भूमि अधिकार संघर्ष रैलीhttp://hindi.indiawaterportal.
Author:
विमल भाईज़मीन, संवैधानिक तरीकों और किसान-मज़दूर के अस्तित्व की लूट के खिलाफ देशभर में विरोध की लहर अब तेज हो चुकी है। 24 फरवरी को दिल्ली में हुई जन आन्दोलनों की रैली ने जो आगाज किया था, अब वह गाँव, जिला और राज्य स्तर तक पहुँच चुका है। जन आन्दोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम), अखिल भारतीय वन श्रम जीवी मंच, अखिल भारतीय किसान सभा (अजय भवन), अखिल भारतीय किसान सभा (केनिंग लेन), युवा क्रान्ति, जन संघर्ष समन्वय समिति, छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन, किसान संघर्ष समिति, संयुक्त किसान संघर्ष समिति, इंसाफ, दिल्ली समर्थक समूह, किसान मंच, भारतीय किसान यूनियनों के साथ शहरी गरीब, मछुआरे, आदिवासी, महिला संगठन, जनपक्षधर बुद्धिजीवियों ने मिलकर आगे की रणनीति तय की और इस आन्दोलन को ‘भूमि अधिकार आन्दोलन’ का नाम दिया। सभी ने मिलकर इस भूमि अधिकार आन्दोलन को और अधिक तीव्र करने का निर्णय लिया। इसके तहत देशभर में अलग-अलग जगहों पर विरोध कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं और अब सभी 5 मई को दिल्ली में एक विशाल रैली के रूप में आ रहे हैं। किसान-मज़दूर आन्दोलनों की सामूहिक ताकत दिखेगी जन्तर-मन्तर पर। वास्तव में 2104 में नई सरकार ने आते ही जिस तेजी से पर्यावरण की पूरी तरह से अनदेखी करके निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने की नीति अपनाई वो बहुत ही अविश्वसनीय सी लगी। अच्छे दिनों का वादा करके आने वाली सरकार ने जिस तरह से बुरे दिनों की शुरुआत का आगाज़ किया वो कल्पना से भी बाहर लगता है। तथाकथित विकास, औद्योगिकीकरण, सार्वजनिक हित के नाम पर बाँधों, नए पोर्ट या शहर, खदानों, जंगलों का आरक्षण या राष्ट्रीय उद्यान व सेंचुरी, कारखानों, सेज आदि से लाखों को उजाड़कर, पहले से उजड़े लोगों को पुनर्वासित न करते हुए जो ‘लाभ’ निकल रहे हैं, वे अधिकांश पूँजीपतियों, सत्ताधीशों को ही मिलने वाले हैं। विस्थापन से समता-न्यायवादी परिवर्तन के बदले, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और गरीबों से लूट, गैरबराबरी और पूँजी-बाजार के कब्जे बढ़ रहे हैं। आज विकास नियोजन में स्थानीय इकाई -ग्रामसभा हो या वार्डसभा- का स्थान, सम्मान व सहभागिता खत्म है। पीढ़ियों की ज़मीन, जंगल, पानी और जीवन प्रणाली छीनने वाली राह पर संवैधानिक अधिकारों को कुचलने के लिये, पुनः अंग्रेजों के ही बनाए भूमि-अधिग्रहण कानून का सहारा लिया जा रहा है। सरकार के मन्त्री जी ने एक टीवी चैनल पर चर्चा में चार गुना मुआवजा देने की गारंटी दी। किन्तु जो अपनी ज़मीन नहीं देना चाहते हैं उनके संरक्षण की कोई बात नहीं कही। 1894 में अंग्रेजों के द्वारा बनाया गया भूमि-अधिग्रहण कानून के खिलाफ बरसों से जन-आन्दोलनों ने बरसों से लड़ाई की थी। ताकि पुराने क़ानूनों में पर्यावरण व जनहितकारी परिवर्तन आ सके। उनको केन्द्र सरकार ने एक ही झटके में लगभग समाप्त करने की कोशिश शुरू कर दी है। बरसों से जन आन्दोलनों की माँग थी कि संविधान के अनुच्छेद 24, पेसा 1996 और वन अधिकार कानून 2006 के आधार पर एक विकेन्द्रित विकास नियोजन कानून बने और सरकार तुरन्त भूमि-अधिग्रहण कानून रद्द करेे। आजादी के बाद भूमि-अधिग्रहण के कारण हुए विस्थापन और पुनर्वास पर एक श्वेत पत्र जारी करे। विस्थापितों एवं जन आन्दोलनों के साथ एक राष्ट्रीय विचार-विमर्श का आयोजन करे। विकेन्द्रित विकास नियोजन कानून पर चर्चा के लिये एक संयुक्त संसदीय स्थायी समिति का गठन करे। एनडीए-2 की सरकार ने ऐसा सारा कुछ तो नहीं पर काफी हद तक भूमि-अधिग्रहण कानून में जनहितकारी बदलाव लाया। यद्यपि यह पूरी तरह से नहीं हो पाया था। पर फिर भी भूमि-अधिग्रहण कानून में सकारात्मक बदलाव था। किन्तु नई सरकार ने देशी-विदेशी कम्पनियों के लिये रास्ता खोलते हुए पुनः अंग्रेजों का ही कानून ला रही है और एनडीए-2 सरकार के समय किए गए बदलाव को पूरी तरह से बदल दिया जा रहा है। भूमि अधिग्रहण के लिये किसानों से सहमति लेने में खतरा है इस बात को कम्पनियाँ बखूबी जानती हैं। दूसरी तरफ भारत ने कम्पनी राज की बेरहम दुनिया को बहुत ही करीब से देखा है, इसलिये कम्पनी राज की सच्चाई को भारतीय जनता से बेहतर और कौन जान सकता है? आज से करीब 300 साल पहले कुछ इसी तरह से एक कम्पनी जो ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के नाम से जानी जाती थी, अपना व्यापार करने के लिये भारत आई थी और 1757 में उसने यहीं पर अपना राज कायम कर लिया। इस कम्पनी ने अपने राज में मुनाफ़ा कमाने के मकसद से यहाँ की पंचायतों को ख़त्म कर दिया और उनकी जगह पर ज़मींदारी प्रथा कायम की। फिर ज़मींदारों के साथ मिलकर के इस देश की जनता पर बेइन्तहाँ जुल्म ढाए। कम्पनी शासन ने किसानों को लूटा, परम्परागत खेती और परम्परागत उद्योग धन्धों को तबाह किया, जंगलों पर से आदिवासियों के परम्परागत अधिकारों को छीना और वनों को काट कर बर्बाद कर डाला था। उस कम्पनी राज में सूखा व बाढ़ की स्थिति में फसलों के नष्ट हो जाने पर भी किसानों को अपना हाड़-माँस बेच कर, बेटी बहन बेच कर लगान चुकानी पड़ती थी। उस समय कम्पनी राज ने देश को दो बड़े अकाल दिए थे जिनमे लाखों के तादाद में लोग काल के गाल में समा गए थे और हजारों भारतीय महिलाएँ अंग्रेजों के भोग विलास की वस्तु बनाने के लिये इंग्लैंड भेज दी गईं थीं। उन अकालों में जहाँ एक ओर लोग भूख से मर रहे थे तो वहीं दूसरी तरफ़ यहाँ से अनाज व कच्चा माल इंग्लैंड भेजा जा रहा था। भारत के कच्चे माल से ही बिलायत में तैयार कपड़ों व अन्य वस्तुओं को हमारे यहाँ बेचा जाने लगा था। इस वजह से देश से कपड़ा बुनने वाले जुलाहे व अन्य रोज़गार खत्म होते गए। इन सभी अन्याय व अत्याचारों के खिलाफ जब जनता ने आवाज उठाई तो कम्पनी ने गाँव-के-गाँव जलवा दिए थे और-तो-और महिलाओं तथा बच्चों को भी नहीं छोड़ा गया। सरकार भी यह जानती है कि ज़मीन किसान को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आजीविका मुहैया कराती है और मुआवज़ा कभी भी आजीविका का दूसरा विकल्प नहींं हो सकता। सभी यह भी जानते हैं कि जब भारत में कृषि योग्य ज़मीनें व किसान नहीं बचेंगें तो देश की खाद्य सम्प्रभुता भी ख़त्म हो जाएगी और देश खाद्यान्न के मामले ऑस्ट्रेलिया तथा अमेरिका जैसे देशों पर निर्भर हो जाएगा। और समानान्तर रूप में ज़मीन से जुड़े हुए भूमिहीन किसान और खेत मज़दूर, ग्रामीण दस्तकार, छोटे व्यापारी देश के नक़्शे से ही गायब हो जाएँगे। सरकार की कोशिश है कि हर कीमत पर भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को ज़मीन पर उतारा जाए क्योंकि वर्तमान दौर में भूमि अधिग्रहण करना कम्पनियों का अस्तित्व बचाने की एक अनिवार्य शर्त है। 5 मई को होने वाली ‘भूमि अधिकार संघर्ष रैली’ इसके ही खिलाफ मजबूत कदम है। |
Friday, 1 May 2015
5 May-2015 भूमि अधिकार संघर्ष रैली
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment