{हिंदी
अनुवाद अंग्रेजी के बाद है}
Question
is not for or against Dam
No
meaning of public hearing without giving information about the dam,
Dam company do not want that people know about the truth, ones public
hearing happened then no say of people
In
Uttarakhnad on
12th
June, 2018
a
public hearing has been announced for the Jakhol-Sankri hydro
electric project (44MW)
on Supin River in Yamuna Valley.
The hearing has been organised despite the flouting of various legal
provisions and ethical codes of conduct, all reminiscent of the
infamous Pancheshwar dam public hearing from August, 2017. Legal
documents, reports and other documents required for the same are not
publicly accessible. There is also no information about the
Environment Impact Assessment report, the Social Assessment report
and the management plan.
In
spite of the Forest Rights Act of 2006, Uttarakhand remains mostly
untouched by its legal provisions. In an act of open defiance of the
law, the Sub-District
Magistrate of the area sent letters asking all village heads to
acquire signatures of their villagers to escalate the Jakhol Sankri
hydroelectric project. The letter was meant to record people’s
objections about the dam, but they were ordered to give their
consent.
The
villagers who will be affected by the dam have been given no
information regarding how much of their land will be taken away from
them. These villages are being routinely visited by officials from
the Sutlej Jal Vidyut Nigam under the guise of ‘Corporate
Social
Responsibility’.
Along with distributing sewing machines to the villagers amongst
other small benefits, the officials have been collecting signatures
on blank sheets of paper. In contradiction to the feeling of trust
the villagers earlier had for the officials, they are now worried
that their signatures will be used for illegal activities.
According to the Environmental Impact Notification 2006, at least a month before any public hearing, the report is to be kept in the District Collectorate, District Industries Department, District Panchayat Office, and Environment Department and Pollution Control Board for the public to read. This is to ensure that people make informed decisions and opinions while addressing the hearing.
How
can the people make any decisions regarding it if they haven’t read
about the project and its effects on their lives and lands?
We
found that villagers had no understanding of a public hearing. They
were largely unaware of a hearing’s purpose, process and the
paperwork. The affected villages are extremely vulnerable due to
these reasons. Even when the heads of the villages are given notices,
most of the time they are unable to understand the message.
All
reports are kept in the District office which is 190 kilometres away
from these areas and the Block Office which is 30 kilometres away.
Even if villagers spend thousands of rupees in travelling to these
areas to gain access to the papers, the paperwork is in English.
There is no Hindi translation and nor are the officials at these
offices equipped to explain the document to the villagers.
The
big question now is that even though the current state of affairs has
been presented in front of the State and the Central government, they
have paid no attention to it. From the District Administration to the
State and the Central government, the people’s concerns are being
viewed as anti-dam propaganda.
Why
is the government fearful of citizens accessing information?
We met the District Collector of Uttarkashi and he gave us full assurance that he would follow the procedures. He also said that taking the first non-objection is not good. When we met with the member secretary of the Pollution Control Board in Dehradun, he said that he will not do anything beyond the jurisdiction of the board, nor will he make personal suggestions.
The
Notification
2006
does not prevent the translation of any government document from
English to local languages. This step ensures that documents like the
Environment Impact Assessment Report, Management Plan and Social
Assessment Report are accessible to everyone. However, in spite of
these issues being raised to the Uttarakhand Government for the past
15 years, it has done nothing to make it simpler for its own people.
The state government has taken no steps to arm people with
information that will make them informed decision-makers.
We have also sent a letter to the Central Environment Ministry along with the District Collector, Uttarkashi District Collector, Pollution Control Board, to register certain demands for the sake of the people and the environment:
- All affected village and helmets should be provided the Environment Impact Assessment Report, Management Planning and Social Assessment Report in Hindi. Official and experts should help them understand the documents and the consequences of the dam.
- After the above is carried out a minimum of 1 month should be given before the public hearing is organised.
- The processes of the Forest Rights Act 2006 should be put into action in the affected areas immediately. They should receive forest rights effective immediately.
- The public hearing should be cancelled till further notice in the interest of the people.
Rajpal
Rawat, Prahlad Pawar, Kesar Singh Pawar, Vimal Bhai.
प्रश्न
बांध के विरोध या समर्थन का
नहीं
बिना कोई जानकारी दिए बांध की जनसुनवाई का कोई अर्थ नहीं, बांध कंपनी नहीं चाहती लोग सच्चाई जाने। एक बार जनसुनवाई हो गई फिर लोगो को बात रखने का कोई क़ानूनी प्रावधान नहीं
बिना कोई जानकारी दिए बांध की जनसुनवाई का कोई अर्थ नहीं, बांध कंपनी नहीं चाहती लोग सच्चाई जाने। एक बार जनसुनवाई हो गई फिर लोगो को बात रखने का कोई क़ानूनी प्रावधान नहीं
उत्तराखंड में यमुना घाटी में सुपिन नदी पर प्रस्तावित जखोल-साकरी
जलविद्युत परियोजना, 44 मेगावाट, की जनसुनवाई
12
जून, 2018 को घोषित हुई है। इसमें वही कमियां, वही कानूनी
उल्लंघन और नैतिक उल्लंघन की
जा रहे हैं जो कि अगस्त 2017
में
बहु प्रचारित पंचेश्वर बांध
की जनसुनवाई में किये गए। यहां
भी लोगों को जनसुनवाई क्यों
हो रही है किन कागजो के आधार
पर होती है ऐसी कोई जानकारी
नहीं। पर्यावरण प्रभाव आकलन
रिपोर्ट,
प्रबंध
योजना व सामाजिक आकलन रिपोर्ट
के बारे में किसी को भी कोई
जानकारी नहीं।
वन
अधिकार कानून 2006
के
अंतर्गत उत्तराखंड में अभी
कहीं भी लोगों को अधिकार नहीं
दिया गया है। किंतु इस क्षेत्र
में उप जिलाधिकारी महोदय ने
गांव के प्रधानों को एक पत्र
दिया तथा हिदायत भी दी की इसमें
सभी गांव वालों के हस्ताक्षर
आ जाने चाहिए।इस पत्र जिसमें
सभी तरह की अनापत्तियां लोगों
से ली जानी है।
प्रभावित
ग्रामीणों को यह नहीं मालूम
कि किसकी कितनी जमीन परियोजना
में जा रही है। सतलुज जल
विद्युत निगम प्रभावित गांवो
में कभी सिलाई मशीन बांटना,
कभी
कुछ और छोटे-मोटे
काम "कम्पनी
सामाजिक दायित्व"
के
अंतर्गत कर रही है।लोगों को
लगता कि कंपनी हमारे हित में
है। मगर उसके साथ ही कम्पनी
वाले लोगों से सादे कागजो पर
हस्ताक्षर करवाते रहें हैं
उससे लोगों को डर है की इन
हस्ताक्षरों को न जाने किन
कामों में इस्तेमाल किया
जाएगा ?
परियोजना
के बारे में कोई और जानकारी
नहीं है।
पर्यावरण
अधिसूचना 2006
के
अनुसार,
किसी
भी जन सुनवाई से एक महीना पहले
रिपोर्ट जनता को पढ़ने के लिए
जिलाधीश कार्यालय,
जिला
उद्योग विभाग,
जिला
पंचायत कार्यालय,
व
पर्यावरण विभाग और प्रदूषण
नियंत्रण बोर्ड में रखी जानी
होती है। ताकि जनता जनसुनवाई
से पहले इन रिपोर्ट्स का अध्ययन
करके जनसुनवाई में अपनी राय
रख सके।
किंतु
बिना बातों को पढ़े लोग अपनी
क्या बात कर पाएंगे?
हमने
पाया कि लोगों को,
जनसुनवाई
वास्तव में क्या होती है ?
उसके
नियम क्या होते हैं ?
वो
क्या कागजात होते हैं जिनके
आधार पर जनसुनवाई होगी?
इनके
बारे में कुछ नहीं मालूम। इन
गांवो में अखबार भी नहीं आता।
गांव के प्रधानों को अगर कोई
सूचना दे दी गई है तो उसका अर्थ
नहीं समझ पाए हैं.
फिर
ये तमाम कागजात अंग्रेजी में
लगभग 190
किलोमीटर
दूर जिला कार्यालय में रखें
हैं। ब्लॉक कार्यालय भी
लगभग 30
किलोमीटर
दूर है। यदि किसी तरह लोग
सैकड़ों हजारों रुपये खर्च
करके इतनी दूर चले भी जाएं तो
अंग्रेजी के सैंकड़ों कागजात
कैसे पढ़ पाएंगे ?
इन
कार्यालयों में भी इतनी
अंग्रेजी समझाने की कोई
व्यवस्था नहीं है।
यह
बहुत बड़ा प्रश्न है राज्य
व केंद्र के सामने लाने के
बावजूद सरकारे ध्यान नहीं दे
रही है । जिला प्रशासन से लेकर
राज्य और केंद्र सरकार भी इस
मांग को बांध विरोधी गतिविधि
मानती है।
बिना
जानकारी जनसुनवाई का मतलब
होता है कि भविष्य में लोग
अपनी छोटी छोटी मांगों के लिए
संघर्ष करते रहते हैं । इसी
परियोजना से नीचे निर्माणाधीन
नैटवार मोरी परियोजना से
प्रभावित आज धरने पर बैठे
हैं।सरकारी लोगों को जानकारी
देनी से क्यों डरती हैं?
हमने
उत्तरकाशी के जिलाधीश को मिलकर
पूरी परिस्थिति बताई उन्होंने
आश्वासन दिया कि वे प्रक्रियाओं का
पालन करेंगे। पहले अनापत्ति
लेना सही नही। प्रदूषण नियंत्रण
बोर्ड के नए सदस्य सचिव को
देहरादून में जब मिले तो
उन्होंने कहा कि बोर्ड की जो
जिम्मेदारी दी गई है उसके आगे
वे कुछ नहीं करेंगे,
ना
ही कोई सुझाव अपनी ओर से आकर
को देंगे।
2006
की
अधिसूचना किसी भी सरकार को
अंग्रेजी से स्थानीय भाषा
में अनुवाद करने व लोगों
को पर्यावरण प्रभाव
आकलन रिपोर्ट,
प्रबंध
योजना व सामाजिक आकलन रिपोर्ट
की जानकारी समझाने से नहीं
रोकती है। किंतु उत्तराखंड
सरकार के साथ पिछले 15
वर्षों
से लगातार इन बातों को उठाने
और इन बिना जानकारी जनसुनवाई
के गलत नतीजों को देखने के
बावजूद भी राज्य सरकार ने ऐसा
कोई कदम नहीं उठाया है।
हमने
जिलाधीश हमने उत्तरकाशी
जिलाधीश वह प्रदूषण नियंत्रण
बोर्ड के के साथ केंद्रीय
पर्यावरण मंत्रालय को भी
पत्र भेजा हैं और उनसे इन सब
परिस्थितियों में जनहित और
पर्यावरण हित में यह मांग कि
है:--
1-
सभी
प्रभावित गांवों और तोंको
में सक्षम अधिकारी द्वारा
विशेषज्ञों द्वारा पर्यावरण
प्रभाव आकलन रिपोर्ट,
प्रबंध
योजना व सामाजिक आकलन रिपोर्ट
हिंदी में उपलब्ध कराई व समझाई
जाएं
2-इस
प्रक्रिया के होने के कम से
कम 1
महीने
बाद ही जनसुनवाई का आयोजन हो।
3-
वन
अधिकार कानून 2006
के
अंतर्गत तुरंत क्षेत्र में
प्रक्रिया चालू हो व खासकर
प्रभावित क्षेत्र के लोगों
को पहले वन अधिकार दिए जाएं।
4-
फिलहाल
जनहित में अगली सूचना तक
जनसुनवाई रद्द की जाए।
राजपाल
रावत,
प्रहलाद
पवार ,
केसर
सिंह पवार ,
रामबीर, विमल
भाई
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