Sunday, 18 June 2017

प्रैस विज्ञप्ति 18, जून 2017

प्रैस विज्ञप्ति                                                                                                                         18, जून 2017

जून 2013 आपदा फिर ना होः सावधान हो!!
आपदा की भेंट गये लोगो को भावभीनी श्रृद्धांजलि। आपदा में बांधों की भूमिका को ध्यान में रखते हुये सरकारें बांध कंपनियों पर कार्यवाही करें। भविष्य के लिये सावधानी लें। निगरानी हो

‘‘जून 2013 की आपदा में मारे गये पूरे देशभर से आये तीर्थयात्री और उत्तराखंड के अलग-अलग गांवों में रहने वाले लोग साथ ही वे छोटे बच्चे भी, जो केदारनाथ में जाकर के गर्मी की छृट्टियों में कुछ पैसे कमाने गये‘‘ सभी को हमारी भावभीनी श्रृद्धांजलि है। इस परिप्रेक्ष्य में आज हमें यह याद करना होगा कि अभी तक भी चार वर्ष बीतने के बाद कोंबिंग सही नहीं हुई थी, यह प्रश्न सामने है। आज के सत्ताधारी दल के राज्य अध्यक्ष अजय भटट जी ने इस बात को बार-बार उजागर किया था कि केदारनाथ में अभी भी मृत शरीर हैं। इस समय भाजपा सत्ता में है तो अब उनको वह काम पूरा करना चाहिए।

हमने बांधों के कारण से हुई तबाही पर बराबर लिखा है, मुकदमें दायर किये हैं, लोगों को हक दिलवाये हैं, नदी सुरक्षा पर कार्य हुए हैं; किंतु उत्तराखंड सरकार का और केंद्र सरकार का इस तरफ नजरिया बिल्कुल ही बांध कंपनियों के पक्ष में रहा है।

अलकनंदा घाटी में विष्णुप्रयाग बांध के कारण से नीचे के 7 गांवों में तबाही आयी क्योंकि बांध के गेट बंद थे। विष्णुप्रयाग बांध से उपर खैरो घाटी से ढेर सारा मलवा और पानी आया जो बांध में गेट बंद होने के कारण रूका और फिर धक्के से जब बांध का दाहिना गेट टूटा तो तेजी से बहते उस मलवा और पानी ने नीचे के गांवों की, नदी किनारे की जमीनों को तबाह किया। पाण्डुकेश्वर, गोविंद घाट के हिस्सों को तबाह किया, साथ ही बद्रीनाथ जी को जाने वाला पुल व गोविंद घाट से हेमकंुड साहेब को जाने वाला पुल भी इसी कारण से टूटा है।

मगर इस पर राज्य सरकार या केंद्र सरकार ने कोई जांच नहीं की। माटू जनसंगठन ने विष्णुप्रयाग बांध के प्रयोक्ता जेपी ऐसोसिएट पर मक व मलवे के सही निस्तारण के लिये जो केस दायर किया उस कारण से चमोली प्रशासन व जेपी बांध कंपनी को कुछ कायदे कानून बनाने पड़े और केस के दवाब में स्थानीय लोगो को नदी किनारों की मरम्मत व सुरक्षा दिवार बनाने के ठेके आदि मिल पाये। योजना बनने के बाद भी मक व मलवे का रखरखाव कुछ सही तरीके से हो पाया या नही ये जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन की थी। ये कितना हुआ ये जांच का विषय है।

किंतु सरकार ने इस पर कोई संज्ञान नहीं लिया। रिस्तुघाट पीपलकोटी के नीचे भी श्रीनगर बांध परियोजना की वजह से जो श्रीनगर बांध के निचले क्षेत्र में तबाही आयी और जब श्रीनगर बांध आपदा संघर्ष समिति और माटु जनसंगठन की ओर से प्रभावितों के मुआवजे के लिए मुकदमा राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में दायर हुआ तो राज्य सरकार बांध कंपनी के पक्ष में खड़ी नजर आयी।

मंदाकिनी नदी पर निर्माणाधीन दोनों सिंगोली-भटवाड़ी, फाटा-ब्योंग बांध परियोजनाएं टूटीं, मध्य महेश्वर नदी पर और काली नदी पर जो छोटी परियोजनाएं थीं वे भी टूटीं। इन बाधों केे पर्यावरणीय उल्लंघन के कारण से आसपास के तमाम क्षेत्रों में भूस्खलन आसानी से हो पाया और आपदा में इससे बहुत तेजी से वृद्धि हुई।

माननीय सर्वाेच्च न्यायालय के आदेश पर केन्द्रिय पर्यावरण मंत्रालय ने जो रवि चोपडा जी की अध्यक्षता में कमेटी बनाई, उसकी संस्तुति में यह साफ लिखा हुआ है कि इन बांधों की वजह से आपदा में वृद्धि हुई।
पिछले 4 वर्षों से लगातार हम यह बात कह रहे हैं किन्तु राज्य सरकार और केंद्र सरकार इस बारे में पूरी तरह मौन नजर आती हैं। नमामि गंगा जैसी वृहद परियोजना में भी मात्र गंगा पूजा के लिए घाट कुछ एसटीपी लगाने की योजना है। वह भी ज्यादातर बांधों के डूब क्षेत्रों में लग रहे हैं। बांध कंपनियों पर कोई कड़ी कार्यवाही या निगरानी की बात नहीं नजर आती।

हमने यह बराबर कहा है कि बांधों के पर्यावरणीय नियमों शर्तों के उल्लंघन के कारण पहाड़ कमजोर हो रहे हैं और नदी की पारिस्थितिकी भी बदल रही है, जो भविष्य के लिए, उत्तराखंड के स्थाीय विकास के लिए विनाशकारी सिद्ध होगी है।

2013 की आपदा ने यह सिद्ध किया था कि बांध निर्माण के लिये बाढ़ के कितने भी पुराने आंकडों के आधार पर बांध बनायें, किंतु नदी कब क्या रुख लेगी यह आप पहले से नहीं जान सकते। यह बात स्पष्ट है कि गंगाघाटी पर बने बांधों के कारण से पूरे उत्तराखंड में, पूरे गढवाल क्षेत्र में, गंगा घाटी में तबाहियां आयीं। जहंा बांध नही है वहंा तबाही भी कम हुई है।

भागीरथी घाटी में 2010 से जो लगातार एक के बाद एक हर मानसून में नुकसान हुआ है जैसे कि मनेरीभाली चरण-1, मनेरीभाली चरण-2 के कारण से और टिहरी बांध के कारण से पूरी भागीरथी नदी अब मनेरीभाली बांध के नीचे तो कहीं नजर नहीं आती। देवप्रयाग से ऊपर जहां कोटली में चरण एक-अ बन रहा है मात्र उसके नीचे 17 किलोमीटर तक अभी बहती हुई नजर आती है जिसका भविष्य भी अंधकारमय है।

अलकनंदा व उसकी सहायक नदियों में भी जो लगातार एक के बाद एक बांध बनाने की परियोजनाएं हैं, निर्माणाधीन है वहंा भविष्य में यदि 2013 जैसी आपदा आती है तो उसका क्या परिणाम होगा इसकी कल्पना भी नहीं की सकती।

1978 में जब चमोली जिले में अलकनंदा की विरही नदी में बादल फटने सें आपदा आयी थी 2013 में उससे कम पानी आने पर भी आपदा ज्यादा हुई। यह कल्पना से बाहर होगा कि जब एक इंच भी हिस्सा अलकनंदा का बांध बनने से नहीं छूटेगा तब क्या होगा?

विष्णुप्रयाग बांध के ऊपर में श्री बद्रीनाथ जी के पास 300 मेगावाट, 5 मेगावाट, 10 मेगावाट की परियोजनाओं से लेकर देवप्रयाग तक और फिर देवप्रयाग से हरिद्वार, ऋषिकेश तक बांध परियोजनाएं हैं। लगभग 56 बड़ी बांध परियोजनाओं में से यदि एक भी बांध टूटता है या अन्य कोई घटना घटित होती है तो नीचे का हश्र क्या होगा ?

इस पर कोई भी अध्ययन नहीं है, और जो अध्ययन हुये हैं वे बहुत ही उथले अध्ययन हैं। विष्णुप्रयाग-पीपलकोटी परियोजना में विश्व बैंक ने भी यह कहा कि पूरी परियाजना के अन्य परियोजना के साथ असरों पर यदि अध्ययन किया जाय तो 20 वर्ष लगेंगे। तो क्या राष्ट्रीय नदी गंगा पर बिना अध्ययन के ये परियोजनाएं बना रही हैं? यह टाइम बम हैं।

इसी वर्ष अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया में 13 फरवरी तारीख को 770 फीट के ओरोविल्ले बाँध के स्पिलवे में टूट के कारण 2 लाख लोगों को तुरंत हटाया गया।  नीचे के क्षेत्र में हजारों गाड़ियाँ, घर, संपत्ति का नुक्सान हुआ। जिसकी अनुमानित लागत अरबों में होगी। पर्यावरणीय नुकसान की लागत आंकना मुश्किल है। टिहरी बांध टूटा तो?

प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदर लाल बहुगुणा जी ने बांधों के बारे में आज से लगभग 20 साल पहले कहा था कि हिमालय में बड़े बांध टाइम बम हैं। लेकिन आज यह सिद्ध हुआ है कि टाइम बम का टाइम फिक्स होता है किन्तु इन बांधों के टूटने का कोई टाइम फिक्स नहीं है। ये बड़े बांध कभी भी किसी त्रासदी के कारण बन सकते है।

डबल इंजन वाली सरकार से हम यह मांग करते हैं किः-


ऽ    राज्य सरकार को मृत शरीरों की कॉंबिंग अंतिम शव की बरामदगी तक जारी रखनी होगी। डीएनए टेग सही तरह से हो।
ऽ    आपदा के दौरान की गई लापरवाहियों के जिम्मेंदार अधिकारियों व राजनेताओं पर तथा बांध कंपनियों को उनकी जानबूझ कर की गई लापरवाहियों के लिये दण्डित किया जाये। 
ऽ    सरकार बांध कम्पनियों से इस बात की गांरटी लें कि उनके कारण भविष्य में कोई लापरवाही नहीं बरती जायेगी। श्रीनगर बांध, विष्णु प्रयाग बांध, सिंगोली-भटवाड़ी आदि बांधों के संदर्भ मंे खासतौर से
      इस बात का ध्यान रखा जाये।
ऽ    केन्द्र व राज्य सरकार बांधों के पर्यावरणीय व लोंगों पर पड़ने वाले प्रभावों पर कड़ी निगरानी रखे ताकि भविष्य में ऐसी आपदाओं की पुनरावृत्ति से बचा जा सके।
ऽ    नदियेां को बंाधों, सड़कों व अन्य निर्माण कायों के मलबे का वाहक बनने से रोका जाये। यहंा विष्णु प्रयाग बांध का विशेष संदर्भ लिया जाये।
ऽ    आगे से बांधों से तौबा करके सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा व अन्य स्थायी ऊर्जा स्रोेतों पर काम करे। स्थानीय लोगों की समिति से चलने वाली विद्युत ऊर्जा के लिये प्रयत्न होने चाहिये। स्थानीय लोगों को स्थायी रोजगार मिल सके। जिससे हर युवा और राज्य का हर गांव दमकता रहे।

विमल भाई,         पूरन सिंह राणा,         राजपाल रावत,             बलवंत आगरी 

Saturday, 10 June 2017

प्रैस विज्ञप्ति 10-6-2017

जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, उत्तराखंड

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अब बाँधों का भय कम : पर विरोध जारी रहेगा।

देहरादून | 10 जून, 2017 : संसार भर में बांधों की अनुपयोगिता, दावें झूठे सिद्ध होना, लाभों का कमतर होते जाना, पर्यावरणीय नुकसानों की पूर्ति ना हो पाने, झीलों में गाद भरना, दावे के अनुरूप बिजली उत्पादन न होना, सिंचाई के आंकलन भी कम होते जाना, लम्बे समय के बाद भी जनहक के सवालों का हल ना निकल पाना आदि अनेक ऐसे कारण हुए जिनसे बाँधों में निवेश अब कम हो रहा हैं। उदाहरण के लिए जे. पी. कंपनी कई सालों विष्णुप्रयाग बाँध को एनरौन, टाटा पॉवर आदि को बेचने की घोषणा कर रही है किन्तु अभी तक कोई खरीदार नहीं आया है। अब बड़े बांधों का जमाना धीरे धीरे बीते दिनों की बात हो रहा है। किन्तु हमारी सरकार जरूर बांधों की पैरोकार बनी हुई है। श्री रवि चोपड़ा ने यह बात श्री विमल भाई की नई प्रकाशित पुस्तक ‘मुक्त बहने दो’ के विमोचन के समय कही।

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर बनी जून, 2013 में बांधों के असरो पर विषेशज्ञ समिति के अध्यक्ष रहे, वैज्ञानिक व पर्यावरणविद रवि चोपड़ा ने कहा पुस्तक में लिखे वाक्य ‘विकल्प बांधों का नहीं, इच्छाओं का होना चाहिए’ को उद्दृत करते हुए कहा कि अधिक अधिक बिजली का उपभोग विकास नहीं होता। बिजली का दुरूपयोग कम करना चाहिए। सौर उर्जा एक बेहतर विकल्प हो सकता है लेकिन केन्द्रित रूप में सौर उर्जा का उत्पादन भविष्य में अलग तरह के खतरे पैदा कर सकता है। उन्होंने पुस्तक के लेखक विमल भाई को इस बात की बधाई दी कि उन्होंने बाँधों से जुड़े संघर्ष, विकल्प, ‘अधिक बिजली की मांग’ के तर्कों का खंडन हिंदी भाषा में संकलित किया। इस अवसर पर वरिष्ठ समाजकर्मी श्री पी. सी. तिवारी ने कहा कि सरकार, नीति निर्माताओं व बाँध के पैरोकारों को हम तथ्यों के आधार पर चुनौती देते है किन्तु वे हमेशा नए बहाने लेकर आते हैं।

श्री राजपाल रावत ने विमोचन समारोह का आरम्भ करते हुए, राज्य और राज्य के बाहर से आये साथियों का अभिनन्दन करते हुए यमुना घाटी में बांधों के कारण छीन रहे दलितों के भूमि अधिकार का मुद्दा भी उठाया।

वनाधिकार कार्यकर्ता श्री तरुण जोशी ने कहा कि बांधों में अंधाधुन्द जंगलों की कटान बड़ी कंपनियों को जंगल भूमि देना बदस्तूर जारी है। किन्तु टिहरी बाँध के बाद अन्य बाँध विस्थापितों को राज्य में जमीन नहीं दी जा रही है। सर्वोदयी नेता श्री बीजू नेगी ने कहा कि पौष्टिक फसलों में कम पानी की जरुरत पड़ती है जो बारिश से भी पूरी हो जाती है। उत्तराखंड के विकास के लिए गाँवों में बहुत संभावनाएं हैं। यह झूठा प्रचार है कि बांधों से रोजगार होता है।

विमल भाई ने उत्तराखंड में बांधों के राजनीति पर प्रकाश डालते हुए नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बाँध का जिक्र किया जहाँ मात्र राजनीतिक कारणों से चालीस हज़ार परिवारों को बिना पुनर्वास पीड़ियों से सिंचित गाँव से बेदखल करने के लिए अनेकों बटालियन पुलिस व सेना बुलाने के तैयारी है। 32 वर्ष पुराना संघर्ष आज फिर एक युद्ध का सामना कर रहा है। दूसरी तरफ केंद्रीय उर्जा मंत्री पीयूष गोयल देश में बिजली की बहुतायत बता रहे हैं। उत्तराखंड के सन्दर्भ में उन्होंने कहा कि बांधों के सवाल पर केंद्र व राज्य की सभी सरकारें हमेशा एकमत रही हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि नमामि: गंगा कार्यक्रम बांधों के सवाल पर मौन है। गंगा बचाने का दावा करने वाली सरकारें भी गंगा का शोषण करने में कहीं पीछे नहीं है। पुस्तक का विवरण देते हुए कहा कि इसमें उनके लेखों के साथ मेधा पाटकर, हिमांशु ठक्कर, सौम्या दत्ता, आलोक अग्रवाल, राहुल पाण्डेय व मंथन संस्था के अध्यन पूर्ण लेख व अकाट्य तथ्य संकलित हैं। हमारी चुनौती है सरकारें उनका जवाब दें।

यह पुस्तिका न केवल बाँध के दावों की पोल खोलती है वरन बाँध विरोधी संघर्षों की जीत, पर्यावरणीय उल्लंघनों पर बाँध कंपनियों पर लगे जुर्मानों, अदालती आदेशों जैसे महत्वपूर्ण विषयों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। यह बांधों के सवाल पर लड़ने वाले साथियों संगठनों के लिए एक बेहतर संकलन है।  



जबर सिंह वर्मा, शैलेन्द्र भंडारी, ज्ञान सिंह रावत