Press Note 08-02-2021
{English translation after Hindi}
योजनाकार, ठेकेदार, राजनेताओं, सरकार द्वारा आमंत्रित आपदा में शहीद हुए
व्यक्तियों के लिए हमारा शोक
बांध सहित, हिमालय में बड़ी परियोजनाएं रोकिये।
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उत्तराखंड ने फिर एक तबाही का मंजर देखा। चमोली जिले में ऋषि गंगा में अचानक से आई जल प्रलय में रैणी गांव के स्थानीय निवासी, बकरियां चराने वाले बकरवाल व 13.5 मेगा वाट के ऋषि गंगा पावर प्रोजेक्ट में कार्यरत मजदूर-कर्मचारी मारे गए या लापता घोषित हुए हैं।
जिसके बाद जल प्रलय ने धौलीगंगा में पहुंचकर तपोवन विष्णुगाड का पावर प्रोजेक्ट (520 मेगावाट) के पूरे बांध को ध्वस्त किया। और पावर हाउस की ओर जाने वाली सुरंगों में काफी दूरी तक मलबा व गाद भर दिया।
इस परियोजना में भी जो लोग सुरंग काम कर रहे थे। उनकी खोजबीन अभी जारी है। कुछ शव मिले हैं। बाकी लापता है।
जो लापता हुई वो कब, कैसे, मिलेंगे? और कितने लोग वास्तव में मारे गए उनकी संख्या कभी सामने नहीं आएगी क्योंकि रिकॉर्ड में वही मजदूर होंगे जिनका रजिस्टर बनता है। छोटी-छोटी ठेकेदारों कि कितने लोग कहां कहां काम कर रहे थे उसका कोई रिकॉर्ड नहीं होता। आज तक 2 जून 2013 की आपदा में लापता हुए और मारे गए लोगों का पूरा रिकॉर्ड हो ही नहीं पाया।
पूरे घटनाक्रम में दोष प्रकृति को दिया जा रहा है। ग्लेशियर टूटने की बात जमकर के प्रचारित हो रही है। किंतु हिमालय की नाजुक पारिस्थितिकी में इतनी बड़ी परियोजनाओं को बनाने की, अनियंत्रित विस्फोटकों के इस्तेमाल की, जंगलों को काटने की, पर्यावरणीय कानूनों व नियमों की पूरी उपेक्षा पर न सरकारों का कोई बयान है ना कही और ही चर्चा हुई।
सरकारो ने अब तक की बांध संबंधी रिपोर्टों, पर्यावरणविदों की चेतावनियों, प्रकृति की चेतावनी को ध्यान नही दिया है। मध्य हिमालय में बसा यह राज्य प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर है किंतु साथ ही प्राकृतिक आपदाओं का खतरा हमेशा बना रहता है। प्रकृति के साथ लगातार की जा रही छेड़छाड़ इस तरह की आपदा को और अधिक भयावह रूप दे देती है।
7 फरवरी, 2021 की तथाकथित ग्लेशियर टूटने की घटना, यदि यह दो बांध नीचे नहीं होते तो जान माल की न्यूनतम से न्यूनतम ही नुकसान करती। सरकारों को देखना चाहिए कि इन परियोजनाओं के कारण ही मजदूर व अन्य कर्मचारी, गांव के निवासी तथा बकरवाल मारे गए है।
रैणी गांव के लोगों ने अति विस्फोट की बात लगातार उठाई। वह उत्तराखंड उच्च न्यायालय में भी गए और न्यायालय ने जिलाधिकारी को जिम्मेदारी दी।
तपोवन-विष्णुगाड परियोजना की पर्यावरण स्वीकृति को भी हमने तत्कालीन " राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलीय प्राधिकरण" में चुनौती दी थी। जिसको समय सीमा के बाद अपील दायर करने के मुद्दे पर प्राधिकरण ने रद्द कर दिया था। इसके बाद भी पर्यावरण से जुड़े तमाम मुद्दों को हम उठाते रहे किंतु सरकार ने कभी कोई ध्यान नहीं दिया। दोनों ही बांधों के पर्यावरणीय उल्लंघन के लिए हम स्थानीय प्रशासन, उत्तराखंड राज्य के संबंधित विभाग व केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को पूर्ण रूप से दोषी मानते है।
उत्तराखंड कि एक मुख्यमंत्री स्वर्गीय नारायण दत्त तिवारी ने टिहरी बांध के बाद कहा था कि अब कोई ऐसा बड़ा बांध नहीं बनेगा। मगर उसके बाद महाकाली नदी पर पंचेश्वर व रूपाली गाड बांध की पूरे धोखे के साथ 2017 में जन सुनवाई की गई। टोंस नदी पर एक बड़े किशाउ बांध को सरकार आगे बढ़ रही है। ये सीधा आपदाओं को आमंत्रण है।
जून 2013 की आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने "अलकनंदा हाइड्रो पावर कंपनी लिमिटेड बनाम अनुज जोशी एवं अन्य" के केस में स्वयं उत्तराखंड की आपदा पर संज्ञान लेकर सरकार को आदेश दिया कि उत्तराखंड की किसी भी बांध परियोजना को, किसी तरह की कोई स्वीकृति न दी जाए। और जल विद्युत परियोजना के नदियोँ पर हो रहे असरों का एक आकलन किया जाए।
पर्यावरण मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को गंगा कि कुछ नदियों तक सीमित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश को सीमित करने पर पर्यावरण मंत्रालय को कभी दोषी नहीं ठहराया। ना इस पर कोई संज्ञान लिया। समिति ने रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में वन्य जीव संस्थान, देहरादून की 2012 वाली रिपोर्ट में कही गई 24 में से 23 परियोजनाओं को ही रोकने की सिफारिश की। किंतु सुप्रीम कोर्ट ने 24 परियोजनाओं को ही रोकने योग्य माना।
इसके बाद पर्यावरण मंत्रालय ने एक नई समिति बनाकर 24 में से छह बड़ी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने कि अनुशंसा दी। सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी ने भी एक समिति बना दी। मगर जल शक्ति मंत्रालय, ऊर्जा मंत्रालय और पर्यावरण मंत्रालय की ओर से जो सांझा शपथ पत्र सुप्रीम कोर्ट में दाखिल करना था वह आज तक नहीं हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर लंबे समय से कोई सुनवाई नहीं की है। सुप्रीम कोर्ट जलवायु परिवर्तन के तथा लोगों की हत्याओं से जुड़े इतने बड़े मुकदमे को ना सुनने के लिए दोषी है। इसलिए इस दुर्घटना के के लिए सर्वोच्च न्यायालय भी जिम्मेदार है
जबकि 2016 में तत्कालीन ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने कहा था कि हम आवश्यकता से अधिक बिजली का उत्पादन कर रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार यदि वर्तमान के विद्युत परियोजनाएं 70 से 75% भी उत्पादन करती हैं तो हमें नई परियोजनाओं की कोई आवश्यकता नहीं है। तो फिर हिमालय की इतनी संवेदनशील इलाकों में ऐसी परियोजनाओं की क्या जरूरत है?
यह बात भी दीगर है कि उत्तराखंड की एक भी बांध परियोजना में पुनर्वास और पर्यावरण की शर्तों का अक्षरश: पालन नहीं हुआ है। ऐसा ही यहां पर भी हुआ है। बांध किसी भी नदी में आई प्राकृतिक आपदा को विकराल रूप में बदलते हैं। रवि चोपड़ा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में यह स्पष्ट लिखा था।
जून 2013 की आपदा में ऐसे अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं। अलकनंदा नदी पर बना विष्णुप्रयाग बांध नहीं टूटता तो नीचे के पुल नहीं टूटते। बद्रीनाथजी और हेमकुंड साहेब के हजारों यात्रियों को अटकना नही पड़ता। इसी नदी पर श्रीनगर बांध के कारण निचले क्षेत्र की सरकारी व गैर सरकारी संपत्ति जमीदोंज हुई। लोग आज भी मुआवजे की लड़ाई लड़ रहे हैं।
सरकार ने 2013 की आपदा से कोई सबक नहीं लिया। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर कोई कदम आज तक नहीं लिया है।
माटू जनसंगठन के अलावा उत्तराखंड व देश के हिमालय प्रेमी व पर्यावरणविद आदि सभी ने 2013 में ही सरकार को इस मुद्दे पर चेताया था कि ऐसी दुर्घटनाएं पुनः हो सकती है इसलिए बड़ी परियोजनाओं को रोकना ही चाहिए।
· इन सब मुद्दों पर जनप्रतिनिधियों, नीतिकारों, अधिकारी वर्ग व सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित होनी ही चाहिए। वे ही इन बांधों को विकास और बिजली के लिए आगे बढ़ाते है।
· परियोजनाओं में कार्य तमाम परियोजनाओं में कार्यरत मजदूरों का पूरा रिकॉर्ड बनाने के आदेश जारी हो
विमल भाई
Our condolences to the people martyred in the disaster invited by the government, planners, contractors, politicians.
Stop large projects in the Himalayas, including the dam.
Uttarakhand again saw a catastrophe. Local residents of Raini village, goat grazing herders and labourer working in the (13.5 MW) Rishi Ganga Power Project have been declared dead or missing in the sudden flood in Rishi Ganga in Chamoli district.
After that, the water disaster reached Dhauliganga, destroyed the entire dam of Tapovan Vishnugad's power project (520 MW) and filled the debris and silt in the tunnels leading to the power house. The workers employed in the tunnel of this project are still missing. Some dead bodies have been found and many more are still missing. The exact number of people killed and missing is not clear yet. On the other hand the number of people who were actually killed will never be revealed because the authorities will only talk about the registered labours. There is no record of the number of small contractors involved and how many people were working with them. Till date, there is no complete record of the missing and killed people in the disaster of June 2013.
The nature is being blamed for the whole incident. The news of breaking glaciers is being widely publicized but there is no statement or discussion on the delicate ecology of the Himalayas for the creation of such large projects, the use of uncontrolled explosives, cutting down of forests, and complete neglect of environmental laws and regulations.
Governments have so far ignored dam reports, warnings from environmentalists, warnings of nature. Being situated in the central Himalayas, Uttarakhand state is full of natural beauty, but at the same time there is always the risk of natural disasters. Constant tampering with nature makes such disaster more frightening.
The so-called glacier rupture incident of February 7, 2021, if these two dams were not there, would have caused the loss of life and property to the barest minimum. Governments should see that it is because of these projects that laborers and other workers, residents of the village and Bakarwal have been killed. The people of Raini village constantly raised the issue of excessive use of explosives for construction of projects. Villagers also went to the Uttarakhand High Court and the court gave the responsibility to the District Magistrate.
We, Matu Jansangthan also challenged the environmental clearance of the Tapovan-Vishnugad project in the then "National Environmental Appellate Authority". Which was canceled by the authority on the issue of filing this appeal after the deadline. Even after this, we kept raising all the issues related to the environment, but the government never paid any attention. We believe that the local administration, the concerned departments of Uttarakhand state and the Union environment ministry are responsible for the environmental violations in both projects.
Former Chief Minister of Uttarakhand Late Narayan Dutt Tiwari said after the Tehri Dam that no such big dam will be built in future. Despite that the public hearing of Pancheshwar and Rupali Gad dam on Mahakali River were held in 2017 with full deception. The government is moving forward to a large Kishau dam on the Tons River. It is an invitation to another direct disaster.
After the June 2013 disaster, the Supreme Court, in the case of "Alaknanda Hydro Power Company Limited v. Anuj Joshi and others", took cognizance of the Uttarakhand disaster and ordered the central and state government not to sanction any dam project in Uttarakhand. And the Government should assess the impact of hydropower projects on the rivers.
The Ministry of Environment limited the order of the Supreme Court to some rivers of Ganges. The Supreme Court never took any cognizance for limiting its order. The committee headed by Ravi Chopra recommended stoppage of 23 out of 24 projects stated in the 2012 report of Wildlife Institute of India, Dehradun. But the Supreme Court considered all 24 projects preventable.
After this, the Ministry of Environment formed a new committee and recommended that six of the 24 major projects be taken forward. The Central Electricity Authority also formed a committee. But the joint affidavit from the Ministry of Jal Shakti, Power Ministry and Environment Ministry which was to be filed in the Supreme Court has not happened till date. The Supreme Court has not held any hearing for a long time.
The Supreme Court is guilty of not hearing such a big case related to climate change and killings of people. Therefore the Supreme Court is also responsible for this accident.
Whereas in 2016, the then Power Minister Piyush Goyal had said that we are producing more electricity than required. According to government data, if the current power projects also produce 70 to 75%, then we have no need for new projects. Then what is the need of such projects in such sensitive areas of the Himalayas? It is also a matter of fact that rehabilitation and environmental conditions have not been fulfilled literally even in a single dam project in Uttarakhand,. The same has happened here. Dams change the natural calamity of any river into a formidable form. The Ravi Chopra Committee wrote this clearly in its report.
We have many such examples in the June 2013 disaster. If the Vishnuprayag dam built on the Alaknanda River does not break, then the bridges below do not break. Thousands of pilgrims of Badrinath ji and Hemkund Saheb do not have to get stuck. Because of Srinagar dam on the same river, the government and non-government property of the lower area became submerged. People are still fighting for the compensation.
The government did not learn any lessons from the June, 2013 disaster. The Supreme Court has not taken any step on this till date.
Apart from the Matu Janasangathan, Himalayan lovers and environmentalists of the Uttarakhand and the country warned the government in 2013 on the issue that such accidents can happen again, so big projects should be stopped.
- Accountability of public representatives, policymakers, officers and government should be ensured on all these issues. They are the one who leads these dams for development and power.
- Orders should be issued to make complete record of labourer working in all projects.
Vimal Bhai