Tuesday 26 February 2013

27-2-2013 : स्वामी सानंद के उपवास को समर्थन क्यों?

 27-2-13

स्वामी सानंद के उपवास को समर्थन क्यों?

Author: 
विमलभाई, माटू जनसंगठन
सानंद जी का निर्णय भले ही एकल हो किन्तु वह सरकारी कार्यनीति पर कड़ा प्रहार है। कांग्रेस व भाजपा दोनों राजनैतिक दलों की गंगा के प्रति झूठी आस्था की भी पोल खोलने के साथ कुंभ में जुटे संत समाज और गंगा को लेकर होने वाले सेमिनारों की ओर भी कड़ा इशारा है। स्वामी सानंद 26 जनवरी 2013 से तपस्या में हैं। उन्होंने मध्य प्रदेश में शहडौल जिले के अमरकंटक स्थान से राष्ट्रीय नदी गंगा पर निर्माणाधीन बांधों को लेकर तपस्या शुरू की है। प्राप्त जानकारी के अनुसार वे अभी बनारस गये है। उनकी यह तपस्या सरकार के गंगा पर बांधों की ढुलमुल नीति को लेकर है। उनका कहना है कि उत्तराखंड में गंगा के पांचों प्रयागों के ऊपर सभी निर्माणधीन बांधों पर सरकार रोक लगाये। श्री जीडी अग्रवाल जी जो कि अब सन्यास लेकर स्वामी सानंद बन गये हैं।

17 अप्रैल 2012 में राष्ट्रीय नदी गंगा घाटी प्राधिकरण की अंतिम बैठक में यह तय हुआ था की गंगा और उसके सहायक नदियों के न्यूनतम प्रवाह पर एक समिति बने। .सरकार ने राष्ट्रीय नदी गंगा व उसकी सहायक नदियों में लगातार बहने वाला पानी कितना हो? यह तय करने के लिये योजना आयोग के सदस्य श्रीमान् बीके चतुर्वेदी की अध्यक्षता में विभिन्न मंत्रालयों की एक समिति बनाई है जिसकी रिपोर्ट मार्च 2013 में आने की संभावना है।

इसमें भी सरकार का रवैया बहुत ही घपले का रहा है क्योंकि बांधों पर कोई रोक लगाये बिना न्यूनतम प्रवाह की बात बेमानी सी लगती है। इस समिति की रिपोर्ट भी आगे सरकती जा रही है। सरकार ने बहुत चालाकी से रिपोर्ट निकालने का समय कुंभ के बाद का समय रखा है।

सानंद जी का निर्णय भले ही एकल हो किन्तु वह सरकारी कार्यनीति पर कड़ा प्रहार है। कांग्रेस व भाजपा दोनों राजनैतिक दलों की गंगा के प्रति झूठी आस्था की भी पोल खोलने के साथ कुंभ में जुटे संत समाज और गंगा को लेकर होने वाले सेमिनारों की ओर भी कड़ा इशारा है।

कांग्रेस ने भी शंकराचार्य जी के यहां अपने मंत्री भेजे, बैठकें करवाईं पर कोई सशक्त कदम नहीं उठाया। मजे की बात है कि 18 जून 2012 को दिल्ली में जंतर-मंतर पर उन्हीं शंकराचार्य जी धरना देते हैं, कांग्रेस के नेता आते हैं। किन्तु धरने से पहले ही सरकार ने बीके चतुर्वेदी समिति बना दी। धरने में जमकर गंगा की बात करने वाले प्राधिकरण के गैर सरकारी सदस्य 15 जून को बीके चतुर्वेदी समिति के सदस्य भी बना दिये गये थे। किन्तु धरने पर यह बात नहीं बताई गई। क्योंकि सानंदजी ने तपस्या का रास्ता चुना है। इसलिए यह भी देखना होगा की 2010 के कुंभ से अब तक संत समाज ने क्या-क्या किया। माटू जनसंगठन के साथियों ने जाकर पिछले कुंभ में बांधों की समस्त जानकारी भी दी। जानकारी के आधार पर विश्व हिन्दू परिषद ने भी मात्र हल्ला मचाया किन्तु ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे तत्कालीन भाजपा सरकार को कोई समस्या आये। बल्कि हर की पैड़ी पर बैठे अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष के उपवास को भी तुड़वा दिया। और कुछ संतों की 'गंगा पर बांध रोको वरना कुंभक्षेत्र नहीं छोड़ेगें' की घोषणा को भी खत्म करवाया गया।

बाबा रामदेव जी भी गंगा पर एक धरना देकर काले धन के सवाल पर चले गये। उत्तराखंड सरकार ने तो एक मंत्री को ही इस काम में लगा रखा था कि हल्ला होने दो पर कोई तार्किक परिणति ना होने पाये।

कांग्रेस ने भी शंकराचार्य जी के यहां अपने मंत्री भेजे, बैठकें करवाईं पर कोई सशक्त कदम नहीं उठाया। मजे की बात है कि 18 जून 2012 को दिल्ली में जंतर-मंतर पर उन्हीं शंकराचार्य जी धरना देते हैं, कांग्रेस के नेता आते हैं। किन्तु धरने से पहले ही सरकार ने बीके चतुर्वेदी समिति बना दी। धरने में जमकर गंगा की बात करने वाले प्राधिकरण के गैर सरकारी सदस्य 15 जून को बीके चतुर्वेदी समिति के सदस्य भी बना दिये गये थे। किन्तु धरने पर यह बात नहीं बताई गई।

यह भी बात ध्यान रखने वाली है कि ज्यादातर गैर सरकारी सदस्य गंगा पर बांधों के ज़मीनी संघर्ष से दूर और सेमिनारों में ज्यादा उलझे रहते हैं। और सरकारी समिति में क्या हुआ उसे गंगा पर चल रहे आंदोलनों के साथ बांटते भी नहीं हैं। दूसरी तरफ आंदोलनों के प्रतिफल सामने है। पिंडर घाटी में पूरा बांध विरोधी आंदोलन खड़ा है। अनेकों जगह धरने प्रदर्शन चालू हैं। अदालतों ने भी अनेक बांध विरोधी निर्णय दिये हैं।

इस बीच भाजपा की नेत्री उमा जी ने समग्र गंगा की बात उठाई, किंतु गंगा पर बन रहे बांध के बारे में उन्होंने कभी भी सार्थक विरोध नहीं किया। श्रीनगर में बन रहे बांध के संदर्भ में भी उन्होंने कहा कि उनका आंदोलन सिर्फ धारी देवी को बचाने तक का है। वो बात और है 2012 के मानसून में शासन-प्रशासन की मदद से बांध में पानी भरा। धारी देवी भी डूबीं। उमा जी मूलत: बांध के विरोध में नहीं है। कैसे हो सकती हैं भला? मध्यप्रदेश में उनके मुख्यमंत्रित्वकाल में इंदिरा सागर में पानी भरा गया और हरसूद शहर को डुबाया गया जिसके विस्थापितों को नर्मदा बचाओ आंदोलन के प्रयासों से बाद में कुछ राहत मिल पाई है।

जरा टिहरी बांध आंदोलन के समय की स्थिति याद करें। सुंदरलाल बहुगुणा जी के 45 दिन के उपवास को मई 1992 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल बोरा जी ने पुर्नसमीक्षा का झूठा आश्वासन देकर तुड़वाया था। किंतु कांग्रेस सरकार ने किया नहीं। बाद में जनता दल की सरकार ने भूकंप के संदर्भ में बांध की पुर्नसमीक्षा तो की। किन्तु बात भूकंपवेत्ताओं की नहीं वरन् अफसरों की मानी गयी। यही हाल पुनर्वास और पर्यावरण पर बनाई समिति का हुआ।की रपोर्ट आई तो उसको नहीं माना और वही किया जो अफसरों ने कहा। नजीता सामने है। टिहरी बांध के पर्यावरण और पुनर्वास के सवाल आज तक हल नहीं हो पाए हैं, और बढ़ते ही जा रहे है।

अब प्रधानमंत्री का गंगा के प्रति तथाकथित समर्पण होने के बावजूद भी समिति बैठाओ, मामला आगे टालो वाली नीति रही है बिना दाँत-नाखून का गंगा प्राधिकरण बना दिया।

संभवतः सांनद जी यही सब समझते है अब संत बने है और सच्चा संत किसी की आलोचना नहीं करता, बस अपने से ही कुछ करता है। हमारा उन्हें समर्थन है। और उम्मीद है कि शायद सरकार-समाज-अन्य संत यह समझेंगे की अविरल गंगा के बिना निर्मल गंगा नहीं हो सकती। जिनके हाथ में निर्णय है, जो निर्णय को प्रभावित कर सकते है और जो निर्णय लेने वालो के सामने या पीछे से साथ हैं उनसे किसी सही सार्थक कदम की अपेक्षा है। तभी सानंद जी को भी बचाया जा सकता है और गंगा को भी।

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