Wednesday, 13 June 2018

प्रेस विज्ञप्ति , 13 जून , 2018



जनसुनवाई रद्द, लोग चाहते है जंगल पर अधिकार

उत्तरकाशी जिला प्रशासन को 12 जून को आहूत  जखोल साकरी परियोजना की जनसुनवाई रद्द करनी पड़ी। सैकड़ों ग्रामीणों ने 3 घंटे तक जनसुनवाई मंच के सामने  "जनसुनवाई रद्द करो , बांध कंपनी वापस जाओ" आदि नारे देते रहे।  आक्रोशित युवा महिलाओं ने लगातार डटे रहकर बाद कंपनी व प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की चालाकियों को नाकाम किया। प्रशासन की ओर से कोशिशें की गई कि लोग या तो शांति से बैठे या चले जाएं।
 जिलाधीश महोदय ने एक बार मंच से बिना माइक के जनसुनवाई रद्द करने की घोषणा भी की किंतु लोग जानते थे कि जब जनसुनवाई की अध्यक्षता अतिरिक्त जिलाधीश  कर रहे हैं तो उन्हें ही घोषणा करनी होगी कंपनी के लोगों को वहां से हटना चाहिए , मंच को हटाना चाहिए ।

जिलाधिकारी महोदय को " पर्यावरण आकलन अधिसूचना 14 सितंबर 2006" की प्रति दी गई और इस बात की कानूनी जरूरत बताई गई की ऐ डी एम श्री शाह मंच से घोषणा करें कि जनसुनवाई रद्द की गई तब ही जनसुनवाई रद्द मानी जायेगी। जिलाधीश महोदय को यह भी बताया गया कि 18 अक्टूबर 2006 को विष्णुगाड पीपलकोटी बांध की जनसुनवाई की अध्यक्ष निधि यादव जी, SDM चमोली ने, लोगों को जानकारी ना होने की आधार पर जनसुनवाई रद्द की थी । 21 जुलाई 2010 में भी देवसारी बांध की जनसुनवाई के अध्यक्ष ने लोगों के विरोध के चलते जनसुनवाई रद्द की थी।
 प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी व बांध कंपनी  सतलुज जल विद्युत निगम के अधिकारी जिलाधीश श्री आशीष चौहान को यह बताते रहे कि हमने सभी कानूनी जरूरतें पूरी की है किंतु संगठन ने उनको बताया कि ऐसा नहीं हुआ है और कानूनी व व्यवहारिक सभी तरह की कमियों की सूचना हमने बोर्ड को भी दी थी। बोर्ड के सदस्य सचिव ने बहुत कड़ा रुख लेकर अपनी जिम्मेदारी से को मात्र कागजी कार्रवाई तक सीमित रखा। 
 इस पूरी बात के बाद  एडीएम श्री शाह ने जनसुनवाई समाप्ति की रद्द होने की घोषणा की और बांध कंपनी के लोग व बोर्ड के अधिकारी मंच से हटे।
जखोल, धारा, सुनकुंडी, पांव तल्ला, पाव मल्ला आदि प्रभावित गांवों के लोग इन अधिकारियों के पंडाल से जाने और जनसुनवाई का सामान समेटे जाने तक पंडाल में ही डटे रहे । जनसुनवाई के लिए किए गए भोजन की व्यवस्था को भी ग्रामीणों ने अस्वीकार किया।
जनसुनवाई पांव मल्ला के स्कूल में की गई थी। उस स्कूल के लिए जिन्होंने अपनी जमीन दान दी थी वह 2 दिन से वहां पहले ही धरने पर बैठे थे । गांवो से लोगो को लाने के लिए बांध कंपनी ने वहां की कोई व्यवस्था नही की थी। लोग लंबे रास्ते पैदल ही चल कर आये। जनसुनवाई स्थल पर पुलिस का बहुत सारा इंतजाम किया गया था। जनसुनवाई पंडाल में जाने से पहले लोहे के दरवाजे पर ग्रामीणों से नारे की तख्तियां भी लोगों से छीन ली गई थी।
किन्तु आखिर में जनता ने न्याय हासिल किया। ग्रामीणों ने जिला प्रशासन को धन्यवाद दिया। न्यायोचित निर्णय के लिए जिलाधिकारी डॉ0 आशीष चौहान का आभार प्रकट किया।
यमुना घाटी की सहयोगिनी टोंस नदी से मिलने वाली सुपिन एक छोटी नदी है जिस पर बांध प्रस्तावित है यह पूरा क्षेत्र गोविंद पशु विहार में आता है। कई दशकों से यहां के गांववालो को हॉर्न बजाने तक की पाबंदी है। उच्च कोटि के पर्यटन की संभावनाओं वाले क्षेत्र में सड़क, जंगल के अधिकारों से वंचित लोग अपनी पारंपरिक संस्कृति के साथ जीते हैं। 
आश्चर्य का विषय है की लगभग 8 किलोमीटर लंबी सुरंग बनाने की अनुमति कैसे हो गई? इसी बांध के नीचे नैटवार मोरी बांध के प्रभावित अपनी समस्याओं को लेकर परेशान हैं। इसी बांध क्षेत्र में रहने वाले गुर्जरों को विस्थापन झेलना पड़ रहा है किंतु कोई मुआवजा या पुनर्वास की बात नहीं और वही बांध कंपनी जखोल-साकरी बांध बनाने के लिए आगे आ रही है। 

जिस घाटी में 42% साक्षरता है वहां 650 पन्नों के अंग्रेजी वाले कागजात पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट, पर्यावरण प्रबंध योजना व समाजिक आकलन रिपोर्ट दिए गए। जिनमें किसकी कितनी जमीन जा रही है इतना भी जिक्र नहीं है, सुरंग से बर्बाद होने वाले गांवों की तो कोई बात ही नहीं। यह सब तरीके बताते हैं कि बांध कंपनी के लोग देश का, राज्य का, गांव का विकास जैसी बातें करके प्रभावित गांवों से कंपनी सामाजिक दायित्व (सीएसआर) के पैसे से कुछ सामान बांट कर बांध के लिए झूठी अनापत्ति लेते रहे हैं। जखोल गांव की जमीन भले ही कम जा रही हो किन्तु सुरंग से बर्बादी का आकलन असंभव है।और जिन  गांवो की जमीन  ज्यादा जा रही है उनको भी मात्र जमीन के दाम पर भ्रमित करके और आश्वासन देकर चुप करने की कोशिश की गई है। वन अधिकार कानून 2006 के अंतर्गत बिना कोई अधिकार दिए और यह भ्रम फैलाकर की कानून मात्र आदिवासियों के हक की बात करता है, लोगों से व्यक्तिगत रूप से हस्ताक्षर कराए गए हैं।

पंचेश्वर व रुपालीगाड बांध की जनसुनवाईयो में भी यही किया गया है माटू जन संगठन ने इस पर भी आपत्ति उठाई थी और प्रशासन को जनसुनवाई से पहले ही मिलकर पूरे झूठ से अवगत कराया था किंतु पुरजोर विरोध के बावजूद बंद कमरों में जनसुनवाई की गई। स्थानीय संगठन भी बाहर धरना देते रहे नारेबाजी करते रहे किंतु प्रशासन और बांध कंपनी जनसुनवाई की नाटक पूरा किया।
घाटी के लोगो ने पर्यावरण को बचाने के लिए बांध को नकारा हैं । सरकार को चाहिए कि क्षेत्र के विकास के लिए वन अधिकार कानून 2006 लागू करें। लोगों को जंगल पर अधिकार दें, जीने की मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराए।

राजपाल रावत , गुलाब सिंह, सूरज रावत, रामबीर सिंह, ज्ञान सिंह, बलवीर सिंह, भगवान सिंह, प्रह्लाद सिंह पंवारकेशर सिंह, विमल भाई
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Tuesday, 29 May 2018

Press Note 29 May, 2018



{हिंदी अनुवाद अंग्रेजी के बाद है}

Question is not for or against Dam

 
 No meaning of public hearing without giving information about the dam, Dam company do not want that people know about the truth, ones public hearing happened then no say of people

for video click the link
In Uttarakhnad on 12th June, 2018 a public hearing has been announced for the Jakhol-Sankri hydro electric project (44MW) on Supin River in Yamuna Valley. The hearing has been organised despite the flouting of various legal provisions and ethical codes of conduct, all reminiscent of the infamous Pancheshwar dam public hearing from August, 2017. Legal documents, reports and other documents required for the same are not publicly accessible. There is also no information about the Environment Impact Assessment report, the Social Assessment report and the management plan.

In spite of the Forest Rights Act of 2006, Uttarakhand remains mostly untouched by its legal provisions. In an act of open defiance of the law, the Sub-District Magistrate of the area sent letters asking all village heads to acquire signatures of their villagers to escalate the Jakhol Sankri hydroelectric project. The letter was meant to record people’s objections about the dam, but they were ordered to give their consent.

The villagers who will be affected by the dam have been given no information regarding how much of their land will be taken away from them. These villages are being routinely visited by officials from the Sutlej Jal Vidyut Nigam under the guise of ‘Corporate Social Responsibility’. Along with distributing sewing machines to the villagers amongst other small benefits, the officials have been collecting signatures on blank sheets of paper. In contradiction to the feeling of trust the villagers earlier had for the officials, they are now worried that their signatures will be used for illegal activities.

According to the Environmental Impact Notification 2006, at least a month before any public hearing, the report is to be kept in the District Collectorate, District Industries Department, District Panchayat Office, and Environment Department and Pollution Control Board for the public to read. This is to ensure that people make informed decisions and opinions while addressing the hearing.
How can the people make any decisions regarding it if they haven’t read about the project and its effects on their lives and lands?

We found that villagers had no understanding of a public hearing. They were largely unaware of a hearing’s purpose, process and the paperwork. The affected villages are extremely vulnerable due to these reasons. Even when the heads of the villages are given notices, most of the time they are unable to understand the message. All reports are kept in the District office which is 190 kilometres away from these areas and the Block Office which is 30 kilometres away. Even if villagers spend thousands of rupees in travelling to these areas to gain access to the papers, the paperwork is in English. There is no Hindi translation and nor are the officials at these offices equipped to explain the document to the villagers.

The big question now is that even though the current state of affairs has been presented in front of the State and the Central government, they have paid no attention to it. From the District Administration to the State and the Central government, the people’s concerns are being viewed as anti-dam propaganda.

Why is the government fearful of citizens accessing information?

We met the District Collector of Uttarkashi and he gave us full assurance that he would follow the procedures. He also said that taking the first non-objection is not good. When we met with the member secretary of the Pollution Control Board in Dehradun, he said that he will not do anything beyond the jurisdiction of the board, nor will he make personal suggestions.

The Notification 2006 does not prevent the translation of any government document from English to local languages. This step ensures that documents like the Environment Impact Assessment Report, Management Plan and Social Assessment Report are accessible to everyone. However, in spite of these issues being raised to the Uttarakhand Government for the past 15 years, it has done nothing to make it simpler for its own people. The state government has taken no steps to arm people with information that will make them informed decision-makers.

We have also sent a letter to the Central Environment Ministry along with the District Collector, Uttarkashi District Collector, Pollution Control Board, to register certain demands for the sake of the people and the environment:

  1. All affected village and helmets should be provided the Environment Impact Assessment Report, Management Planning and Social Assessment Report in Hindi. Official and experts should help them understand the documents and the consequences of the dam.
  2. After the above is carried out a minimum of 1 month should be given before the public hearing is organised.
  3. The processes of the Forest Rights Act 2006 should be put into action in the affected areas immediately. They should receive forest rights effective immediately.
  4. The public hearing should be cancelled till further notice in the interest of the people.

Rajpal Rawat, Prahlad Pawar, Kesar Singh Pawar, Vimal Bhai. 


प्रश्न बांध के विरोध या समर्थन का नहीं
बिना कोई जानकारी दिए बांध की जनसुनवाई का कोई अर्थ नहीं, बांध कंपनी नहीं चाहती लोग सच्चाई जाने। एक बार जनसुनवाई हो गई फिर लोगो को बात रखने का कोई क़ानूनी प्रावधान नहीं

उत्तराखंड में यमुना घाटी में सुपिन नदी पर प्रस्तावित जखोल-साकरी जलविद्युत परियोजना, 44 मेगावाट, की जनसुनवाई 12 जून, 2018 को घोषित हुई है। इसमें वही कमियां, वही कानूनी उल्लंघन और नैतिक उल्लंघन की जा रहे हैं जो कि अगस्त 2017 में बहु प्रचारित पंचेश्वर बांध की जनसुनवाई में किये गए। यहां भी लोगों को जनसुनवाई क्यों हो रही है किन कागजो के आधार पर होती है ऐसी कोई जानकारी नहीं। पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट, प्रबंध योजना व सामाजिक आकलन रिपोर्ट के बारे में किसी को भी कोई जानकारी नहीं।
वन अधिकार कानून 2006 के अंतर्गत उत्तराखंड में अभी कहीं भी लोगों को अधिकार नहीं दिया गया है। किंतु इस क्षेत्र में उप जिलाधिकारी महोदय ने गांव के प्रधानों को एक पत्र दिया तथा हिदायत भी दी की इसमें सभी गांव वालों के हस्ताक्षर आ जाने चाहिए।इस पत्र जिसमें सभी तरह की अनापत्तियां लोगों से ली जानी है।
प्रभावित ग्रामीणों को यह नहीं मालूम कि किसकी कितनी जमीन परियोजना में जा रही है।  सतलुज जल विद्युत निगम प्रभावित गांवो में कभी सिलाई मशीन बांटना, कभी कुछ और छोटे-मोटे काम "कम्पनी सामाजिक दायित्व" के अंतर्गत कर रही है।लोगों को लगता कि कंपनी हमारे हित में है। मगर उसके साथ ही कम्पनी वाले लोगों से सादे कागजो पर हस्ताक्षर करवाते रहें हैं उससे लोगों को डर है की इन हस्ताक्षरों को न जाने किन कामों में इस्तेमाल  किया जाएगा ? परियोजना के बारे में कोई और जानकारी नहीं है। 
पर्यावरण अधिसूचना 2006 के अनुसार, किसी भी जन सुनवाई से एक महीना पहले रिपोर्ट जनता को पढ़ने के लिए जिलाधीश कार्यालय, जिला उद्योग विभाग, जिला पंचायत कार्यालय, व पर्यावरण विभाग और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में रखी जानी होती है। ताकि जनता जनसुनवाई से पहले इन रिपोर्ट्स का अध्ययन करके जनसुनवाई में अपनी राय रख सके।
किंतु बिना बातों को पढ़े लोग अपनी क्या बात कर पाएंगे?
हमने पाया कि लोगों को, जनसुनवाई वास्तव में क्या होती है ? उसके नियम क्या होते हैं ? वो क्या कागजात होते हैं जिनके आधार पर जनसुनवाई होगी? इनके बारे में कुछ नहीं मालूम। इन गांवो में अखबार भी नहीं आता। गांव के प्रधानों को अगर कोई सूचना दे दी गई है तो उसका अर्थ नहीं समझ पाए हैं. फिर ये तमाम कागजात अंग्रेजी में लगभग 190 किलोमीटर दूर जिला कार्यालय में रखें हैं। ब्लॉक कार्यालय भी लगभग 30 किलोमीटर दूर है। यदि किसी तरह लोग सैकड़ों हजारों रुपये खर्च करके इतनी दूर चले भी जाएं तो अंग्रेजी के सैंकड़ों कागजात कैसे पढ़ पाएंगे ? इन कार्यालयों में भी इतनी अंग्रेजी  समझाने की कोई व्यवस्था नहीं है।
यह बहुत बड़ा प्रश्न है राज्य व केंद्र के सामने लाने के बावजूद सरकारे ध्यान नहीं दे रही है । जिला प्रशासन से लेकर राज्य और केंद्र सरकार भी इस मांग को बांध विरोधी गतिविधि मानती है।
 बिना जानकारी जनसुनवाई का मतलब होता है कि भविष्य में लोग अपनी छोटी छोटी मांगों के लिए संघर्ष करते रहते हैं । इसी परियोजना से नीचे निर्माणाधीन नैटवार मोरी परियोजना से प्रभावित आज धरने पर बैठे हैं।सरकारी लोगों को जानकारी देनी से क्यों डरती हैं?
हमने उत्तरकाशी के जिलाधीश को मिलकर पूरी परिस्थिति बताई उन्होंने आश्वासन दिया कि वे  प्रक्रियाओं का पालन करेंगे।  पहले अनापत्ति लेना सही नही। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के नए सदस्य सचिव को देहरादून में जब मिले  तो उन्होंने कहा कि बोर्ड की जो जिम्मेदारी दी गई है उसके आगे वे कुछ नहीं करेंगे, ना ही कोई सुझाव अपनी ओर से आकर को देंगे।
2006 की अधिसूचना किसी भी सरकार को अंग्रेजी से स्थानीय भाषा में अनुवाद करने व लोगों को पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट, प्रबंध योजना व सामाजिक आकलन रिपोर्ट  की जानकारी समझाने से नहीं रोकती है। किंतु उत्तराखंड सरकार  के साथ पिछले 15 वर्षों से लगातार इन बातों को उठाने और इन बिना जानकारी जनसुनवाई के गलत नतीजों को देखने के बावजूद भी राज्य सरकार ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया है।
हमने जिलाधीश  हमने उत्तरकाशी जिलाधीश  वह प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के के साथ केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय  को भी  पत्र भेजा हैं और उनसे इन सब परिस्थितियों में जनहित और पर्यावरण हित में यह मांग कि है:--
1- सभी प्रभावित गांवों और तोंको में सक्षम अधिकारी द्वारा विशेषज्ञों द्वारा पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट, प्रबंध योजना व सामाजिक आकलन रिपोर्ट हिंदी में उपलब्ध कराई व समझाई जाएं 
2-इस प्रक्रिया के होने के कम से कम 1 महीने बाद ही जनसुनवाई का आयोजन हो।
3- वन अधिकार कानून 2006 के अंतर्गत तुरंत क्षेत्र में प्रक्रिया चालू हो व खासकर प्रभावित क्षेत्र के लोगों को पहले वन अधिकार दिए जाएं।
4- फिलहाल जनहित में अगली सूचना तक जनसुनवाई रद्द की जाए।

राजपाल रावत, प्रहलाद पवार , केसर सिंह पवार , रामबीर,  विमल भाई
 

Monday, 26 March 2018

प्रेस नोट: 26-3-2018


                     पिंडर को अविरल बहने दो




"पिंडर को अविरल बहने दो हमें सुरक्षित रहने दो"  इस नारे के साथ पिंडर घाटी में लोगों ने प्रदर्शन किया । विभिन्न गांव से आए लोगों ने देवाल कस्बे में सरकार के सामने मजबूती से फिर से प्रदर्शन किया। पिंडर घाटी को जो राष्ट्रीय नदी गंगा की एकमात्र सहयोगिनी नदी बची है जिस पर कोई बांध नहीं है उसे वे ऐसे ही अविरल बहती देखना चाहते हैं।

 2010 उसके बाद 2013 की आपदाओं ने घाटी का स्वरूप काफी बदल दिया। थराली कस्बे का एकमात्र पुल जो आर-पार को जोड़ता है वह भी टूट गया था। उस पर मरम्मत करके काम चलाया जा रहा है । देवालचेपड़ुसुनाऊ हो या नारायणबगड़ गांव होसभी जगह नदी का रास्ता बदल गया है।
लोगों का विरोध 2009 की पहली जनसुनवाई से चालू है सरकारों ने 2010 फिर 2011 में धोखे से जनसुनवाई करके परियोजना स्वीकृति की कोशिश की। किंतु अप्रैल 2011 की लोक जनसुनवाई में लोगों ने उसका उत्तर दिया हमें बांध नहीं बल्कि बहती पिंडर गंगा चाहिए।

27 दिसंबर 2011 को विशेषज्ञ आकलन समिति ने जिन मुद्दों को उठाया था उन पर कंपनी ने गंभीरता से न तो काम किया है ना ही उसमें लोगों की भागीदारी है जानकारी का ना दे ना तो बांध कंपनियों की सोची समझी साजिश ही है। हां गांवों में सिलाई मशीन बिजली के खंबे या सौर ऊर्जा के बल्ब बांट कर लोगों को इस भ्रम में डालना कि कंपनी बहुत अच्छा काम करती है। जबकि कंपनी सामाजिक दायित्व के तहत ऐसा करना उनकी जिम्मेदारी है।

सही सर्वे करना सही जानकारी निकालना और लोगों के साथ उसको सांझा करना इस काम में वह हमेशा पीछे हैं । क्योंकि वह जानते हैं कि सुरंग बनने की वजह से  ऊपर के गांवो को नुकसान होगा। देवसारी बांध में पंच प्रयाग डूबेगा पिंडर नदी और उसके लोगों का जीवन दुष्कर होगारोजगार के दावे झूठे सिद्ध होंगे,प्रभावितो का पुनर्वास भी असंभव ही है जमीन तो देंगे नहींजलवायु परिवर्तन के कारण नदियों में पानी की अनिश्चितता है पिछले वर्षों से बर्फ के ग्लेशियर कम हो रहे हैंदेश में ऊर्जा की अधिकता है देश के ऊर्जा मंत्री 2016 में इसकी घोषणा कर चुके हैं इससे संबंधित विद्युत नियामक बोर्ड की रिपोर्ट भी सामने आई है।

बांध की पर्यावरण संबंधी रिपोर्ट व सर्वे 10 वर्ष पुराने हैं जबकि इस बीच 2013 की आपदा के बाद तो खास करके नदी क्षेत्र की परिस्थिति काफी बदल गई है माननीय सर्वोच्च न्यायालय के अगस्त 2013 के आदेश के बाद  किसी भी बांध की किसी भी तरह की स्वीकृति पर रोक लगी थी।सरकारी में बांध कंपनी इन सभी तथ्यों को नजरअंदाज करके बांध को आगे बढ़ाना चाहती है।

हम सरकार को चुनौती देते हैं कि बांध की पर्यावरण और संबंधी सर्वे दोबारा लोगों के साथ लोगों को साथ लेकर किए जाएं। जिसके बाद लोगों को हिंदी में पूरी जानकारी देकर पुनः खुली  जनसुनवाई का आयोजन किया जाए। 10वर्ष पुरानी आंकड़ों के आधार पर बांध को आगे बढ़ाना गलत होगा। यह भी मुख्य बात है कि अभी घाटी में वन अधिकार कानून 2006 के अंतर्गत किसी को भी वन अधिकार तक नहीं दिया गया है

हम इन सब का सामना करेंगे संघर्ष करेंगे।

दिनेश मिश्रा बलवंत आगरी,  दिनेश पुरोहित ,सुभाष पुरोहितजीवन मिश्रामदन मिश्राकेडी मिश्रामहिपत सिंह कठैतविमल भाई



Wednesday, 28 February 2018

Press Note: 28 February 2018


{हिंदी अनुवाद अंग्रेजी के बाद है }

Press Note: 28 February 2018

Ganga, Yamuna to  Mahakali Rivers only dam talks: Without resolving long waiting dam problems

Uttarakhand government has not learned any lesson from the previously built dams and now all the efforts are being made to further the new dams. The government seems to have a step ahead in extending its direct or indirect support to the contractors and mafias.

Encouraging the liquor and mining mafias, the government initiated all the possible measures to clear the environmental hindrances, clearances and legal hurdles to further the dams.

Recently the honorable Chief Minister Shri Trivand Sing Rawat visited Delhi and met Mr. Nitin Gadkari. Prime Minister's Office became active for the uniformity in the affidavits filed in the Supreme Court by the Ministry of Environment and the Ministry of Energy. Chief Secretary of the Prime Minister convened a meeting of officials of both the ministries on February 3. On February 16, efforts were made to null over the obstacles of all the pending projects. But there was no talk on the compensation not given so far for the rehabilitation of the Tehri dam displaced by the dam company. But Yes! Proposed Kisau HEP and Pancheshwer multiple HEP are on the top priority in the Government talks.

It is known that the Honorable Supreme Court, taking self-cognizance post disaster of 2013, had stayed all kinds of sanctions of the dams in Uttarakhand on August 13, 2013. As the lawsuit proceeded in the Supreme Court, the order given by the Supreme Court gradually got weakened. Firstly, all the projects were banned. Then the matter came up to the Ganga valley and finally the implementation of the order of the Supreme Court's ban-restricted only upto 24 projects. On the direction of the Honorable Supreme Court, the Ministry of Environment constituted a committee under the chairmanship of Mr. Ravi Chopra, which gave concrete proofs of the role of the dams in the disaster of June 2013 in its findings and suggestions/recommendations. Wildlife Institute, Uttarakhand,in its report recommended to stop 24 projects, which the Supreme Court has stayed. The Ministry of Environment formed another committee to weaken the Chopra committee, which was chaired by Mr. Das, who was Vice Chairman of the Ravi Chopra Committee. The committee recommended 6 major projects out of the 24 projects which were stopped by the Supreme Court, to be pursued with certain conditions following re-investigation.
If we talk about only rehabilitation leaving the environmental issues aside, the government does not have land to provide it to the displaced people. Then how can they uproot them? On one hand, the government is making a department for the prevention of migration and on the other hand, new plans are being devised one after another to displace, which blatantly violates the laws. It is a matter of shame that the government, which internationally shows pro-environmental concern, the same government averts its eyes from the exploitation of the environment in their own country and the states.
The government should respond to these questions prior to furtherance of new dams.

Polices for the benefits of the project affected people never publicize or never implemented for them
·         12% free electricity to the state to meet the environment and rehabilitation challenges.  
·         1% profit from the project to use for LOCAL AREA DEVELOPMENT FUND.
·         Every month 100 Unit of free electricity given to all affected families for next ten years, form the day of production.

List of questions related to the Tehri Dam is very long, some vital questions among them are: -

1.      Why even after 12 years of the submergence of ten bridges of Bhagirathi and Bhilagnan River into the lake of Tehri dam, four bridges in lieu of them could not be completed?
2.      The government will have to answer that the Tehri dam commissioned in 2005, and due to non-completion of the rehabilitation, it was decided in November 2017 to keep the reservoir up to a height of 815 meters i.e. under the total height of the dam which is 835 M.,, people's lives between 815 to 835 meters were made uncertain and unsafe?
3.      Why was the land-based rehabilitation not given to the 415 people according to the affidavit filed in the Supreme Court?
4.      Nearly 40 villages on both sides of the dam reservoir became susceptible to landslide. In the villages where the landslides occurred, and the houses collapsed, why no compensation to them yet?
5.      Many people and cattle have died due to lack of wire fencing in the lake of Tehri Dam, which is yet to be accounted for.
6.      Why did the work on the proposed policy for these villages not move further whereas the Supreme Court has entrusted its responsibility to the Center, State Governments and Rehabilitation Director?
7.      Why have the thousands of displaced people of the rehabilitation sites of Haridwar, Pathri Part 1, 2, 3 and 4 not been given land rights till date? Whereas the state government had filed an affidavit in the Supreme Court in 2003 and it was said to immediately give land rights to them.
8.      No information about the green belt around the Tehri and Koteshwer Dam reservoir.
9.      Due to lack of drinking and irrigation water project affected people have to sell their rehabilitation sites. Why not water was provided when the Ganga canal is only 500 meter away?

Why were the problems of other dams in Uttarakhand not resolved?
1.      More than 6 people died due to irregularities in Manari Bhali 1 and 2.
2.      The water of the Alaknanda River was stopped in the Srinagar dam. Why is the government not able to supply water to the city from the dam?
3.      The dam companies are putting debris in Alaknanda, Bhagirathi and other rivers in violation of the environmental standards.
4.      The government is seen standing in favor of the companies on imposition of penalty by the NGT.
5.      Why not tunnel affected people of Vishnugad HEP till today not been rehabilitated?
6.      Why Vishnugad-Peepalkoti HEP affected people are facing court cases whey they just ask security of their land and houses?

Landslide prone 350 villages are waiting for land to live. No land for them. What is the hurry for the dams? State Government has to answer first before mad run for the dams from the Ganga, Yamuna to Mahakali rivers in a green state.


Vimalbhai & Puran Singh Rana



गंगा, यमुना से महाकाली तक बांधो पर चर्चा: लंबित समस्याओ से मूंदी आंखे
उत्तराखंड सरकार ने पुराने बांधों से अभी कोई है समझ नहीं ली है। मगर नए बांधो  को आगे बढ़ाने के लिए हर तरह की तैयारियां और कोशिशें जारी हैं. ठेकेदारों को और खास तरह के माफियाओं को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से सहयोग देने का काम करने में यह सरकार भी पीछे नहीं है।
शराब माफिया व खनन माफिया को बढ़ावा देते हुए बांधों पर भी को आगे बढ़ाने के लिए पर्यावरणीय रुकावटों, स्वीकृतियों व कानूनी रुकावटों को दूर करने के सारे उपाय शुरू किए। हॉल ही में मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र रावत जी दिल्ली जाकर श्री नितिन गडकरी जी को मिले. पर्यावरण मंत्रालय और ऊर्जा मंत्रालय के बीच सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल किए जा रहे शपथ पत्रों में एकरूपता होने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय सक्रिय हुआ. प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव ने 3 फरवरी को दोनों मंत्रालय के अधिकारियों की एक बैठक बुलाई. फिर 16 फरवरी को सभी लंबित परियोजनाओ की बाधाओ को दूर करने के प्रयास हुए. किन्तु टिहरी बांध विस्थापितों के पुनर्वास के लिए बांध कम्पनी द्वारा पैसा न देने पर कोई बात नहीं हुई.
ज्ञातव्य है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 2013 की आपदा के बाद स्वयं संज्ञान लेते हुए 13 अगस्त 2013 को उत्तराखंड के बांधों की सभी तरह की स्वीकृतियों पर रोक लगाई थी. सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा जैसे-जैसे आगे बढ़ा, सर्वोच्च न्यायालय का ही दिया हुआ आदेश कमजोर होता गया। पहले सभी परियोजनाओं पर रोक लगी फिर, मामला गंगा घाटी तक आया और फिर मात्र 24 परियोजनाओं तक ही सुप्रीम कोर्ट की रोक का आदेश लागू हो पाया। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर पर्यावरण मंत्रालय ने श्री रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई. जिसने अपने महत्वपूर्ण सुझावों के साथ बांधों की जून २०१३ की आपदा में भूमिका के ठोस सबूत दिए। वन्य जीव संस्थान,  उत्तराखंड ने अपनी रिपोर्ट में 24 परियोजनाओं को रोकने की सिफारिश की थी जिनको सर्वोच्च न्यायालय ने रोक कर के रखा है। पर्यावरण मंत्रालय ने इस समिति को कमजोर करने के लिए एक और समिति बनाई जिसके अध्यक्ष रवि चोपड़ा कमेटी के उपाध्यक्ष श्री दास बनाए गए. इस समिति ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रोकी गए 24 परियोजनाओं में से 6 बड़ी परियोजनाओं को पुनः जांच करके कुछ शर्तों के साथ आगे बढ़ाने की सिफारिश की।
अगर हम पर्यावरण की बात छोड़ भी दे और सिर्फ पुनर्वास की बात ही करे तो सरकार कॆ पास विस्थापितों को देने के लिए जमीन ही नहीं है। तो आप लोगों को कैसे उजाड़ सकते हैंसरकार एक तरफ पलायन रोकने के लिए विभाग बना रही हैं दूसरी तरफ उजाड़ने के लिए एक के बाद एक योजनाएं बनाई जा रहीं है। जिनमे कानूनों का घोर उल्लंघन किया जाता है. शर्म की बात यह है कि जो सरकार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण की हिमायत करती हैं पर्यावरण की बात है कि जो सरकारी अंतरराष्ट्रीय स्तर  पर  पर्यावरण की हिमायत करती है वही सरकारॆ अपने देश और राज्य में पर्यावरण की बर्बादी करने में चुकती नहीं। सरकार नए बांधो सॆ पहलॆ इन सवालॊ का जवाब दॆ.
परियोजना प्रभावित लोगों की लाभकारी नीतियों को ना तो प्रचारित किया गया ना ही लागू किया गया.
·         पर्यावरण और पुनर्वास की चुनौतियों का सामना करने के लिए राज्य को मिलने वाली 12% मुफ्त बिजली.
·         स्थानीय क्षेत्र विकास कोश {परियोजना प्रभावित} के लिए परियोजना से मिलने वाली 1% मुफ्त बिजली.
·         प्रत्येक प्रभावित परिवार को उत्पादन चालू होने के अगले 10 वर्ष तक 100 यूनिट बिजली प्रतिमा मिलने का प्रावधान.
टिहरी बांध से जुड़े प्रश्नों की सूची तो बहुत लंबी है जिनमे से कुछ ज्वलंत सवाल:--
  1. भागीरथी और भिलगनानदी के 10 पुल टिहरी बांध की झील में डूबे जिसके बदले  में चार पुल बनने थे 12 वर्ष के बाद भी अभी तक पूरी क्यों नहीं हुए?
  2. सरकार को बताना होगा 2005 से टिहरी बांध का काम चालू हो गया पुनर्वास पूरा ना होने के कारण  2017 नवंबर को बांध की जलाशय का जलाशय  815 मीटर की ऊंचाई तक ही रखने का फैसला किया गया यानी  बांध की कुल ऊंचाई से, 815 मीटर के बीच  के लोगों का भविष्य अनिश्चित और असुरक्षित कर दिया गया?
  3. सर्वोच्च न्यायालय नहीं दाखिल शपथ पत्र के अनुसार 415 लोगों को भूमि आधारित पुनर्वास क्यों नहीं दिया।
  4. बांध जलाशय के दोनों तरफ के लगभग 40 गांव नीचे धसक रहे है जिन गावों में मकान गिर गए भूस्खलन हुआ, उनका मुआवजा भी अभी तक क्यों नहीं?
  5. टिहरी बांध की झील में तार बाड़ ना होने के कारण कितने ही लोग और मवेशी मारे गए हैं जिनका हिसाब तक नहीं.
  6. टिहरी बांध जलाशय के उपर हरित पट्टी का पता नहीं.
  7. इन गांवों के लिए प्रस्तावित सम्पाषर्विक  नीति पर आगे काम क्यों नहीं बड़ा जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी जिम्मेदारी केंद्र, राज्य सरकारो व पुनर्वास निदेशक पर डाली है।
  8. हरिद्वार के पुनर्वास स्थलों पथरी भाग 1, 2, 3, 4 के हजारों विस्थापितों को आज तक भूमिधर अधिकार क्यों नहीं दिया गया? जबकि 2003 में राज्य सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय ने शपथ पत्र देकर यह अधिकार तुरंत देने की बात कही थी।
  9. सिंचाई और पीने के पानी की कमी के कारण विस्थापित अपनी जमीने बेचने के लिए मजबूर हो रहे है. सरकार इस समस्या का हल क्यों नहीं करती जबकि 500 मीटर पर गंग नहर बहती है?
उत्तराखंड के दूसरे भी तमाम बांधो की समस्याओ का समाधान क्यों नहीं किया?
  1. मनेरी भाली 1 और 2 कि अनियमितताओं के कारण 6 से ज्यादा लोग मारे गए हैं.
  2. श्रीनगर बांध में अलकनंदा नदी का  पानी रोक दिया गया। बांध से शहर की जरूरत है कि लिए भी पानी क्यों नहीं दे पा रही हैं सरकारे
  3. अलकनंदा भागीरथी व अन्य नदियों में बांध कंपनियां परयावरणीय मानकों का उल्लंघन करते हुए मलबा डाल रही हैं.
  4. एनजीटी कॆ जुर्माना लगाने पर सरकार बांध कंपनियों के ही पक्ष में खड़ी नजर आती है.
  5. विष्णुप्रयाग बांध की सुरंग से प्रभावितों का उचित पुनर्वास क्यों नहीं किया गया.
  6. विष्णुगाड-पीपलकोटी बांध के प्रभावित अपनी जमींन मकानों की सुरक्षा के लिए आवाज़ उठाने के कारण क्यों मुकद्दमे झेल रहे है  
भूस्खलन से प्रभावित 350 गाँवो को राज्य सरकार नहीं बसा पाई है चूँकि उनके लिए जमीं नहीं है. फिर बिना जमींन दिए लाखो लोगो को उजाड़ने के लिए सरकार क्यों इतनी जल्दी कर रही है. राज्य सरकार को इस हरित राज्य में गंगा, यमुना से महाकाली नदियों तक बांधो की पागल दौड़ से पहले इन सवालो का जवाब देना होगा.
विमलभाई  एवं पूरन  सिंह राणा