गंगा चिंतन-1
जहां बांध बनने के समय चेतना नही थी वहां पर अब लोग खड़े हो रहे है। हां कहीं-कहीं पर प्रभावित बांध के पक्ष में भी खड़े हुए हैं और फिर भुगत रहे हैं। किंतु यह स्पष्ट है कि बांधों से कोई रोज़गार नहीं बढ़ा है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की स्वीकृतियों के अनुसार बांध कंपनियां ही अपनी रिपोर्ट बना कर भेज देती हैं। बाकी पर्यावरणीय और पुनर्वास के पक्ष की किसी शर्त का पालन होता है या नहीं इसकी कोई निगरानी नहीं। बस सरकारी कागजात के पुलिंदे बढ़ते जा रहे हैं। करोड़ों लोगों की आस्था का केन्द्र गंगा को मात्र बिजली बनाने का हेतु मान लिया जाए? गंगा के शरीर पर बांध बनाकर गंगा के प्राकृतिक स्वरूप को समाप्त किया जा रहा है। कच्चे हिमालय को खोद कर सुरंगे बनाई जा रही हैं। जिससे पहाड़ी जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। गंगा नदी नहीं अपितु एक संस्कृति है। पावन, पतितपावनी, पापतारिणी गंगा को मां का स्थान ना केवल हमारे पुराणों में दिया गया है वरन् गंगाजी हमारी सभ्यता की भी परिचायक हैं। वैसे तो गंगा का पूरा आधार-विस्तार अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को पार करता है। भारत देश में भी गंगा उत्तराखंड से उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में सागर से मिलती है। हम यदि गंगा की उपत्याकाओं और उनके जल संग्रहण क्षेत्र को भी समेटे तो हरियाणा-मध्य प्रदेश और उत्तर-पूर्व राज्यों को भी जोड़ना होगा। गंगा का उद्गम उत्तराखंड से होता है। इसलिए उत्तराखंड को गंगा का मायका भी कहा जाता है। मुश्किल है गंगा को उसके मायके में ही हत्या की स्थिति में लाया जा रहा है। गंगा क्षत-विक्षत हो रही है। कन्या भ्रूण हत्या पर कानून है। पर संस्कृति की पालक नदियों के रक्षण के लिए हमारे पास कोई सोच नहीं है।ऐसे में हमें हम सबकी गंगा के उद्गम से लेकर ऋषिकेश-हरिद्वार तक की सीधी, सच्ची, साफ बेबाक पहाड़ से निकली सच्चाईयां समझने की आवश्यकता है और उसके लिए कदम उठाने की जरुरत है। गंगा के मायके में ही गंगा की दुर्दशा को समझने के लिये हमें गंगा के आधार को भी जानना होगा। उत्तराखंड में गंगा एक तरफ गंगोत्री ग्लेशियर से निकलकर भागीरथी गंगा कहलाती है, दूसरी तरफ श्री बद्रीनाथ जी के पास से निकलकर विष्णुपदी अलकनन्दा गंगा कहलाती है। गंगा का तात्पर्य, उत्तराखंड में भागीरथी गंगा व विष्णुपदीगंगा अलकनंदा के पंच प्रयागों में मिलने वाली पांचों धाराओं के देवप्रयाग में मिलन के साथ पूरा होता है। ये पंचप्रयाग हैः- विष्णुप्रयाग (धौली-अलकनंदा) नन्दप्रयाग (नंदाकिनी-अलकनंदा) कर्णप्रयाग (पिंडर-अलकनंदा) रूद्रप्रयाग (मंदाकिनी-अलकनंदा) देवप्रयाग (अलकनंदा-भागीरथी)
देवप्रयाग से नीचे की तरफ मैदान में पहुंचने से पहले गंगा के किनारे रिवर राफ्टिंग के बहुत सारे पर्यटक कैंप होते हैं जो कि राज्य को राजस्व भी खूब देते हैं और पर्यटकों से स्थानीय लोगों को भी कुछ आमदनी हो जाती है। मगर इससे बड़ी आमदनी ऋषिकेश-हरिद्वार में गंगा के किनारे बने बड़े-बड़े मॉल रूपी आश्रमों व उसमें बैठे तथाकथित संतों की होती है। जो लोगों की गंगा के प्रति श्रद्धा और आस्था को स्वयं की पूजा अर्चना में बदलते हैं। इनमें ये भी होड़ होती है कि किसके पास कितने विदेशी अतिथि हैं। श्रद्धा से सम्मोहित आने वाले विदेशी आजकल इन गंगा संतों के साथ इंटरनेट पर ही जुड़ जाते हैं। कई आश्रमों मे तो बकायदा प्रचार विभाग को देखने वाली कोई गोरी बहन ही होती है। गंगा के किनारे से बढ़कर गंगा के बीच तक में अपने आश्रम का भव्य कब्ज़ा जमाए हुए हैं। ये आश्रम गंगामहाआरतियों का आयोजन करते हैं और राजनेताओं को बुलाकर क़ानूनों के उलंघन को सही ठहरवा लेते है। हां इन सब में गंगा के प्रति सच्चे समर्पण भाव से कार्य करने वाले संत नजर नहीं आते क्योंकि वो ना तो ढोंगी हैं और न प्रचार करते हैं।
आजकल गंगा पर होने वाले सेमिनारों, भजनों, एनजीओ के प्रोजेक्टों की भरमार हो रही है। सारे संतों-महंतों का गंगा के सवाल पर बोलना, ऋषिकेश में महाआरती का आयोजन करना एक खूब प्रचलित खेल बन गया है, किंतु गंगा की दुर्दशा में कोई परिवर्तन नहीं आया। सरकारें गंगा के नाम पर जम कर दुकानें चला रही हैं। केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय गंगा नदी प्राधिकरण बनाया और उत्तराखंड की पूर्ववर्ती सरकार ने निर्मल गंगा अभियान की दुकान चलाई। जिसमें विधायक निधियों का भी इस्तेमाल किया गया वो बात और है कि सारा पैसा किसी एक बांध के एक ठेके में समेट लिया होगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी गंगा खूब बिक रही है। विश्वबैंक ने राष्ट्रीय नदी गंगा प्राधिकरण में अरबों रुपये गंगा सफाई के लिये दिया और साथ में ही गंगा की सबसे बड़ी हत्यारी बांध कंपनी टीएचडीसी को अलकनंदागंगा पर बांध बनाने के लिए भी करोड़ों रुपये का उधार दिया है। गंगा सफाई का धंधा मजे का है। निर्मलता की आड़ में भी खाओ और तथाकथित विकास के नाम पर बांध बना कर भी खाओ।
आइए गंगा पर बांधों की स्थिति देखते हैं। गंगोत्री से नीचे भागीरथी गंगा पर पहला बांध पड़ता है मनेरीभाली चरण एक फिर चरण दो फिर विशालकाय टिहरी बांध, फिर कोटेश्वर बांध और फिर कोटलीभेल चरण एक ‘अ‘ जो कि निर्माणाधीन है। इसके बाद अलकनंदागंगा से देवप्रयाग में भागीरथी गंगा का संगम होता है। जहां से आगे वो सिर्फ गंगा के ही नाम से जानी जाती है। आध्यात्म और धार्मिक कथा जो भी हो गढ़वाल में एक लोककथा के अनुसार भागीरथीगंगा को बहु तथा अलकनंदागंगा को सास कहा गया है। सास गंगा में जल का 70 प्रतिशत तथा बहु 30 प्रतिशत प्रवाह करती है। इसलिए कथा यह भी कहती है कि सास बहु को दबा कर रखती है।
अलकनंदागंगा की प्रमुख सहायक गंगाओं पर भी बांधों की श्रृखलाएं हैं। स्वयं अलकनंदागंगा पर पहला निजी बांध विष्णुप्रयाग है जयप्रकाश इंडस्ट्री ने बनाया है। अनूपशहर का रहने वाला यह जयप्रकाश गौड़ परिवार टिहरी बांध से उपजा और फैला है। अलकनंदागंगा पर पहला प्रयाग विष्णुप्रयाग है जो कि धौलीगंगा और अलकनंदागंगा के संगम से बनता है। अब संगम बांध के नाम से ही जाना जा रहा है। इसके बाद एनटीपीसी तपोवन विष्णुगाड परियोजना बना रही है। फिर नीचे आएं तो टीएचडीसी विष्णुगाड पीपलकोटी परियोजना बनाना चाहती है। उसके नीचे उत्तराखंड जल विद्युत की दो परियोजनाएं विचारणीय है और फिर श्रीनगर में आंध्र की जीवीके कम्पनी 330 मेगावाट की परियोजना बना रही है। इसके बाद एनएचपीसी की कोटलीभेल चरण 1 ‘ब‘ और देव प्रयाग से नीचे कोटलीभेल चरण दो परियोजना जिसकी वन स्वीकृति अभी रुकी हुई है।
धौलीगंगा पर बांध बन रहे है, नई योजनाओं पर भी काम चालू है। नंदाकिनी प्यारी सी नन्ही सी गंगा है पर पूरी बंध ही गई है। मंदाकिनी के तो और भी बुरे हाल हुये है, लंबा संघर्ष चला, दमन भी खूब हुआ है। बस एकमात्र पिंडरगंगा पर अभी तक कोई बांध नही है। पर बांध तैयारी चल रही है। लोगों का संघर्ष भी जारी है। इन सब गंगाओं पर बांधों की कथाएं अलग-अलग है। लोग बांध के खिलाफ लड़ रहे है। जहां बांध बनने के समय चेतना नही थी वहां पर अब लोग खड़े हो रहे है। हां कहीं-कहीं पर प्रभावित बांध के पक्ष में भी खड़े हुए हैं और फिर भुगत रहे हैं। किंतु यह स्पष्ट है कि बांधों से कोई रोज़गार नहीं बढ़ा है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की स्वीकृतियों के अनुसार बांध कंपनियां ही अपनी रिपोर्ट बना कर भेज देती हैं। बाकी पर्यावरणीय और पुनर्वास के पक्ष की किसी शर्त का पालन होता है या नहीं इसकी कोई निगरानी नहीं। बस सरकारी कागजात के पुलिंदे बढ़ते जा रहे हैं।
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