‘‘बड़े बांध नहीः स्थायी विकास चाहिये‘‘
People are agitating against Dams at Pipalkoti (Vishnugad-Pipalkoti HEP, 444 MW) on 14th March 2012, on the occasion of Anti Big Dam Week 14 to 22 March, 2012
People are agitating against Dams at Pipalkoti (Vishnugad-Pipalkoti HEP, 444 MW) on 14th March 2012, on the occasion of Anti Big Dam Week 14 to 22 March, 2012
उत्तराखंड राज्य में बड़े बांधो की नही वरन् पहाड़ के लिये स्थायी विकास हेतु प्राकृतिक संसाधनों के जनआधारित उपयोग की जरुरत है। राज्य में नयी सरकार के नये मुख्यमंत्री ने राज्य में उर्जा उत्पादन को बढ़ाने की बात की है। यह ब्यान अपने में एक भय दिखाता है। इसका अर्थ जाता है कि बांधो पर नयी दौड़ शुरु होगी। हाल ही में 14 मार्च से 22 मार्च तक ‘वैश्विक बड़े बांध विरोधी सप्ताह’ पर माटू जनसंगठन ने उत्तराखंड में विभिन्न स्थानों पर बड़े बांधों के विरोध में प्रदर्शन किया।
अलकनंदा गंगा पर निर्माणाधीन विष्णुगाड-पीपलकोटी बांध (444 मेगावाट) प्रभावितों ने पीपलकोटी शहर में जुलुस निकाला और अलकनंदागंगा को स्वतंत्र रखने के लिये संघर्ष को तेज करने का संकल्प लिया। हाल ही में इस परियोजना को विश्व बैंक से कर्जा मंजूर हुआ है। 24 दिसंबर को विश्व बैंक के मिशन का भी लोगो ने 3 घंटे घेराव करके अपना विरोध प्रकट किया
टौंस घाटी में जखोल-संाकरी बांध (51 मेगावाट) प्रभावित क्षेत्र में भी बड़ा जुलुस प्रर्दशन हुआ यह क्षेत्र गोविंद पशु विहार में आता है। यहंा लोगो के पांरम्परिक हक-हकूको पर पाबंदी है। किन्तु बांध की तैयारी है। जखोल गांव 2,200 मीटर की उंचाई पर है और भूस्खलन से प्रभावित है। बंाध की सुरंग इसके नीचे से ही प्रस्तावित है। यहंा लोगो ने मई 2011 से टैस्टिंग सुरंग को बंद कर रखा है।
मुख्यमंत्रीजी के ब्यान पर माटू जनसंगठन ने उत्तराखंड के बांधों की स्थिति पर गहरी चिंता प्रकट करते हुये, बड़े बांधो पर सरकारी दौड़ पर प्रश्न उठाया है। जिस तरह बिजली उत्पादन के लिये पर्यावरण नियमों और नदी घाटी के निवासियों के हक-हकूकों को एक तरफ करके नये बांधों को जल्दी-जल्दी बनाने की कोशिश हो रही है। वह किसी भी तरह से उत्तराखंड के भविष्य के लिये सही नही है। पुराने बांधो की कमियों और उनके नुकसानो पर कोई चर्चा तक नही है।
पर्यावरण एंव वन मंत्रालय द्वारा किसी भी नदी में मक डालने पर पाबंदी है। मक को कही पर भी रखे जाने के लिये भी नियम मंत्रालय द्वारा दिये गये है। किन्तु राज्य में कही भी इसका पालन नही हो रहा है। टिहरी बांध परियोजना जिसमें टिहरी बांध, पंप स्टोरेज प्लांट व कोटेश्वर बांध आते है। इनकी पर्यावरण स्वीकृति 19 जुलाई 1990 को हुई थी जिसमें शर्त संख्या 3.7 में भागीरथी प्रबंध प्राधिकरण बनाने के लिये थी। इस प्राधिकरण का काम पूरी घाटी के प्रबंधन का होना चाहिये। किन्तु नदी को जिस तरह कचरा फंेकने की जगह बना दिया गया है वह शर्मनाक है। केंद्रीय पर्यावरण एंव वन मंत्रालय, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और प्राधिकरण की भी पूरी तरह जिम्मेदार है। दोनो की ओर से कोई निगरानी नही हो रही है। इसके लिये बांध कंपनी टिहरी जलविद्युत निगम {टीएचडीसी} व बांध ठेकेदारों पर कार्यवाही होनी चाहिये। किन्तु टीएचडीसी को नये बांधों का ठेका दिया जा रहा है। विश्व बैंक ने टीएचडीसी को अलकनंदा गंगा पर विष्णुगाड-पीपलकोटी बांध के लिये पैसा दिया है। वहंा भी यही हाल है।
भागीरथीगंगा पर जिस लोहारीनाग-पाला बांध को रोका गया था वहंा पर बन चुकी सुरंग को ऐसे ही छोड़ दिया है। मकानों में आई दरारों, सूखे जलस्त्रोंतो के लिये कोई उपाय नही किये गये है। मनेरी-भाली चरण दो में बांध चालू होने के बाद भी जलाशय पूरा नही भरा जा सका चूंकि जलाशय से नई डूब आई। डूब का क्षेत्र पहले मालूम ही नही था। इसी बांध की सुरंग से कितने ही गांवों के जल स्त्रोत सूख गये। बांध बनने के बाद इसका विद्युतगृह टिहरी बांध की झील में आ रहा है। यह बताता है कि अभियांत्रिकी व सर्वे कितने गलत है।
भागीरथीगंगा के बांधों से कभी भी पानी छोड़ने के कारण दसियों लोग डूब चुके है। अभी 18 फरवरी, 2012 को उत्तरकाशी में गंगा के बीच में दो बच्चे फंस गये थे। गंगा सर्दियों में सूखी नजर आती है। बांध कंपनियंा शाम को बिजली पैदा करने के लिये ही पानी छोड़ती है। नदी किनारे रहने वाले, नदियों से ही वचिंत हो गये है।
माननीय उच्च न्यायालय द्वारा 3 नवम्बर 2011 को एन. डी. जुयाल व शेखर सिंह की याचिका पर टीएचडीसी को टिहरी बांध विस्थापितों के पुनर्वास कार्य पूरा करने के लिये 102.99 करोड़ रुपये देने का निर्देश दिया है। जबकी सरकारें 2005 में ही पूर्ण पुनर्वास की घोषणा कर चुकी थी। अभी भी अलंकनंदागंगा पर बने पहले निजी बांध {जे.पी. कंपनी} की सुरंग से धंसे चाई गांव के लोगो का पुनर्वास नही हो पाया है।
मंदाकिनी घाटी में निर्माधीन सिंगोली-भटवाड़ी व फाटा-ब्योंग बांधों की निमार्णाधीन सुरंगो से त्रस्त, अपने जंगलो की रक्षा में खड़े लोगो को जेल भेजा जा रहा है। और बांध कंपनियों की निगरानी तक नही है।
पिंडर घाटी में जहंा लोगो ने बांध का विरोध किया, दो बार जनसुनवाई नही होने दी वहंा तीसरी बार बैरीकेट लगाकर जनसुनवाई की गई और तमाम उलंघनों के बाद भी स्थानीय प्रशासन और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने केंद्रीय मंत्रालय को गलत तथ्य पेश किये।
65 मीटर के बांध और 200 मेगावाट के लिये प्रस्तावित श्रीनगर परियोजना में 95 मीटर का बांध और 330 मेगावाट के लिये बन रही है। यह पर्यावरण मंत्रालय की बंद आंखो वाली स्वीकृति प्रक्रिया का प्रमाण है।
ये सब कुछ उदाहरण मात्र है कि कैसे बांधों से विकास के भ्रम को आगे बढ़ाया जा रहा है।
रोजगार की कमी के कारण लोग बांधों को रोजगार के विकल्प के रुप में देखते है। लोगो के लिये शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क व पुलों जैसी मूलभूत सुविधायें सरकार द्वारा ना देकर बांध कंपनियों द्वारा दिये जाने के वादे दिये जा रहे है। दूसरी तरफ बांध विस्थापितों को ये ही सुविधायें देने से बांध कंपनी कतराती हंै। यह सरकारी योजनाकारों की विफलता और प्राकृतिक संसाधनोें को लोगो से छीनने और उनके दुरुपयोग का खुला उदाहरण है।
हन सबके सबूत हमारे पास मौजूद है। कुछ फोटो और यूट्यूब के लिंक हम साथ में दे रहे है। जिनसे ये सारी असलियत सामने आती है। इन्हे हमारे ब्लाॅग http://www.youtube.com/watch?v=ULVG84mVL-w
बड़ी जलविद्युत परियोजनायें ही रोजगार का एक मात्र साधन नहीं हैं। उत्तराखंड राज्य की परिस्थिति देखते हुये, लोगो का जीवन स्तर ऊंचा उठाने के लिये व रोजगार के स्थायी साधन बनाने, पलायन रोकने के लिये उत्तराखंड राज्य सरकार व केन्द्र सरकार को हमारे कुछ सुझाव है.....
शिक्षा का स्तर प्राथमिक स्तर से ही उच्चस्तरीय बनाया जाये। कालेज तक के छात्रों के लिये मुफ्त रहने व भोजन की व्यवस्था हो।
व्यवसायिक प्रशिक्षण संस्थानों का भी प्रसार हो।
कार्यरत जलविद्युत परियोजनाओ की सही निगरानी और नियम-कानूनो-वादों के उंलघन पर दंड की व्यवस्था हो।
बंद पड़ी छोटी जलविद्युत परियोजनाओ को चालू किया जाये और उनसे उत्पादित बिजली का उपयोग स्थानीय स्तर पर पहले हो।
स्थायी रोजगार के लिए स्थानीय घराटों को उच्चीकृत किया जाये जिनसे ग्रामीणों को स्थायी रोजगार/खेतांे को पानी/गांव को बिजली भी मिल सके।
छोटी परियोजनायें जिनको, स्थानीय लोगों की सहकारी समिति या पंचायतों को आबंटित किया जाय ।
सेवा क्षेत्र, सूचना तकनीक, शिक्षा-स्वास्थ्य, अनुसंधान केंद्र, बागवानी, फलखेती, औषधि उत्पादन जैसी स्थायी रोजगार की योजनायें बनायी जायें।
नदियों के जल को उपर पहाड़ों से ही नहरों के द्वारा निकाला जाये जिससे खेतोें को वर्ष भर पानी मिल सके। अनाज की जरूरतंे पूरी हो सके। राज्य के पहाड़ी क्षेत्र में मात्र 7 प्रतिशत ही खेती की भूमि शेष है।
हमारी नयी सरकार से मांग है किः-
बड़े बांधों की समस्याओं पर विचार करे।
आज तक बने चुके और निर्माणाधीन बांधो पर श्वेत पत्र जारी करे।
उपर लिखे सुझावों पर गंभीरता से विचार करे ताकि उत्तराखण्ड का स्थायी विकास संभव हो।
विमलभाई, पूरण सिंह राणा, राजेंद्र सिंह नेगी, रामलाल
बांध कथा-2
पिंडर नदी पर प्रस्तावित देवसारी बांध की 20 जनवरी, 2011 बैरीकेट मे हुई जनसुनवाई।
http://www.youtube.com/watch?v=ULVG84mVL-w