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माटू जनसंगठनहमें सरकार के साथ अपनी लापरवाहियों व गलतियों को भी देखना चाहिए। जिस तरह हमने तीर्थयात्रा को पर्यटन और रोमांचकारी पर्यटन में बदला है वो पहाड़ के लिए तो विनाशकारी सिद्ध हुआ है बल्कि तीर्थयात्रियों के लिए स्वयं भी बहुत जोखिम भरा सिद्ध हुआ है। जैसे पर्यटक वैसे ही उनके लिए सुविधाजनक रहन-सहन और बाजार-होटल बनते गए जिसके निर्माण में किसी नियम को नहीं देखा गया। बस रोजगार और विकास के लिए आज खंडहरों में तब्दील हुए किनारे अंधाधुंध निर्माण के रूप में शेष है। इसके लिए किसी नियम का ना होना और सरकार के लोक निर्माण विभाग की पूरी तरह अनुपस्थिति भी इसके लिए दोषी है।
इस त्रासदी के बाद यह बहस भी उठाने का प्रयास हुआ है कि केदारनाथ तक सड़क बनी होती तो सही रहता किंतु जहां सड़कें थी वहां क्या हाल हुआ है? गंगोत्री-बद्रीनाथ में केदारनाथ जैसी तबाही नहीं हुई। बड़ी सड़कों से ही लोग वहां खूब पहुंचे और वही सड़के टूटने के कारण ही दसियों हजार यात्रियों को फंसे रहना पड़ा उनके बचाव की बारी भी केदारनाथ से सब यात्रियों को निकाल लेने के बाद ही आई।
चारधामों में भी जिस तरह से वहां की पारिस्थितिकी की अनदेखी करके बड़ी-बड़ी संख्या में भक्तों को बुलाकर धार्मिक प्रवचनों, कथाओं आदि का आयोजन किया जाता है वह भी एक बड़ा कारण बना है। गंगोत्री में ज्यादा लोगो के फंसने का कारण वहां एक कथावाचक द्वारा कथा का आयोजन था। इन सबको आस्था से जोड़कर अपने व्यवयाय को बढ़ाने का तरीका है। पायलट बाबा के आश्रम का बड़ा हिस्सा टूटा, भागीरथी घाटी में उत्तरकाशी से ऊपर आश्रम को गंगा जी की छाती पर बनाया गया था। गंगा जी ने इस सब को नकारा है।
चारधाम तीर्थ यात्राओं को पर्यटन में बदलने हवाई जहाज की शुरुआत ने और भी तेज किया है। जिसने स्थानीय लोगों के रोजगार पर भी बहुत बुरा असर डाला है। ध्यान देने की बात है कि केदारनाथ जी में आई आपदा के दिन यात्रियों की संख्या बहुत ज्यादा थी। कारण था की घोड़े-खच्चर वालों की इसके विरोध में दो दिन की हड़ताल थी जो उसी दिन खुली थी।
हेमकुंड की यात्रा को रोमांचकारी यात्रा के रूप में लिया जा रहा है। तीर्थ का भाव कम दिखता है मस्ती का ज्यादा। तेज गति से मोटरसाइकिलों पर जाना इसमें रोमांच की धमक ही दिखती है पर तीर्थयात्रा का भान नजर नहीं आता है। बहुत जल्दी में तीर्थ करने की जरुरत क्यों है? गोविंद घाट पर बहुत सी कारें-मोटरसाइकिले-बसें बही है और काफी अटकी है जिन्हें अब बाद में निकाला गया।
गंगा को पर्यटन का प्रतीक बनाना महज पहाड़ में नहीं बल्कि ऋषिकेश और हरिद्वार में भी दीखता है। यहां होटलों जैसी सुविधाओं वाले आश्रमों की भरमार हो गई है। प्रश्न है कि क्या सफेद धन से इतना कुछ बन सकता है? यहां दोनों तीर्थनगरियों में कुछ आश्रमों और साधु संतो को छोड़ कर शेष आत्मप्रसार वैभव तथा साधारण गृहस्थ से ज्यादा भोग विलासिता के आडम्बर के साथ गंगा जी को शोकेस में रखकर अपने आश्रम में की श्री वृद्धि में लगे हैं।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेशों में गंगा के किनारों को छोड़ने की 500 मीटर दोनों तरफ बात थी। पहाड़ में 500 मीटर छोड़ना या हटना बहुत ही मुश्किल काम है। पहाड़ में छोटे बाजार जैसे अगस्त्यमुनि, चंद्रापुरी, नारायणबगड़ आदि स्थानीय छोटे व्यापारियों के जीवनयापन का सहारा है। किंतु यहां इन आश्रमों की ऐसी कौन सी मजबूरी है की वे गंगा जी के किनारों से हटने के बजाए नदी के और अंदर अपने आश्रमों को, ईश्वर की मूर्तियों को बना रहे हैं। यदि आप नदी के रास्ते को छोड़ दें तो गंगा से इतना विनाश नहीं होता।
बड़े हो या छोटे सभी जगह नदी नालों ने फिर से सिद्ध कर दिया कि उनको नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। आपको नदियों के लिए रास्ता छोड़ना ही होगा। उन पर कब्जा करना भी गलत होगा। चाहे वो बड़ा-छोटा बांध हो, होटल हो या गुमटी या कोई भी धार्मिक आश्रम।
पिछले कुछ वर्षों में कावड़ यात्रा, चारधाम यात्रा हेमकुंड सहित की यात्रा में अप्रत्याषित वृद्धि हुई है। जिन धार्मिक संगठनों ने इन्हें बढ़ावा दिया है। उन्होंने भी कभी गंगा जी के स्वास्थ्य को इन यात्राओं से जोड़कर नहीं देखा। आस्था के नाम पर, जिसमें आस्था है उसे ही रौंद दिया। ना यात्रियों की सुरक्षा पर कोई ध्यान दिया गया। सरकार को तो आज हम सब दोष दे ही रहे थे। वैसे सरकार अपने इस गैर जिम्मेदार व्यवहार के लिए, यात्रियों की इतनी परेशिानियों और मौंतों के दोष से सरकार बच नहीं सकती। ठीक है कि अब यात्रियों के पंजीकरण की बात सरकार अधूरे रूप में स्वीकार कर रही है। किंतु क्या लोग भी सोचेंगे करेंगे कि तीर्थों को पर्यटन की दृष्टि से ना देखें ना गंगा को कब्जियायें।
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