं है। जोकि आने चाहिये।

ज्ञातव्य है कि नवम्बर 2011 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के कारण ही टीएचडीसी ने पुनर्वास कार्यो को पूरा करने के लिये एक अरब से ज्यादा पैसा दिया। यह बताता है कि टिहरी बांध परियोजना की पुनर्वास नीति और उसके क्रियान्वयन में कितनी खामियां हैं। आज टिहरी बांध से बिजली उत्पादन चालू हुए लगभग 7 वर्ष होने वाले हैं किन्तु आज तक जलाशय स्तर 835 मीटर के नीचे के प्रभावितों का पुनर्वास भी नहीं हो पाया। जिस कारण सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्ण जलाशय भरने की अनुमति नहीं प्रदान की है। यह बैठक भी इसीलिये ही हो रही है।

सर्वोच्च न्यायालय में श्री एन. डी. जुयाल व शेखर सिंह बनाम भारत सरकार केस में टीएचडीसी द्वारा उठाये गये प्रश्नों के संदर्भ में हमारा मानना है कि     जनप्रतिनिधि का समिति में होना जरुरी है साथ समिति में बांध प्रभावितों का भी एक प्रतिनिधी होना चाहिये। जलाशय से प्रभावित होने वाले भी बांध परियोजना से ही प्रभावित माने जाने चाहिए इसलिए उनको टिहरी बांध परियोजना की पुनर्वास नीति 1998 के अनुसार 2 एकड़ भूमि मिलनी चाहिए। टीएचडीसी का कहना है कि जलाशय के चारों तरफ आठ गांवों में 453.15 हेक्टयेर भूमी उपलब्ध है।  इस संदर्भ में पहला प्रश्न यह है कि टीएचडीस ने यह भूमि अन्य विस्थापितों को उपलब्ध क्यों नहीं कराई। दूसरा प्रश्न की यह ज्यादातर भूिम भी उसी प्रभावित क्षेत्र में आ रही है। तीसरा प्रश्न यह सभी विस्थापितों के लिए पूर्ण नहीं होगी। इसलिए इस भूमि को मात्र एक विकल्प के रूप में रखा जाये न कि अंतिम विकल्प में। जिसके लिये विस्थापितों की सहमति आवश्यक हो।
आजतक के अनुभवों के आधार पर टिहरी बांध के विस्थापितों के मानवीय पुनर्वास के लिए जरूरी है-
1-विस्थापन भूमिअधिग्रहण कानून के तहत होना चाहिये।2-भूमिअधिग्रहण की प्रक्रिया समयबद्ध हो- 3-विस्थापन की प्रक्रिया के बीच किसी पात्र कि मृत्यु होने पर उसके आश्रितों को पात्र माना जाए।4-धारा 4 लगने के समय 18 वर्ष के व्यक्तियों को पात्र माना जाए-5-जमीन दो एकड़ से कम नही हो-6-मकान के मुआवजे से पहले जमीन दी जाये-7-रोजगार सम्बन्धित शासनादेश को तुरन्त क्रियान्वित किया जाये-8-जमीन का भूअधिकार दो, फिर जमीन लो-9-गांव को बुनियादी सुविधाओ के साथ सामूहिक रूप से बसाया जाए-10-पुनर्वास के लिए दूसरो का विस्थापन नही हो-11- पुनर्वास महायोजना-टिहरी बांध की पर्यावरण स्वीकृति 19 जुलाई 1990 को दी गई थी जिसमें पुर्नवास की महायोजना बनाना एक शर्त थी। जो आजतक पूरी नही हो पाई। नतीजा है कि पुनर्वास में इतनी समस्यायें है। इसलिये अब जो विस्थापन हो रहा है कम से कम उसके लिये एक महायोजना जिसमें सभी पात्र विस्थापितों के लिए जमीन और संसाधन की बात हो साथ ही उसकी एक कार्य योजना भी। 12-जानकारी-लोगांे को उनके अधिकारों की जानकारी प्रशासन द्वारा ग्राम स्तर पर प्रदान की जाये। 13-पुनर्वास विभाग के शिविर गांव स्तर पर लगे-प्रभावितों के खर्च, समय व साधन बचाने और भ्रष्टाचार को रोकने के लिये यह जरुरी है। 14-घाटे में चल रहें उद्यान, आलू फार्म चाय बगान व इस तरह के क्षेत्र मालूम करके विस्थापितों को दिये जा सकते है।-15-उद्यानकृर्षि के फार्म वाली सरकारी योजनाओं में विस्थापितों को शामिल किये जायें।

वास्तव में जरुरत तो टिहरी बांध परियोजना जिसमें कोटेश्वर बांध भी आता है, विस्थापितों/प्रभावितों के लिये बनी 1998 की नीति की कमियों को नयी परिस्थितियों व अबतक के विस्थापन में आई समस्याओं को देखते हुये उच्चीकृत करना चाहिये। ताकि नये विस्थापितों को भी वही सब नहीं झेलना पड़े जो पूर्व में विस्थापित लोग झेल रहे हैं। वास्तव में सम्पाशर््िवक नीति की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। पुनर्वास नीति 1998 को ही नये संशोधनों के साथ नवीनीकृत करने की जरूरत थी। किन्तु यदि यह सरकार पुनः सम्पाशर््िवक नीति के नाम पर पुनर्वास नीति बना रही है तो उसे यह सब तो करना ही चाहिये। नीति बार-बार नही बनती है। यह एक मौका है कि टिहरी बांध विस्थापितों के साथ न्याय हो। मुख्यमंत्री जी बार-बार अदालत में बांध विस्थापितों के हक के लिये जाने की घोषणा करते रहे है। यह मौका है कि वो अपना कथन पूर्ण कर सकते है।


विमलभाई               
(समंवयक)

पूरण सिहं राणा


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