Sunday, 1 January 2012

प्रैस विज्ञप्ति: टिहरी व कोटेश्वर बांध की झील में प्रभावितों का पहला अधिकार हों। 14-10-2011

टिहरी व कोटेश्वर बांध की झील संबधी लाईसेंस जारी करने के लिये टिहरी जिला पंचायत ने कार्यवाही शुरु की है। आश्चर्य की बात है कि आजतक टिहरी बांध विस्थापितों का पुनर्वास नही हो पाया है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे एन0 डी0 जयाल व शेखर सिंह बनाम भारत सरकार व अन्य केस मे दायर उत्तराखंड सरकार के शपथ पत्रों से भी यह स्पष्ट होता है। किन्तु टिहरी व कोटेश्वर बांधों की झीलों में पर्यटन की बड़ी योजनाओं को आंमत्रित किया जा रहा है। इन पर्यटन परियोजनाओं से आम विस्थापित का और नदी पार के लोग जिनके लिये जिला मुख्यालय से 10 लेकर 70-80 किलोमीटर दूर हो गया है कुछ खास भला नही होने वाला है। दीगर बात यह है कि पर्यावरण की दृष्टि से बिल्कुल भी सही नही है। पर्यटन के हिमायती हम भी है किन्तु पर्यटन हो तो लोक आधारित एंव इस क्षेत्र में पर्यटन पूरी तरह से विस्थापितों के ही लाभ में हो। ‘होम स्टे’ जैसी पद्धति वाली आवास-भोजन व्यवस्था हो। मछली पकड़ना, नौकायन, मोटरबोट संचालन, रोपवे संचालन, राफ्टिंग, जलाशय में जलक्रीड़ा संबंधी सभी कामों में टिहरी बांध विस्थापितों को हक मिले। हमने इसी आशय का पत्र श्रीमान रतन सिंह गुनसोला, अध्यक्ष, जिला पंचायत, टिहरी गढ़वाल, व श्रीमान शूरवीर सिंह मटूड़ा, अपर मुख्य अधिकारी टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड को भेजा है।
पत्र में हमने कुछ विषयों को आवश्यक रुप से ध्यान रखने के लिये बताया है। साथ ही यह सवाल भी उठाया है कि टिहरी बांध की झील पर किसका अधिकार है? और नोटिस के संदर्भ में आपत्तियंा व सुझाव दिये है। हमारा मानना है कि इस विषय पर पूरे जिले की एक खुली बैठक बुलाई जाये।

पत्र पीडीएफ और वर्ड फाईल में साथ में अटैच है। कृप्या देखकर अपने मीडिया में स्थान दे।

अपेक्षा में

विमलभाई, पूरणसिंह राणा, नागेन्द्र जगूड़ी, जगदीश रावत, रणवीर सिंह राणा
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सेवा में, 11 अक्तूबर, 2011

श्रीमान रतन सिंह गुनसोला जी
अध्यक्ष, जिला पंचायत,
टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड

श्रीमान शूरवीर सिंह मटूड़ा
अपर मुख्य अधिकारी
टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड

प्रतिलिपीः- माननीय मुख्यमंत्री, उत्तराखंड

संदर्भः- टिहरी व कोटेश्वर बांध की झील में पर्यटन संबधी सूचना के संदर्भ में
प्रभावितों का पहला अधिकार हों।

मान्यवर,

माटू जनसंगठन टिहरी बांध विस्थापितों के अधिकारों के लिये भी सक्रिय एक संगठन है। यह पत्र हम आपके द्वारा जारी टिहरी व कोटेश्वर बांध की झील में पर्यटन के लिये लाईसेंस संबधी नोटिस के संदर्भ में लिख रहे है।

आपने अखबार द्वारा सभी के सुझाव मांगे है। यह स्वागत योग्य बात है किन्तु बेहतर हो की आप इस विषय पर खुली बड़ी बैठक का आयोजन करें। अभी तक आये हुये प्रस्तावों पर भी चर्चा हो। आगे की योजना भी खुले रुप में बने।
नोटिस को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे भागीरथी-भिलंगना के निवासियों के पास से बहती नदी चली गई और आज लोग पीने के पानी के लिये तरस रहे है आशंका है कि वैसे ही अब झील भी पर्यटन के नाम पर ना छिन जाये। जिस तरह से उपरोक्त नोटिस में लिखा है उससे ऐसा ही प्रतीत होता है कि यहंा बड़े पूंजीगत पर्यटन को ध्यान मे रखकर बड़ी-बड़ी बाहरी कंपनियंा आयेगी। जिनको विशिष्टता के नाम पर खास माना जायेगा और विशेष रियायते भी दी जायेगी। अपुष्ट जानकारी के आधार पर दोनो बांधों के निर्माण में लगे ठेकेदारों ने पहले की झील किनारे की काफी जमीन पर कब्जा कर रखा है। विस्थापितों की मांग के बावजूद उन्हे झील किनारे की जमीन का टुकड़ा नही मिला।

आवश्यक रुप से ध्यान रखने के लिये
आजतक टिहरी बांध विस्थापितों का पुनर्वास नही हो पाया है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे एन0 डी0 जयाल व शेखर सिंह बनाम भारत सरकार व अन्य केस से भी यह स्पष्ट होता है।
टिहरी बांध की झील भरने के बाद सर्वे आफ इंडिया ने जिन्हे विस्थापित माना उनका पुनर्वास भी अभी तक नही हो पाया है।
35 साल पुराने विस्थापित स्थलों में भी पुनर्वास की आवश्यक व नीतिगत नागरिक सुविधायें उपलब्ध नही है। राज्य सरकार की फरवरी 2010 की रिर्पोट भी इसे सत्यापित करती है। जिसके लिये टीएचडीसी ने पूरा पैसा नही दिया है।
झील के किनारे के लगभग 80 गांवों में भूस्खलन के कारण नया विस्थापन शुरु हुआ है। सबसे ज्यादा स्थिति तो झील के पार की है। जिसे कट आॅफ एरिया कहा जा रहा है।
22.9.2011 की सुनवाई में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इन्ही कारणों से टीएचडीसी को राज्य सरकार से ही टिहरी बांध झील को पूरा भरने की इजाजत लेने का आदेश दिया था।

टिहरी बांध की झील पर किसका अधिकार है?

भागीरथी घाटी के विकास व संरक्षण के लिये टिहरी बांध परियोजना की पर्यावरण स्वीकृति 19 जुलाई 1990 में शर्त संख्या 3.7 में केन्द्रिय ऊर्जा मंत्रालय को 31.3.1991 तक ‘भागीरथी घाटी प्रबंधन प्राधिकरण’ बनाने के निर्देश दिये गये थे। जिसे वास्तव में लगभग 22 साल बाद 2003 में फिर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया तब 2005 में इसे वास्तविक रुप में बनाया गया।
इस प्राधिकरण ने भी टिहरी झील में पर्यटन के लिये 15 सितंबर 2006 में नई टिहरी में बैठक का आयोजन किया था। जिसमें एक विस्तृत योजना बनी थी। जिसमें तत्कालीन व पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों ने खास रुचि ली थी।
एक ‘झील प्राघिकरण’ भी बनाया गया है। जिसकी अब तक बैठक तक नही हो पाई है।

अब हमने पुनर्वास स्थल, पथरी भाग-4, हरिद्वार में दैनिक हिन्दुस्तान में 14 सितंबर 2011 में जिला पंचायत की ओर से निकला यह नोटिस पढ़ा है। यह असमंजस की स्थिति है कि टिहरी बांध की झील पर किसका अधिकार है?

वास्तव में तो बांध विस्थापितों का ही झील पर पहला व अंतिम अधिकार बनता है। मात्र कुछ रुपये देकर यह अधिकार नही छीना ला सकता है। फिलहाल यह बात इस नोटिस से सीधे नही, पर बांध झील के मूल अधिकार के संदर्भ में रिकार्ड पर होनी चाहिये। इस नोटिस में यह बात कही नही दिखाई देती है।

टिहरी व कोटेश्वर बांधों की झील में पर्यटन विकास संबधी दैनिक हिन्दुस्तान, हरिद्वार में निकले 15 सितंबर 2011 के जिला पंचायत, टिहरी के, नोटिस के संदर्भ में आपत्तियंाः-

जिला पंचायत, टिहरी गढ़वाल को यह स्वीकार करना चाहिये की अभी टिहरी बांध की झील के किनारे के गांवों का आस्तित्व खतरे में है। इसका अर्थ है कि झील की रिम यानि दोनो ओर की पहाडि़यंा स्थाई नही है।

इसलिये रिम पर कोई भी बड़ी ढ़ांचागत योजना भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वे को ध्यान में रखकर बनाई जानी चाहिये। जिसके पहले भूस्खलन प्रभावित गांवों के पुनर्वास के लिये काम हो। नाकी 5 व 3 सितारा होटलो के लिये कोई योजना बने। इस संदर्भ में कम से कम 18 अप्रैल 2011 को दाखिल की गई विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट को आधार बनाना चाहिये।(Joint expert committee formed by Government of Uttarakhand on study of damages to different villages after filling in reservoir of Tehri Dam above elvation 830 Meter) जबकी इस समिति पर भी काफी प्रश्न है कि तीन दिन में कैसे 42 किलोमीटर की झील के किनारों पर पानी के 830 मीटर पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन कर लिया गया। अभी गहन अध्ययन की आवश्यकता है।
इस झील का पानी स्तर स्थायी नही है। यह स्तर माप विद्युत उत्पादन पर निर्भर करता है। इसलिये यहंा हाऊस बोट व बड़ी नौकायें सफल होनी मुश्किल है। और देश भर में जिस किसी बांध की झील में इस तरह के बड़े ढ़ांचागत पर्यटन का उपयोग किया गया है। भूकंप व भूस्खलनों के संदर्भ में यह सुरक्षित भी नही होगा।
पांच या तीन सितारा होटलों से पहाड़ की देव संस्कृति पर बुरा असर ही पड़ेगा। यह नही होना चाहिये। जिला पंचायत को ऐसे किसी भी होटल को लाइसेंस नही देना चाहिये।
पर्यटन, पर्यावरण व स्थानीय संस्कृति की रक्षा व उसके साथ सामंजस्य के साथ होना चाहिये।
नोटिस में ‘उपविधियंा’ शीर्षक में बिन्दु संख्या 7 से मालूम पड़ता है कि पर्यटन के लिये नये विस्थापन की तैयारी दिखती है। पहले से ही उत्तराखंड की संकटग्रस्त कम होती खेती की जमीन इससे और कम होगी।
भू-अर्जन यदि किसी भी कारण से होता है तो भूमि के बदले भूमि दी जाये। अतिरिक्त भूमि का मूल्य, टिहरी जिले में भूमि के अधिकतम् बाजार भाव से दिया जाये। पुनर्वास की अन्य सुविधायें नवीनतम् पुनर्वास नीति के तहत ही दी जाये।
किसी भी कारण से यदि कोई भू-अर्जन होता है तो पात्रता का मापदण्ड ये होना चाहिये कि पूर्व में बांध के लिये ली गई भूमि और नये भू-अर्जन में ली जा रही भूमि को जोड़कर पात्रता का निर्धारण किया जाना चाहिये। ऐसे बहुत से परिवार है जो भू-अर्जन के बाद भी पात्रता से वंचित रह गये थे चूंकि उनकी भूमि, विस्थापित हेतु पात्रता से कम थी।
बड़ी मोटर बोट, बड़े 5-3 सितारा होटल, मछली के बड़े ठेकेदार नही होने चाहिये।





सुझावः-

1. टिहरी जलाशय संबधी सभी रोजगारों पर जैसे जैसा की खण्ड ‘ख’ और ‘ग’ में बताया गया हैः-
मछली पकड़ना, नौकायन, मोटरबोट संचालन, रोपवे संचालन, राफ्टिंग, जलाशय में जलक्रीड़ा संबंधी सभी
कामों में टिहरी बांध विस्थापितों को हक मिले। आपकी जानकारी में लाना चाहेंगे की प्रभावित गंावो--
के लोगों में खासकर धनार लोग, पुश्तैनी नाविक और मछली का काम करते रहे है। उनकी बेरोजगारी दूर करने के लिये उन्हे मछली व बोट का काम दिया जा सकता है।
के कुछ युवको ने हिमाचल में जलक्रीड़ा संबंधी प्रशिक्षण भी लिया है वे जलक्रीड़ा के सभी उद्यमों में सफल है और अन्यों को प्रशिक्षण देने की क्षमता भी रखते है। उन्हे चूंकि स्थानीय परिस्थितियों के बारे में सब पता है इसलिये वे इन सब कामों के उपयुक्त व नीति सम्मत भी रहेगें।
के लोगो को पर्यटन आदि में भी यदि रोजगार के अवसर दिये जाये तो यह उनके सामाजिक व आर्थिक स्तर को ना केवल ऊंचा उठायेंगा साथ ही पर्यटकों को भी स्थानीय समझ के साथ उच्चस्तरीय सुविधा मिलेंगी।
बांध प्रभावितों/स्थानीयों को
नौकायन, जलक्रीड़ा, राफ्टिंग, मत्स्य पालन में मात्र सर्वोच्च प्राथमिकता नही वरन् अधिकार मिलना चाहिये।
बांध प्रभावितों/स्थानीयों को झील संबंधी किसी भी तरह के व्यवसाय की लाईसेंस फीस न्यूनतम होनी चाहिये।

2. 75 प्रतिशत स्थानीय श्रमिक रखने की शर्त ही नही वरन् सभी कामों में 75 प्रतिशत आरक्षण स्थानीय
लोगो को हो। यहंा स्थानीय से तात्पर्य झील के किनारे के गांववासी व विस्थापित से है, चाहे वो कही
भी बसा हो। हम चाहते है कि पलायन रुके। जो मुश्किलें विस्थापितों ने झेली है और अभी भी झेल रहे
है। उससे विस्थापितो का कुछ सहयोग हो पायेगा और का जीवनस्तर कुछ उठ पायेगा।

3. जिला पंचायत को ‘होम स्टे’ जैसी पद्धति, जिसमें पर्यटक घरों में रुकते है, को लाना चाहिये। एक
सहकारी समिति के तहत यह व्यवस्था पूरे गांव में हो सकती है। इस तरह की सहकारी समिति को लाइसेंस
देकर जिला पंचायत स्थायी पर्यटन को बढ़ावा देने के साथ स्थानीय विकास में भारी योगदान दे सकता है।
देश में यह सफल रुप में कई स्थानों पर चलाई जा रही है। कुंमाऊ में, पिथौरागढ़ के मुनसयारी गांव में ‘होम
स्टे’ पद्धति, का लाभ ग्रामीण वर्षाे से उठा रहे है। पर्यटकों को भी उचित दर पर आवास और भोजन मिल जाता
है। वे स्थानीय संस्कृति को भी समझ पाते है।

4. बड़ी पर्यटन परियोजना में महंगे लाइसेंस प्रभावशाली लोगों, व्यापारियों, बड़े ठेकेदारों या राजनैतिक हितों के
पक्ष हांेगे। वास्तव में ये छोटे स्तर के उद्यमियों के पक्ष में होनी चाहिये। जिससे स्थानीय लोगो का जिनमें
खासकर महिलायें है, जीवन स्तर सुधरेगा। इसके लिये आवश्यक है कि पर्यटन की छोटी परियोजनायें
हो जिन्हे स्थानीय लोग/ विस्थापित स्वंय या सहकारी समिति के माध्यम से चला सके।

5. जहंा ग्रामीणों को मत्सय व्यवसाय, नौकायन, मोटरबोट संचालन, रोपवे संचालन, राफ्टिंग, जलाशय में
जलक्रीड़ा संबंधी कामों की जानकारी ना हो वहंा जिला पंचायत को स्थानीय स्तर पर उनके प्रशिक्षण की
व्यवस्था करनी चाहिये।

6. प्रशिक्षण के लिये टीएचडीसी से सहयोग की मांग करनी चाहिये। टीएचडीसी ‘‘व्यवसायिक सामाजिक
दायित्व’’ के अंतर्गत स्वंय इसे कर सकती है। आखिर एकमुश्त आधा-अधूरा पुनर्वास देकर, टीएचडीसी
प्रतिदिन करोड़ो रुपये कमा रही है। जिसमें से राज्य सरकार भी 12 प्रतिशत हिस्सा लेती है। इसलिये
प्रशिक्षण की उचित व्यवस्था दोनो का ही दायित्व है।

आशा है आप हमारी आपत्तियों की गंभीरता को समझेगें और हमारे सुझावों को अपनायेंगे। हमारा मानना है कि इस विषय पर पूरे जिले की एक खुली बैठक बुलाई जाये।

अपेक्षा में

विमलभाई, पूरणसिंह राणा, नागेन्द्र जगूड़ी, जगदीश रावत, रणवीर सिंह राणा

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