Sunday, 30 June 2013

Press Note- 30-6-2013





The Alaknandaganga  has cleared it's path:
Vishnupyrag HEP (400 MW) collapsed
(see photos after the new)
In the recent flood in Alaknandaganga (near Badrinath Temple). When the waters rose, dam authorities failed to open all the gates of the dam. Due to this, a 2 K.M. long reservoir was formed upstream of the dam. Pressure from the water broke the dam and went on to wipe out the Lambagad Village market.

Some shops in the Lambagadh market were already washed away when water was released unannounced from the dam in 2012. When villagers asked for compensation from dam authorities, dam authorities threatened to file police cases against them.
This year, water from the upper reaches of Alaknandaganga came unannounced and demolished the Vishnupyrag HEP.
This was the first dam to be built under a Private Public Partnership on the Alaknandaganga. This dam has also destroyed Vishunupryag, the confluence of the Dhouliganga and Alaknandaganga

We have news that Dams on Mandakini River such as Phata-Buyong HEP and Singoli-Bhatwari HEP badly damaged. Small dams on Madhaymaheshwer and Kali river are also badly damaged. These small dams were funded by Asian Development Bank.

The construction of all these HEPs are responsible for big Damage in the whole Gangavalley.

This incident once again strengthens our argument that the Himalayas cannot support big HEPs or other big structures. The government and planners must understand the floods as an indication from nature and stop the madness of HEPs.

              Vimalbhai      and       Briharshraj Tadiyal
Earlier view of Vishnupryag HEP (400MW), View from downstream 5 June, 2008

Earlier view of Vishnupryag HEP (400MW), View from upstream 20 February, 2012
Destroyed Vishnupryag HEP (400MW), View from the downstream 26 June, 2013

Destroyed Vishnupryag HEP (400MW), View from the upstream 26 June, 2013

Destroyed Vishnupryag HEP (400MW), Alaknandaganga flowing on the left side, made new path for herself. View from the downstream of the dam. 26 June, 2013
Destroyed J. P. company  Vishnupryag HEP (400MW) dam compound, View from the downstream taken on 26 June, 2013

Wednesday, 26 June 2013

26-06-2013 उत्तराखंड से बर्बादी की रिर्पोट-1





श्रीनगर जल विद्युत परियोजना हुई तबाही

...............श्रीनगर से सीताराम बहुगुणा

अलकनन्दा नदी में आयी विनाशकारी बाढ़ ने श्रीनगर में भी अपना तांडव दिखाया। नगर के एक बड़े हिस्से को पूरी तरह से बर्वाद कर दिया। बाढ़ ने एसएसबी अकादमी का परिसर, आईटीआई परिसर बुरी तरह तबाह हो गया। 70 आवासीय भवनों में रहने वाले सौ से अधिक परिवार बेघर हो गये हैं। इन मकानों में दस से बारह फीट तक मिट्टी भर गयी है। घर का कोई भी सामान काम का नहीं रह गया है। 1970 में बेलाकूची की बाढ़़ की रिर्पोटिंग करने वाले वरिष्ठ पत्रकार डा0 उमाशंकर थपलियाल का कहना है कि उस समय भी श्रीनगर में अलकनंदा नदी में लगभग इतना ही उफान था लेकिन तबाही इतनी नहीं हुई थी।
श्रीनगर में मची भीषण तबाही के लिए निर्माणाधीन श्रीनगर जल विद्युत परियोजना जिम्मेदार है। परियोजना का निर्माण करवा रही जीवीके कंपनी ने  डैम साइट कोटेश्वर से किलकिलेश्वर तक नदी किनारे लाखों ट्रक मिट्टी डंप की। इस कारण इस क्षेत्र में नदी की चौड़ाई कम हो गयी। गत 16 एवं 17 जून को आयी बाढ़ ने इस मिट्टी को काटना शुरू किया। जिससेे नदी के जलस्तर में दो मीटर तक की बढ़ोतरी हो गयी। सीमा सुरक्षा बल के परिसर में जहां बाढ़ ने तांडव मचाया वहां श्रीयंत्र टापू से नदी अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षर न् आकार में बहती है, और उससे आगे नदी की चैड़ाई अचानक कम हो जाती है। इस कारण उस दिन जब बाढ़ के साथ श्रीनगर परियोजना की मिट्टी आयी तो वह उतनी मात्रा में आगे नहीं जा पायी जितनी की बाढ़ प्रभावित क्षेत्र तक आयी थी। फलस्वरूप पानी के साथ आयी यह मिट्टी एसएसबी, आईटीआई तथा शक्ति विहार क्षेत्र में जमा होने लगी। क्षेत्र से जब बाढ़ का पानी उतरा तो लोगों के होश उड़ गये। इस क्षेत्र के 70 आवासीय भवन एसएसबी अकादमी का आधा क्षेत्र, आईटीआई, खाद्य गोदाम, गैस गोदाम, रेशम फार्म में 12 फीट तक मिट्टी जमा हो गयी। कई आवासीय भवन तो छत तक मिट्टी में समा गये हैं। इन घरों में रहने वाले लोगों की जीवन भर की पूंजी जमीदोज हो गयी।
एक प्रभावित विनोद उनियाल का कहना है कि इस बाढ़ में उनके घर के अंदर कमरों में आठ फीट तक मिट्टी जमा हो गयी है। जीवन भर की कमाई का सारा सामान बर्बाद हो चुका है। उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि जीवन अब कैसे चलेगा। शक्ति विहार मोहल्ले में किराना की दुकान से आजीविका चलाने वाले संतोष चन्द्र नौटियाल पर तो इस आपदा की दोहरी मार पड़ी है। मकान के साथ साथ इनकी दुकान का सारा सामान मलबे में दफन हो गया है। जिससे उनके सामने रोजी-रोटी का संकट भी खड़ा हो गया है।
एससबी अकादमी के निदेशक एस0 बंदोपाध्याय की माने तो अकेले अकादमी को लगभग सौ करोड़ का नुकसान हुआ है। इस हिसाब से देखा जाय तो श्रीनगर क्षेत्र में कुल नुकसान का आंकड़ा तीन सौ करोड़ तक जा सकता है।
इसके अलावा देवप्रयाग में भी जलविद्युत परियोजनाओं की मिट्टी से कई सरकारी एवं आवसीय भवन अटे पड़े हैं। श्रीनगर जल विद्युत परियोजना द्वारा नदी किनारे अवैघ रूप डंप की गयी मिट्टी अब गायब है। और नदी क्षेत्र  पूर्व की तरह दिखायी देने लगा है। श्रीकोट में इस तरह की तबाही नहीं हुई वहां भी नदी किनारे बहुत से मकान हैं। दरअसल श्रीकोट के कुछ आगे चैरास झूला पुल से किलकिलेश्वर तक परियोजना की ज्यादातर मिट्टी डंप की गयी थी। इस कारण श्रीकोट इस तबाही से बच गया।
भू-वैज्ञानिक डा0 एस0पी0 सती का कहना है कि उत्तराखंड में बाढ़ से हुई तबाही मे यहां बन रही जल विद्युत परियोजनाओं का बहुत बड़ा हाथ है।
श्रीनगर जल विद्युत परियोजना की पांच लाख घनमीटर मिट्टी अलकनंदा के किनारे डंप की गयी। जब नदी में बाढ़ आयी तो उससे तेजी से यह मिट्टी पानी के संपर्क में आयी और इससे नदी का आकार एकाएक बढ़ गया। क्यों कि यह मिट्टी श्रीनगर के ठीक सामने थी इसलिए यह बाढ़ के कारण श्रीनगर के निचले इलाकों मेें जमा हो गयी और तबाही का कारण बनी।

(देवप्रयाग से लगभग 30 किलोमीटर, अलकनंदागंगा पर बनी 330 मेगावाट की यह परियोजना तमाम पर्यावरणीय शर्तो को दरकिनार करके र्सिफ और र्सिफ राजनैतिक दवाब के कारण आगे बढ़ाई गई है। इसकी जानकारी हम दे सकते है। -विमलभाई)

Monday, 24 June 2013

Press Note:- 24-06-2013

प्रैस विज्ञप्ति                                                      24-6-2013
 प्रस्तावित लखवार बांध के क्षेत्र में उफनती यमुना
पहले ही था बर्बादी को निमंत्रण

15 जून के लगभग उत्तराखण्ड में मानसून के आगमन से पहले ही बर्बादी आई। तीन दिन लगातार बारिश होती रहीनदियांनाले भयंकर रूप से उफनेपहाड़ सरकेजहां पर कभी मैदान थाजहां पर कभी हरियाली थीवहां पर अचानक से नये स्त्रोत फूटेंऔर इन सब के बीच में उत्तराखण्ड में चल रही चार धाम की यात्रा की जोर-शोर की रौनक अचानक एकाएक रूक गयी। हजारों यात्री जगह-जगह फंसें। उनको लाने का काम भी उतनी तेजी से नहीं हो सकता था क्योंकि रास्ता बुरी तरह टूटे थे। किन्तु जितनी तेजी से हो भी सकता था वो नही हुआ। हैलीकॉप्टर ही एक साधन बनता है। किन्तु हर समय देहरादून में हैलिकॉपटरों के लिये तेल की उपलब्धता भी नही रही। 19 से 23 तक का जो सांस लेने का समय सरकार को मिला था उसका पूरा इस्तेमाल नही हो पाया है। अब वर्षा फिर शुरु हो गई है।

सैटेलाईट फोनतापोलिन यानि प्लास्टिक के हल्की बड़ी चादरें आदि जंहा रास्ते टूटे है वहंा 19 से 23 तक पंहुचाने चाहिये थे जो नही पंहुचाये गये।   मोबाईल टॉवरों को बिजली ना होने की दशा में प्रचुर मात्रा में डीजल तक का प्रबंध सरकार ने नही किया हुआ था। लोगो को इस परिस्थिति में कैसे व्यवहार करना चाहिये ऐसी घोषणा-ब्यान तक सरकार लोगो को पर्चाटी0वी0 आदि के माध्यम से नही पंहुचा पाई। जो कि राज्य और केन्द्र सरकार की आपदा प्रबंधन योजना की पूरी पोल खोल कर रख देता है।

प्राकृतिक आपदा को तो नही रोका जा सकता था। किन्तु यदि बांध ना होते और नदी का रास्ता हमने खाली छोड़ा होता तो आपदा के बाद हो रही तबाही को काफी कम किया जा सकता था। इस सारे प्रकरण से हमे प्रकृति के संकेत और अपनी गलतियों को समझना होगा। यह समय है हमें पूरी ईमानदारी से गलतियों को समझ कर आगे की योजना बनाने का। यह भी समझना चाहिये की आज जो नुकसान हुआ है उसकी तैयारी सरकार ने ही की थी।

नदी किनारों पर राज्य सरकार की कोई निगरानी नही है। होटलों से लेकर तमाम तरह के मकान आदि बनाने के लिये किसी तरह के किसी नियम का पालन नही किया गया मालूम पड़ता है। 4 से 5 भूकंप जोन वाले क्षेत्र मेंनदी के किनारों पर मकान/होटल बनाने की इजाजत किसने दी?

आपदा की पूरी परिस्थिति में राज्य सरकार पंगु और अपने ही राज्य के नागरिको के सामने शर्मसार नजर आई है। सरकार/प्रशासन नही नजर आया‘ यह वाक्य राज्य में आये तीर्थ यात्रियों से लेकर राज्य राज्य हर नागरिक की जबान पर आया है। सरकार जिस आपदा प्रबंधन पर सेमिनार-विदेश यात्रायें करती रही है उसके लिये जमीनी स्तर पर कुछ नही दिखा है। किसी तीर्थ स्थल पर कोई आपात्तकालिन परिस्थिति के मुकाबले गांवों में कोई ट्रेनिंग या बचाव के साधन नही उपलब्ध है। जिससे संपत्ति नुकसान कॉफी हुआ है। ऐसा कोई तंत्र भी विकसित नही किया गया। जबकि तीर्थयात्रियों की सख्ंया प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है।

मैदानी क्षेत्र जैसा ही ढांचागत विकास पहाड़ गलत साबित हुआ है। छोटे राज्य में सत्ता की धरपकड़आत्मप्रचार और बांध से लेकर कोका कोला कंपनियों की तरफदारी से ही राजनेताओं को फुर्सत नही हो पा रही है कि वे राज्य के सही विकास की ओर ध्यान दें। वे विकास को बड़े ढ़ांचे बनाने तक ही सीमित मानते है।

राज्य के वन विभाग पर भी बड़ा प्रश्न है। बांधों के बनने के समय जलसंग्रहण क्षेत्र में होने वाले वनीकरणचकबांध आदि का ना होना। भागीरथीगंगा व अलकनंदागंगा अधिक गाद वाली नदी के रुप में जानी जाती है।

चारों की तीर्थ बहुत संवेदनशील इलाको में है। वहंा जिस तरह से निर्माण हुआ है वो केदारनाथ में खतरनाक सिद्ध हुआ है। गंगोत्री-यमुनोत्री के रास्ते टूट गये हैं। हजारों लोग वहंा फंसे थे।

अभी गंगोत्री और बद्रीनाथ से यात्रियों को निकाला जा रहा है। भागीरथीगंगा में उत्तरकाशी शहर में खाने के लंगर लगे है। और उपर रास्ते में स्थानीय लोगो ने व भटवाड़ी से नीचे माटू जनसंगठन के साथियों ने भी यात्रियों को स्थानीय संसाधनों से खाद्य सामग्री मुहैया कराई।

दरअसल चारधाम की तीर्थयात्रा को यात्रा को धर्म के नाम पर पर्यटन में बदल दिया गया है। साधु संत वहंा कथाओं का आयोजन करते है। गंगोत्री में वही कथा सुनने वाले ज्यादा संख्या में फंसे थे। पिछले कुछ वर्षो में चारधाम तीर्थ यात्रा और  हेमकुण्ड साहिब की यात्रा को बढ़ावा खूब दिया गया हैजो लोगो की आमदनी का कुछ साधन भी बनी। किन्तु पर्यटन से आय के नाम पर जो अनियोजित निर्माणसड़के बनी है उसके कारण यह नुकसान बहुत ज्यादा हुआ है। निर्माण स्वीकृति देने में हुये आर्थिक भ्रष्टाचार को भी नजरअंदाज नही किया जा सकता है। कुछ के फायदे के कारण आज हजारों की जान गई हैहजारों यात्री फंसे पड़े है। स्थानीय लोगो का भविष्य भी बहुत बिगड़ा है। पहले की पैदल यात्रा के स्थान पर हर तीर्थ पर सड़के ले जाना और भयंकर गति से निर्माण ने स्थिति को और बिगाड़ा है।

हिमालय की पारिस्थितिकी बहुत ही नाजुक है। भविष्यवाणी करना असंभव होता है। वैसे भी सरकार के पास इसकी कोई व्यवस्था तक नही है। इस दुर्घटना में यह निकल कर आया है। जो कि खतरनाक सिद्ध हुआ है। 2010 से लगातार उत्तराखंड में बादल फटनाभूस्खलन और बाढ़ आ रही है। किन्तु प्रकृति के इस संदेश को ना समझने की भूल का नतीजा आज सामने है। अभी भी समझना होगा।

विकास (जो कि वास्तव में कुछ ही लोगो का होता है) के नाम पर हम उत्तराखंड के निवासियों की जान और पर्यावरण को कब तक खतरें में डालेगेंऔर देखे कि लोकसभा के चुनाव का खर्चा इस आपदा में नही निकलना चाहिये।

विमलभाई                                       पूरणसिंह राणा
समंवयक

संलग्नः-उत्तराखंड में 14 से 18 तक तेज वर्षा और बादल फटने पर रिपोर्ट
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तबाही की दांस्ता----


भागीरथीगंगाअलकनंदागंगा और उनकी सहायक नदियों प्रमुख रुप से अस्सीगंगाभिलंगनाबिरहीगंगा, मंदाकिनीपिडंरगंगा नदियों के किनारे के होटलदुकानेंघर आदि गिरेपहाड़ दरकेसड़के टूटी जिससे हजारों की संख्या में वाहन बह गयेकई स्थानों पर नदी में तेजी से गाद की मात्रा आई जो बाढ़ के साथ बस्तियों में घुसीअनियंत्रित तरह से बनी पहाड़ी बस्तियंा बही।
(चूंकि केदारघाटी की चर्चा बहुत आ रही है। इसलिये वहंा के बारे में यहंा नही लिखा है।)
 अलकनंदागंगा से--

बद्रीनाथ के लगभग 55 किलोमीटर नीचे जोशीमठ से अलकनंदा में एक के बाद एक तमाम होटल बह गयेकारें बह गयी गैस सिलैण्डरटायर टयूबगाड़ियां नदी में ऐसे बह रही थी जैसे की कागज के खिलौने। इस तरह जोशीमठ के पास में बहुत सारे होटल बह गये। कई-कई मंजिलों के होटल नदी में टूटकर बहते हुए नजर आये।
 बांध कम्पनियों के कारण भी काफी ज्यादा नुकसान हुआ। जैसे की जे0 पी0 की विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना (जविप) के जलाशय के पानी के बहने के कारण लामबगड़ गांव का बाज़ार बह गया।
 अपुष्ट समाचार तो यह भी है कि तपोवन विष्णुगाड जविप की निर्माणाधीन सुरंग में कार्यरत काफी मजदूर भी मारे गये है।
 इसके बाद नीचे विष्णुगाड पीपलकोटी जविप में जो टेस्टिंग सुरंग बनायी गयी थीउसका समान पूरी तरह से बह गया और सुरंग के अंदर ढेर सारा पत्थरमलबा रूक गया। इस तरह से सुरंग लगभग बंद हो गयी। हरसारी गांव के लोग जोकि इस सुरंग के उपर रहते हैं महीनों से इस बात को कह रहे थे कि इस ओर विस्फोट की आवाजें आती हैहमारा रहना दूभर हो गया हैं।
 रोज एस0 डी0 एम0 कोडी0 एम0 को बांध कम्पनी को चिटठ्ी फोन होते थेविश्व बैंक के अधिकारी और बांध कंपनी के अधिकारी को कितनी बार आ चुके थें। मगर कोई नतीजा नहीं निकला। अब गंगा ने नतीजा निकाल दिया।
रुद्रप्रयाग से लेकर केदारनाथ धाम तक पूरी केदार घाटी बादल फटने से भयानक तरह से बर्बाद हुई। जिसका आकलन करना और भरपाई करना मुश्किल है। और सरकार के अब तक आपदा प्रंबधन और लोगो के पुनर्वास के इतिहास को देखते हुये तो असंभव ही लगता है। नदी किनारे बसे अगस्तमुनिचंद्रापुरी जैसे छोटे पहाड़ी बाजार और शहर समाप्त प्रायः हो गये। मंदाकिनी नदी पर फाटा-ब्योंग और सिंगोली भटवाड़ी जविप को काफी नुकसान हुआ है। केदारघाटी में अन्य जल-विद्युत परियोजनाओं को भी नुकसान पहंुचा है।
पिंडरगंगा घाटी में 8 पैदल पुल बह गये है। चेपड़ो गांव में दलित बस्तियों में नुकसान सहित 12 के लगभग मकान/दुकान बह गये। थराली तहसील से लेकर थराली बजार तक सड़क खत्म हो गई है। थराली पुल के पास की 10 दुकाने समाप्त हो गई और अन्य 25 से 30 दुकानंे काम लायक नही बची है। थराली का मोटर पुल पैदल यात्रा के लायक भी नही बचा है। ज्ञातव्य है कि पिंडरगंगा में थराली प्रमुख बाजार है। पूरी पिडंरगंगा की सड़क बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुई है।
अलकनंदागंगा पर बनी श्रीनगर जविप के मलबे ने श्रीनगर शहर में कहर ढाया है। पर्यावरण व वन मंत्रालय ने इस मलबे पर कोई कदम नही उठाया था। सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में मामला है पर निणर्य सुरक्षित है। बांध बन गया किन्तु नगर जरुर असुरक्षित हो गया। इस बारिश में 70 मकानों समेत सीमा सुरक्षा बल और अनेक अन्य इमारतों में मलबा जम गया है।
देवप्रयाग में निचले हिस्से में कुछ इमारते बही है।
भागीरथीगंगा घाटी से--

भागीरथीगंगा में गंगोत्री से लेकर उत्तरकाशी तक के रास्ते पहले टूटे हुये थे अब और भी खत्म हो गये है। भटवाड़ीगांव पहले भूस्खलन की चपेट में आ चुका था। वहंा का पूरा बाजार समाप्त हो गया था। उनका पुनर्वास आजतक नही हो पाया है।

गंगोत्री से हर्षिल तक पैदल रास्ता बचा है, वहां से लोंगो को हैलिकोप्टर से चिन्यिाली सौड़ तक हैलिकोप्टर और उसके बाद सड़क मार्ग से नीचे रास्ता खुला है। हर्षिल से ऊपर जालन्ध्री गाड और तपोड़ा गाड में बहुत तेजी से पानी आया जिससे वहंा लक्ष्मी नारायण मंदिर के पीछे 30 मिनट की झील बनी और फिर पानी बहा जिससे हर्षिल में दो चार मकान बह गए।

झाला गाँव के पास पानी बहुत तेजी से बड़ा जसपुर व पुरोला की सड़क वह गयी सुक्की गाँव से पहले की सड़क कई किलोमीटर ध्वस्त हो गई। डबराणी से गंगनानी, सुनगर, भटवाड़ी रोड पूरी तरह ध्वस्त हो गया, चडे़ती बाजार में दुकाने व् भटवाड़ीगांव के निचे का हिस्सा बह गया। मल्ला, लता, सेज, गाँव के रास्ते पूरी तरह ध्वस्त हुये है। सेज गाँव के निचे नदी किनारे ‘दिल्ली वालों की धर्मशाला‘ बह गयी। नालोड़ा और डीडसारी का पुल बह गया।

उतरकाशी में राशन की कमी है क्योई कि बहुत सारी दुकाने वह गई लोंगो ने भविष्य की आशंका को देखते हुये राशन कुछ राशन ज्यादा खरीद लिया

उत्तरकाशी के बांई तरफ स्थित जोशियाड़ा क्षेत्र में लगभग 400 मीटर से ज्यादा सड़क से नदी के बीच की सभी इमारतंे भागीरथीगंगा में प्रवाहित हो गई। शेष बचे क्षेत्र में लोगो को मकान खाली करके भागना पड़ा है। जोशियाड़ा क्षेत्र की तबाही की ज्यादा जिम्मेदारी मनेरी-भाली चरण दो जविप की है। जिसके जलाशय के किनारों पर समय रहते कोई सुरक्षा दिवार नही बनाई गई थी।  (3 अगस्त 2012 को अस्सी गंगा में आई बाढ़ के कारण हुये नुकसानों के संदर्भ में भी माटू जनसंगठन ने जो रिपोर्ट ‘आपदा में फायदा‘ निकाली थी उसमें यह चेतावनी दी थी कि अगले मानसून में उत्तरकाशी में फिर नुकसान हो सकता है, जिसकी जिम्मेदार उत्तराखंड जलविद्युत निगम होगी। किन्तु सरकार ने कोई कार्यवाही नही की। अब यह नुकसान हो गया।)

धरासू तक का सारा मलबा टिहरी बांध की झील में समा गया है जिसका जलाशय स्तर 18 जून को 740 मीटर तक पंहुच गया था। पूर्ण जलाशय स्तर 835 मीटर है। मुख्यमंत्री ने टिहरी बांध से बाढ़ रोकने की खुशी प्रकट की। वे यह भूल गये की अभी 3 महीने मानसून और है तथा 2010 में सितंबर में बाढ़ आई थी तब टिहरी बांध का जलाशय केंद्रिय जल आयोग के मापदंडो को दरकिनार करके पूरा भरा हुआ था। कोटेश्वर बांध निर्माण का मलबा जरुर इस बाढ़ ने बहा दिया।

पूरी गंगा घाटी और यमुना घाटी में तेज वर्षा के कारण किसानों के काफी खेत बहे है। यह मौसम धान की रोपाई का था। धान की रोपाई के लिये तैयार किया जाने वाला बीज भी कहीं-कहीं बह गया है। और कहीं-कहीं खेतों में साल भर से इक्टठी की गई गोबर की खाद बह गई है। जिससे उनकी साल भर के लिये चावल की फसल समाप्त हो गई है।
यमुना घाटी की खबरें ज्यादा नही आ पाई है। नुकसान भले की गंगाघाटी के मुकाबले बहुत कम हुआ है। किन्तु काफी लोग वहंा भी बेघर हुये है।

प्रस्तावित लखवार बांध के क्षेत्र में उफनती यमुना को मिलने वाली अगलाड़ नदी मंे तीन दिन की वर्षा ने पैदल पुल को बहा दिया है।

भागीरथीगंगाअलकनंदागंगा व यमुनाघाटी से................................
 पूरण सिंह राणाप्रकाश रावतसीताराम बहुगुणाबस्सीलालबृहषराज तड़ियालरमेशबलवंत आगरीसुदर्शनसाह असवाल और विमलभाई------------------------------------------------------------------------------------------------------------

आपको इसके बाद अपडेट माटू जनसंगठन के ब्लाग <matuganga.blogspot.in>ी मिलते रहेंगे।   -विमलभाई

Friday, 14 June 2013

गंगा को मारने की नई साज़िश 14-6-2013


Author: 
विमल भाईसैंड्रप द्वारा तैयार की गई आलोचनात्मक टिप्पणी, जिसे माटू के अलावा अन्य कई जन संगठनों ने अनुमोदित किया है, बिंदुवार समिति की रिपोर्ट की बदनीयत, चालाकी और गैरजानकारी का खुलासा करती है। जो जलविद्युत परियोजनाएं भागीरथीगंगा पर रोक दिए गए हैं उन्हें भी निर्माणाधीन की श्रेणी में दिखाया गया है। ऐसे कई उदाहरण इस रिपोर्ट में मिलेंगे जो बताते हैं की समिति ने बांध समर्थन की भूमिका ली है। बांधों की स्थिति बताने वाली सारिणी भी गलत आंकड़ों से भरी है। नदी की लम्बाई का अनुपात भी गलत लगाया गया है। समिति 81 प्रतिशत भागीरथी और 69 प्रतिशत अलकनन्दा को बांधों से प्रभावित कहती है जो कि पूरी तरह से गलत है। 
नापे सौ गज और काटे इंच भी नहीं। प्रधानमंत्री जी बार-बार गंगा के लिए प्रतिबद्धता जताते हैं उनकी पार्टी गंगा रक्षण का दम भरते हुए वोट भी मांगती है। किंतु ज़मीनी स्तर यह नहीं दिखाई देता है। जिसका उदाहरण है हाल ही में गंगाजी पर आई अंतरमंत्रालयी समिति की रिर्पोट। सरकार ने 17 अप्रैल, 2012 को स्वामी सानंद जी के उपवास के समय राष्ट्रीय गंगा नदी प्राधिकरण की बैठक बुलाई थी। तब सानंद जी को सरकार ने एम्स में रखा हुआ था। बैठक में वे नहीं गए उनकी ओर से कुछ संत प्रतिनिधि गए थे। प्रधानमंत्री ने उन्हें अलग से मिलने का वादा किया। बैठक में डब्ल्यू. आई. आई. और आई. आई. टी. आर. की रिपोर्ट के बारे में उठ रही तमाम शंकाओं पर विराम लगाते हुए इन रिर्पोटों को सही ठहराया। इन संत प्रतिनिधियों ने इस पर कुछ कहा हो ऐसी कोई खबर बाहर नहीं आई। बैठक शांति से निबट गई। 15 जून 2012 को सरकार ने चुपचाप से गंगा के लिए चिल्लाने वालों के मुंह में अंतरमंत्रालयी समिति का लड्डू रखा दिया गया। 15 सदस्यों में बिना किसी चयन प्रक्रिया के तीन गैर सरकारी सदस्यों को भी समिति में रखा गया। रिपोर्ट के बीच बांधों के कामों पर भी कोई रोक नहीं लगाई गई थी। समिति की रिपोर्ट आने की कोई समय सीमा नहीं रखी गई थी। समिति को भागीरथी, अलकनन्दा तथा गंगा की अन्य सहायक नदियों पर बांधों के असरों को जांचने और उनको दूर करने के उपाय सुझाने का काम दिया था। जिसका आधार डब्ल्यू. आई. आई. और आई. आई. आर. टी. की रिपोर्टे दी गई थी। इस अंतरमंत्रालयी समिति का माटू जनसंगठन व कुछ अन्य संगठनों ने विरोध किया था। इस बाबत पत्र भी प्रधानमंत्री को लिखा था। समिति के मात्र दो सरकारी सदस्यों ने विवादास्पद श्रीनगर परियोजना से प्रभावित धारी देवी तक की यात्रा की। गैर सरकारी सदस्यों ने इस बीच गंगाघाटी की ना कोई यात्रा की। ना ही इस बाबत कोई बैठक बुलाई। खैर समिति की रिपोर्ट 3-4 महीने में आने के बजाए लगभग 11 महीनों में आ पाई। इस बीच कितने ही बांधों की प्रक्रियाएं आगे बढ़ गई। श्रीनगर परियोजना तो बन भी गई।

रिर्पोट से मालूम पड़ता है कि बहुत तरीके से सरकार ने गंगा के विषय को दबाया है। पहले तो चुपचाप 15 जून 2013 को समिति बनाई और उसकी खबर भी बाहर नहीं की गई। समिति ना तो गंगाघाटी में ज़मीनी स्तर पर कार्यरत संगठनों से नहीं मिली ना ही गंगाघाटी का विस्तृत दौरा किया। समिति से माटू जनसंगठन ने 19 अगस्त को पत्र द्वारा मिलने का समय मांगा था, जो नहीं मिला। जबकि राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने 17 जुलाई 2011 के अपने आदेश में समिति को यह निर्देश भी दिया था। समिति मात्र कुछ ही चुनिंदा लोगों से मिली। समिति की रिपोर्ट को भी कुंभ के बाद निकाला गया ताकि कुंभ के जमावड़े का कोई फायदा बांध विरोधियों को न मिल जाए। फिर रिपोर्ट भी जो निकली वो पूरी तरह से बांधों के पक्ष में आ रही बाधाओं को दूर करती है। पर्यावरणीय प्रवाह पर समिति ने किसी भी तरह की कोई परिभाषा नहीं दी है। अवैज्ञानिक व आधारहीन वक्तव्यों से भरी इस रिपोर्ट में जिन छोटी सहायक नदियों के बारे में कहा गया है कि उन पर आगे कोई नया बांध नहीं बनेगा। वे नदियां तो पहले से ही लगभग बांधी जा चुकी हैं या वहां बांध परियोजनाएं निमार्णाधीन हैं।

सरकार ने आज तक इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया है। डॉ. भरत झुनझुनवाला के एक मुक़द्दमे में सर्वोच्च न्यायालय में सरकार ने यह रिपोर्ट ज़रूर दाखिल की है। इस तरह समिति के बनने से रिपोर्ट आने तक पूरी गोपनीयता का माहौल बनाए रखा गया है। हां समिति का हवाला देकर गंगा पर बांधों को आगे बढ़ाए जाने की पूरी उम्मीद है। सरकार ने डब्ल्यूआईआई और आईआईटीआर की रिपोर्ट के बाद इस समिति को बनाकर गंगा में पर्यावरणीय प्रवाह के मुद्दे को समाप्त करने की कोशिश की है। वैसे समिति के तीन गैर सरकारी सदस्यों में से वीरभद्र जी का देहावसान बीच में ही हो गया था। सुनीता नारायण जी और राजेन्द्र जी ने हस्ताक्षर नहीं किए हैं। राजेन्द्र जी ने असहमति का पत्र लिखा है। सुनिता जी ने भी एक नोट डाला है किंतु उन्होंने बांधों के वर्गीकरण पर समिति द्वारा अनजाने में सहमति दी है।

सैंड्रप द्वारा तैयार की गई आलोचनात्मक टिप्पणी, जिसे माटू के अलावा अन्य कई जन संगठनों ने अनुमोदित किया है, बिंदुवार समिति की रिपोर्ट की बदनीयत, चालाकी और गैरजानकारी का खुलासा करती है। आईए जरा विस्तृत रूप में इसे समझें। जो जलविद्युत परियोजनाएं (जविप) भागीरथीगंगा पर रोक दिए गए हैं उन्हें भी निर्माणाधीन की श्रेणी में दिखाया गया है। ऐसे कई उदाहरण इस रिपोर्ट में मिलेंगे जो बताते हैं की समिति ने बांध समर्थन की भूमिका ली है। बांधों की स्थिति बताने वाली सारिणी भी गलत आंकड़ों से भरी है। नदी की लम्बाई का अनुपात भी गलत लगाया गया है। समिति 81 प्रतिशत भागीरथी और 69 प्रतिशत अलकनन्दा को बांधों से प्रभावित कहती है जो कि पूरी तरह से गलत है। वास्तव में पूरी नदी या तो सुरंगों में होगी या जलाशयों में। तो समिति कौन से हिस्से के बचने की बात कर रही है? आकंड़ों के खेल ये हैं कि कोटली भेल-2 को बांधों में गिना ही नहीं है। जबकी वो मुख्य गंगा, भागीरथी व अलकनन्दा नदी को डुबाने वाली है। बांधों के बीच की दूरी पर भी दोमुंही बाते हैं। समिति या तो चालाकी पूर्ण या मूर्खता की बात कर रही है, या वो नदी विज्ञान की समझ से पूरी तरह अनजान है। जैसे समिति कहती है कि तकनीकी जरूरत के अनुसार बांधों के बीच की दूरी तय हो। इस तरह समिति ने सभी बांधों को छूट ही दे दी है। बांधों की श्रृंखला होने से जो प्रभाव होता है उनको पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किया है। डब्ल्यूआईआई की रिपोर्ट में जिन 24 बांधों को रोकने की बात कही गई थी समिति ने उसे बिना कोई कारण दिए नकारा है। रिपोर्ट में जगह-जगह गंगा घाटी की जैवविविधता, सुंदरता, फूलों की घाटी, नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान आदि का जिक्र है किंतु वहां के बांधों पर रोक की बात नहीं की है।

कोटली भेल-2 की पर्यावरण स्वीकृति रद्द की गई है, और इसके साथ ही अलकनंदा जविप की भी वन स्वीकृति तीन बार रद्द की गई है उसे निर्माणधीन बताना गैरजानकारी नहीं बल्कि बद्नीयत की ओर इशारा करता है। 6 नदियों को अक्षुण्ण रखने की बात मज़ाक से कम नहीं है। इनमें से अस्सी गंगा, बिरही गंगा तो बंध ही चुकी हैं। इस तरह बड़े बांधों को हरी झंडी दी है। मात्र गंगा की बड़ी सहायक नदी पिंडर अभी तक अक्षुण्ण है। जिस पर अभी कोई बांध नहीं है ना ही कोई स्वीकृति मिली है। उस पर समिति का ध्यान नहीं गया। दूसरी 4 नदियों पर भी बांध बने हैं और बन रहे हैं। फिर कौन सी नदी को बचाने की बात समिति ने की है? समझ से परे हैं। फिर इन नदियों पर जविप ना बनने से बिना आधार दिए 400 मेगावाट के हानि की बात भी समिति ने कही है।

समिति साथ ही कहती है कि बांध मितव्ययी और चलाने लायक हो हर हालत में यानि पर्यावरणीय, सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक असरों को एकतरफ करते हुए बांध बनते रहे बस। समिति ने कहीं भी पर्यावरणीय प्रवाह की बात नहीं की है जो की उसका मुख्य काम था समिति कहती है की अविरल धारा पाईप लाईन में भी हो सकती है यानि नदी का अर्थ ही समिति ने नहीं समझा है। समिति रिपोर्ट में सामायिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पक्षों की बात लगातार कर रही है किंतु वो किन्हीं ऐसे समूहों से नहीं मिली। ना ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को भी देखा जो कहता है की किसी भी नदी को 50 प्रतिशत से ज्यादा नही मोड़ा जा सकता है समिति ने जो महीनेवार प्रवाह की बात कही है वो किसी प्रक्रिया तथ्य आदि पर आधारित नहीं है। पर्यावरणीय प्रवाह की निगरानी भी बांध कंपनी की ज़िम्मेदारी पर छोड़ दिया है और वो भी 25 मेगावाट से ज्यादा की जविप में ही। आप बाघ से बकरी की निगरानी करने को कह रहे हैं। बांधों के पक्ष में समिति ने नया आधारहीन तर्क गढ़ा है की हिमालयी नदियों में मछलियों को कम जलस्तर की जरूरत होती है। जिन परियोजनाओं को कोई पर्यावरणीय और वन स्वीकृति तक नहीं मिली उन्हें भी निमार्णाधीन बताया है। बांधों के पक्ष में यह गलत प्रस्तुतीकरण साज़िश जैसा ही लगता है।

बहुत सारे पर्यावरणीय प्रभावों को समिति ने छुआ तक नहीं है। जैसे पीकिंग पावर उत्पादन यानि आवश्यकता के अनुसार बिजली का उत्पादन जिससे नदी का पानी कभी भी ऊपर नीचे हो सकता है। हर बांध के नीचे नदी पर बड़े-बड़े बोर्डो में लिखा भी है कि नदी का जलस्तर कभी भी 5 से 15 मीटर तक ऊंचा हो सकता है। कृपया नदी किनारे नहीं जाएं। मगर समिति ने यदि क्षेत्र का दौरा किया होता तो ये तथ्य वो समझ पाती डब्ल्यू आई आई, आईआईटीआर की रिपोर्ट को सही सिद्ध करने का एक प्रयास में समिति कहती है की टिहरी को छोड़कर सभी रन ऑफ द रिवर जविप है टिहरी बांध के ठीक नीचे कोटेश्वर उन्हें नहीं दिखा और जिन्हें ऑफ द रीवर कहा गया है उन कोटली भेल की तीनों जविप आदि के जलाशय 33 कि.मी. तक के हैं इस प्रकार के हर बांध के नीचे स्लूस गेट बने हैं जो रेत निकालने के लिए हैं। जबकि डब्ल्यूआईआई की रिपोर्ट भी कहती है की 69 जविप में से 13 जविप जलाशय वाली है। समिति को अलकनन्दा जविप के धारी देवी मंदिर पर असरों को भी देखना था। राजेन्द्र सिंह जी और वीरभद्र मिश्रा जी ने परियोजना में परिवर्तन सुझाए किंतु बिना कोई कारण दिए वे सुझाव अमान्य कर दिए गए। समिति बांधों को सामाजिक असरों पर मौन है जबकि देवसारी व विष्णुगाड पीपलकोटी बांधों में विरोध जारी है।

पर्यावरणीय प्रवाह वर्तमान में कार्यरत जविप के लिए भी समिति ने मान्य करने को कहा है किंतु उसकी कोई प्रक्रिया नहीं बताई है। समिति ने प्रदूषण के प्रमुख विषयों जैसे सहकारिता का अभाव, शहरी पानी और प्रदूषण नियंत्रण में प्रजातांत्रिक सत्ता आदि के बारे में कहा है कि नदी के सभी हिस्सों में प्रवाह लगातार रहना चाहिए। किंतु मात्र यह कह देने से उद्देश्य पूरा नहीं होता। समिति की रिपोर्ट में आपसी चर्चा को कहीं नहीं बताया गया है। बांधों की सूची तक पूरी और सही नहीं है। गंगा के पांचों प्रयागों को सुरक्षित रखने के बारे में भी समिति मौन है। राजेन्द्र सिंह की नोट छोड़ दे तो समिति की रिपोर्ट पूरी तरह बांधों के पक्ष में ही है। बल्कि पर्यावरण मंत्रालय के वर्तमान में स्थापित दिशा निर्देश ज्यादा सही नजर आते हैं। समिति ने यह दिखाने के लिए की उसने कुछ काम किया है। इन दिशा निर्देशों की एक सूची बनाई है। यह समिति बनाना अपने में बहुत बड़ी बात हो सकती थी किंतु गंगा के स्वास्थ्य व पर्यावरण और स्थानीय विकास को निरूपित करने का मौका समिति में गँवा दिया है। यह रिर्पोट मात्र और मात्र गंगा को मारने की नई साज़िश का हिस्सा है। इसे स्वीकार करना मात्र गंगा के लिए ही शर्मनाक बात नहीं होगी वरन यह अन्य नदियों के लिए भी एक खतरनाक मापदंड होगी। मगर शर्म उन्हें नहीं आती।