उद्गम शेष
Source:
माटू जनसंगठन पूर्व के जी.डी. अग्रवाल और वर्तमान में स्वामी सानंद के उपवास से आस्था के नाम पर बांध रोकने के प्रयासों पर यह पक्की मोहर है। उत्तराखंड सरकार ने नवंबर 2008 पाला-मनेरी व केन्द्र सरकार ने 2010 में लोहारीनाग-पाला बांध रोका था। यह जानते हुए भी कि केन्द्र की कांग्रेस सरकार और राज्य की बीजेपी सरकार के ही द्वारा यह बांध रुके हैं। स्थानीय स्तर पर बांध समर्थन में आंदोलन करके वोट बटोरने की खूब कोशिशें चली हैं। राजनीतिक दलों ने चाहे वह कांग्रेस हो या बीजेपी पिछले लोकसभा, विधानसभा और नगर निगम चुनावों में इसका भरपूर राजनीतिक फायदा उठाया। नेशनल थर्मल पावर कार्पोरेशन (एनटीपीसी) ने आज की तारीख में भी लोहारीनाग-पाला जलविद्युत परियोजना ज.वि.प. को उसी दशा में छोड़ा हुआ है अभी तक ना तो उसकी निर्माण समान हटाई गई और ना ही बांध के लिए बनाई गई सुरंग को भरने की कोई कोशिश की गई। उनके पांच विभिन्न प्रबंधक अभी भी बांध क्षेत्र में बैठे तनख्वाह पाते रहे हैं। इस तरह बंद पड़ी परियोजना की भी लागत बढ़ती गई है। एनटीपीसी को व स्थानीय राजनेताओं को इस अधिसूचना से करारा झटका लगा है। अब एनटीपीसी का बोरिया बिस्तर समेटना तय हो गया। साथ में इन परियोजनाओं की बनने या ना बनने की रस्साकशी पर भी विराम लगा।
स्वामी सानन्द जी के साथ निश्चय ही वे साथी, तमाम संगठन व व्यक्ति धन्यवाद के पात्र है जिन्होंने इस संपूर्ण नकारात्मक स्थिति में भी ऐसी अधिसूचना लाने के लिए प्रयास किए। इस अधिसूचना की खबर जैसी ही क्षेत्र में पहुंची तमाम तरह की प्रतिक्रिया उभरी और पंचायत चुनावों को मद्देनजर रखते हुए स्थानीय नेताओं ने बिना अधिसूचना को जाने समझे भ्रम की स्थिति फैलाना शुरू की और एक आन्दोलन को जन्म देने की भी कोशिश की। जो कि सफल होती नहीं दिखती।
देखा
जाए तो इस अधिसूचना में बहुत कठिन निर्णय नहीं लिए गए हैं। अधिसूचना में
अभी पूरी तरह से क्षेत्र को कोई ऐसा प्रतिबंध नहीं किया है जैसा कि
राजनीतिक दलों ने प्रचार किया। हां इस अधिसूचना से बड़े होटल मालिकों आदि
पर प्रभाव ज़रूर पड़ेगा। तथाकथित रूप से अधिसूचना में जहां बार-बार विकास
कार्य रोकने की बात कही गई है उसमें कहीं स्थानीय लोगों का जीवन नकारात्मक
रूप से प्रभावित होने वाला नहीं है। बल्कि यह देखा जाए तो हम उत्तराखंड में
स्थानीय स्तर पर पर्यटन, आजीविका, उर्जा की स्थाई स्रोतों के साथ स्थाई
विकास की अवधारणा को विकसित कर सकते हैं। राज्य सरकार व अन्य बड़े राजनैतिक
दल इस पर इस शुरूआत को आगे ला सकते हैं।
इस अधिसूचना में क्षेत्र के मानव निर्मित विरासतों सहित सांस्कृतिक, प्राकृतिक विरासतों को सहेजने की बात है। अधिसूचना में स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति पर कहीं रोक नहीं है। बशर्ते की अधिसूचना की धाराओं का स्थानीय शासन-प्रशासन गलत तरह से उपयोग करके स्थानीय निवासियों को प्रताड़ित न करे, जैसा कि चिपको आन्दोलन के बाद बने नियमों, कानूनों का इस्तेमाल करके स्थानीय लोगों को 1,000 मीटर से ऊपर पेड़ काटने की अनुमति नहीं है। दूसरी तरफ वन विभाग द्वारा और जलविद्युत परियोजनाओं के लिए इस कानून का खूब उल्लंघन होता है। अधिसूचना में खनिजों का खनन और पत्थर उत्खनन, आरा मशीनों की स्थापना, प्रदूषणकारी उद्योग, मल-जल और औद्योगिक बहिस्राव, प्लास्टिक के समान ले जाने वाले थैलों का उपयोग, परिसंकटमय अपशिष्ट प्रसंस्करण इकाईयां के लिए पूर्व अनुमति की जरूरत होगी। जल, वायु और मृदा प्रदुषण पर रोक और साथ ही इन पर सख्त निगरानी का नियम है। किंतु निगरानी समिति में गैर सरकारी सदस्य का न होना चिंताजनक है। चूंकि आज तक की सरकारी निगरानी समितियों की स्थिति बहुत ही दयनीय रही है। बल्कि सच कहा जाए तो कोई निगरानी ही नहीं होती। चाहे वो पर्यावरण की हो या जलविद्युत परियोजनाओं की अस्सी गंगा में बादल फटने के बाद जो हुआ उससे यह और अधिक स्पष्ट होता है।
अधिसूचना की धारा 2 में पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्र के लिए आंचलिक महायोजना बनाने के लिए कहा गया है। जिसमें राज्य सरकार को पारिस्थितिकी संवदेनशील क्षेत्र के लिए दो वर्ष के भीतर स्थानीय जनता, विशेषकर महिलाओं, के परामर्श से एक आंचलिक महायोजना बनाकर उसे केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय, से अनुमोदित कराने का निर्देश है।
इस अधिसूचना में क्षेत्र के मानव निर्मित विरासतों सहित सांस्कृतिक, प्राकृतिक विरासतों को सहेजने की बात है। अधिसूचना में स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति पर कहीं रोक नहीं है। बशर्ते की अधिसूचना की धाराओं का स्थानीय शासन-प्रशासन गलत तरह से उपयोग करके स्थानीय निवासियों को प्रताड़ित न करे, जैसा कि चिपको आन्दोलन के बाद बने नियमों, कानूनों का इस्तेमाल करके स्थानीय लोगों को 1,000 मीटर से ऊपर पेड़ काटने की अनुमति नहीं है। दूसरी तरफ वन विभाग द्वारा और जलविद्युत परियोजनाओं के लिए इस कानून का खूब उल्लंघन होता है। अधिसूचना में खनिजों का खनन और पत्थर उत्खनन, आरा मशीनों की स्थापना, प्रदूषणकारी उद्योग, मल-जल और औद्योगिक बहिस्राव, प्लास्टिक के समान ले जाने वाले थैलों का उपयोग, परिसंकटमय अपशिष्ट प्रसंस्करण इकाईयां के लिए पूर्व अनुमति की जरूरत होगी। जल, वायु और मृदा प्रदुषण पर रोक और साथ ही इन पर सख्त निगरानी का नियम है। किंतु निगरानी समिति में गैर सरकारी सदस्य का न होना चिंताजनक है। चूंकि आज तक की सरकारी निगरानी समितियों की स्थिति बहुत ही दयनीय रही है। बल्कि सच कहा जाए तो कोई निगरानी ही नहीं होती। चाहे वो पर्यावरण की हो या जलविद्युत परियोजनाओं की अस्सी गंगा में बादल फटने के बाद जो हुआ उससे यह और अधिक स्पष्ट होता है।
अधिसूचना की धारा 2 में पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्र के लिए आंचलिक महायोजना बनाने के लिए कहा गया है। जिसमें राज्य सरकार को पारिस्थितिकी संवदेनशील क्षेत्र के लिए दो वर्ष के भीतर स्थानीय जनता, विशेषकर महिलाओं, के परामर्श से एक आंचलिक महायोजना बनाकर उसे केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय, से अनुमोदित कराने का निर्देश है।
अधिसूचना
में जहां बड़े बांधों पर पूरी तरह से रोक की बात है वहीं 25 मेगावाट से
छोटे बांधों को पूरी तरह से हरी झंडी देने का प्रयास है। अस्सीगंगा में 4
जविप निर्माणाधीन हैं जो 10 मेगावाट से छोटी हैं। जिनमें एशियाई विकास बैंक
द्वारा पोषित निमार्णाधीन कल्दीगाड व नाबार्ड द्वारा पोषित अस्सी गंगा चरण
एक व दो जविप भी है। उत्तरकाशी में भागीरथीगंगा को मिलने वाली अस्सीगंगा
की घाटी पर्यटन की दृष्टि से ना केवल सुंदर है वरन् घाटी के लोगो को स्थायी
रोज़गार दिलाने में भी सक्षम है। यह ट्राउट मछली के लिए देशी-विदेशी
शौकीनों के आकर्षण का केंद्र बनी हुई है। 1992 के भयानक भूकंप का केन्द्र
अगोड़ागांव है जहां सड़क बनाने की इजाज़त नहीं है किंतु कल्दीगाड जविप बन
रही है। अगस्त 2012 में बादल फटने की घटना के बाद अस्सी गंगा ने इन बांधों
को नकार दिया है। ज्ञातव्य है कि 24 जुलाई व 3 अगस्त 2012 को अस्सी गंगा
नदी में बादल फटने के कारण निमार्णाधीन कल्दीगाड व अस्सी गंगा चरण एक व दो
जलविद्युत परियोजनाओं ने तबाही मचाई और भागीरथीगंगा में मनेरी भाली चरण दो
के कारण बहुत नुकसान हुआ।
हद तो यह है कि मारे गए मज़दूरों का कोई रिकार्ड भी नहीं मिला। अस्सीगंगा के गांव बुरी तरह से प्रभावित हुए। छोटे-छोटे रास्ते टूटे, अस्सीगंगा घाटी का पर्यावरण तबाह हुआ जिसकी भरपाई में कई दशक लगेंगे। प्रकृति के इस संदेश को भी समझने की जरूरत है। निर्माण कंपनी ‘उत्तराखंड जल विद्युत निगम’ भी पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। बल्कि उनकी सारी गलतियों को बाढ़ के साथ बहा दिया गया। बीमा कंपनियों से उनका नुकसान तो पूरा होगा साथ ही भ्रष्टाचार के लिए और पैसा मिल जायेगा। प्रभावितों का पुनर्वास अभी नहीं हो पाया है। किंतु परियोजनाएं फिर चालू हो रही हैं। माटू जनसंगठन ने इस पर एक रिपोर्ट ‘आपदा में फायदा’ निकाली है। स्थानीय लोगों के साथ मांग की गई है कि अस्सीगंगा पर बांध तुरंत रोके जाएं और अस्सीगंगा को लोक आधारित पर्यटन के लिए सुरक्षित किया जाए। इसे आंचलिक महायोजना में जोड़ना चाहिए।
वास्तव में गंभीर चुनौती तो इस आंचलिक महायोजना को बनाने की होगी जिसमें हमें ध्यान रखना होगा की अधिसूचना की शाब्दिक और आत्मिक भावना सुरक्षित रहे साथ ही स्थानीय लोगों के जीवन विकास में कोई बाधा न आए। चूंकि किसी भी ओर पूरी तरह से जाना घातक होगा चाहे वो मां गंगा की अर्चना सेवा की सोच हो या स्थानीय विकास के नाम पर मात्र कुछ लोगों के विकास का हो। कुछ लोगों को छोड़कर, जिसमें जनप्रतिनिधि भी आते हैं जो पिछले कुछ वर्षों में तेजी से सम्पत्ति वाले बने हैं। आंकड़े बताते हैं कि उत्तरकाशी में अभी भी बहुत गरीबी है। अगर यदि महायोजना सही तरीके से बने और अधिसूचना की निगरानी का ईमानदार कदम रहे तो न केवल तीर्थ यात्रियों की संख्या में इज़ाफा होगा बल्कि यह क्षेत्र उत्तराखंड का सांस्कृतिक-आर्थिक रूप से समृद्ध क्षेत्र बनेगा और पलायन भी रुकेगा। एक उत्कट ईमानदार राजनीतिक इच्छा और प्रयास इन सबके लिए अपेक्षित है।
हद तो यह है कि मारे गए मज़दूरों का कोई रिकार्ड भी नहीं मिला। अस्सीगंगा के गांव बुरी तरह से प्रभावित हुए। छोटे-छोटे रास्ते टूटे, अस्सीगंगा घाटी का पर्यावरण तबाह हुआ जिसकी भरपाई में कई दशक लगेंगे। प्रकृति के इस संदेश को भी समझने की जरूरत है। निर्माण कंपनी ‘उत्तराखंड जल विद्युत निगम’ भी पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। बल्कि उनकी सारी गलतियों को बाढ़ के साथ बहा दिया गया। बीमा कंपनियों से उनका नुकसान तो पूरा होगा साथ ही भ्रष्टाचार के लिए और पैसा मिल जायेगा। प्रभावितों का पुनर्वास अभी नहीं हो पाया है। किंतु परियोजनाएं फिर चालू हो रही हैं। माटू जनसंगठन ने इस पर एक रिपोर्ट ‘आपदा में फायदा’ निकाली है। स्थानीय लोगों के साथ मांग की गई है कि अस्सीगंगा पर बांध तुरंत रोके जाएं और अस्सीगंगा को लोक आधारित पर्यटन के लिए सुरक्षित किया जाए। इसे आंचलिक महायोजना में जोड़ना चाहिए।
वास्तव में गंभीर चुनौती तो इस आंचलिक महायोजना को बनाने की होगी जिसमें हमें ध्यान रखना होगा की अधिसूचना की शाब्दिक और आत्मिक भावना सुरक्षित रहे साथ ही स्थानीय लोगों के जीवन विकास में कोई बाधा न आए। चूंकि किसी भी ओर पूरी तरह से जाना घातक होगा चाहे वो मां गंगा की अर्चना सेवा की सोच हो या स्थानीय विकास के नाम पर मात्र कुछ लोगों के विकास का हो। कुछ लोगों को छोड़कर, जिसमें जनप्रतिनिधि भी आते हैं जो पिछले कुछ वर्षों में तेजी से सम्पत्ति वाले बने हैं। आंकड़े बताते हैं कि उत्तरकाशी में अभी भी बहुत गरीबी है। अगर यदि महायोजना सही तरीके से बने और अधिसूचना की निगरानी का ईमानदार कदम रहे तो न केवल तीर्थ यात्रियों की संख्या में इज़ाफा होगा बल्कि यह क्षेत्र उत्तराखंड का सांस्कृतिक-आर्थिक रूप से समृद्ध क्षेत्र बनेगा और पलायन भी रुकेगा। एक उत्कट ईमानदार राजनीतिक इच्छा और प्रयास इन सबके लिए अपेक्षित है।
No comments:
Post a Comment